समाज को बचाएँ
पूंजीवादियों और प्रभावशालियों से
– डॉ. दीपक आचार्य
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हम सारे के सारे लोग सामाजिक अनुशासन और मर्यादाओं की बड़ी-बड़ी डींगे हाँकने में माहिर हैं। कोई जातिवाद की ढपली बजा रहा है, कोई अपने आपको ऊँच-नीच के पैमानों पर खरा उतारने की कोशिश करने में जुटा हुआ है, कई सारे ऎसे हैं जो समाज और संस्थाओं पर हावी होने के लिए अपने-अपने फन और हुनर आजमाते हुए भांति-भांति के साम, दाम, दण्ड और भेद को अपनाने में दिन-रात एक कर रहे हैं।
सभी के सभी लोगों में अपने आपको श्रेष्ठ तथा श्रेष्ठतर साबित करने की धमाचौकड़ी मची हुई है। कोई किसी दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना नहीं चाहता। हम सभी लोग अपने आचरणों की ओर आँख मूँदे बैठे हुए दूसरों के काम-काज और चरित्र पर उंगली उठाने में भेजा खपा रहे हैं।
हमारे समग्र जीवन की ऊर्जा और शक्ति अपने अहंकार और वजूद को परिपुष्ट करने की कसौटियों पर खरा उतारने की दिशा में ही आगे बढ़ रही है। हमें न धर्म और सत्य से कोई मतलब है, न समाज या क्षेत्र की गतिविधियों से कोई सरोकार। अपने अस्तित्व को दर्शाने और दूसरों से जबरन स्वीकार करवाने की जद्दोजहद में हम तर्क-कुतर्क, बहसों और वहशी सोच का सहारा लेने में इतने माहिर हो गए हैं कि हमारे लिए अब न समाज को स्वीकारने का साहस रहा है, न किसी और व्यक्ति को।
समाज की बुनियाद बना आदमी समाज से अपेक्षाओं को भुला चुका है और समाज की मर्यादाओं तथा अनुशासन से दूर भटकता जा रहा है, दूसरी ओर समाज तथा व्यक्ति के बीच के संबंधों का इतना क्षरण हो चुका है कि न समाज को व्यक्ति से कोई अपेक्षाएं बाकी रह गई हैं, न व्यक्ति समाज के दायरों में रहना ही चाहता है। देश की दुरावस्था के लिए यह संबंधहीनता ही सर्वाधिक जिम्मेदार है।
इसका मूल कारण यह है कि समाज की प्रत्येक इकाई की सामाजिक संरचना में सशक्त भागीदारी कम होती जा रही है। कुछ समाजों को छोड़कर सभी में चोखरे या क्षेत्रवार गांवों के समूह बने हुए हैं जो सामाजिक अनुशासन और मर्यादाओं को बनाए रखने के लिए हर क्षण सतर्क और सचेष्ट रहा करते हैं। इनकी वजह से समाज एक सूत्र में बँधा हुआ है और मर्यादाओं का पालन भी हो रहा है।
दूसरी ओर कई सारे समाजों की स्थिति ऎसी है कि इनमें सामाजिक अनुशासन समाप्त होता जा रहा है और कुरीतियों, फिजूलखर्चियों तथा अनुशासनहीनताओं की स्थिति बढ़ती जा रही है, समाज का व्यक्ति पर से नियंत्रण समाप्त हो गया है, और व्यक्ति का समाज पर से विश्वास। अभिजात्य और उच्च कहे जाने वाले समाजों की दुरावस्था के मूल में भी यही है। परस्पर विश्वास और संबंधों का यह सेतु इतना टूट चुका है कि इन समाजों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं कही जा सकती जितनी कि दंभपूर्वक बतायी जाती है।
इसका मूल कारण यह है कि इन समाजों के भीतर प्रभावशालियों और पूँजीपतियों के ऎसे कई समूह बन चले हैं जो सामाजिक अनुशासन को भी लांघ देने में समर्थ हो गए हैं। ये समूह अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव को दिखाने की गरज से समाज पर हावी हो जाते हैं। इनका एकसूत्री उद्देश्य समाज के कंधों पर सवार होकर अपने कद ऊँचे कर लेना ही रह गया है ताकि ये समाज के नाम का इस्तेमाल अपना प्रभाव जमाने और दूसरी-तीसरी गतिविधियों में कर सकें। इन पूंजीवादी समूहों के पास वे सारे गुर होते हैं जो समाज के खास-खास लोगों को अपने पक्ष में बनाए रखा करते हैं।
कुछ लोग तो हर समाज में ऎसे होते ही हैं जिन्हें मुफत का चाटने मिल जाए तो किसी के सामने भी दुम हिलाते नज़र आएं। कुछ ऎसे होते हैं जो इन पूंजीवादी समूहों के दबाव में आ जाते हैं। खूब सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें अपने काम-धंधों से ही फुरसत नहीं मिल पाती। ढेरों लोग ऎसे होते हैं जो अपने स्वार्थों के लिए किसी के भी आँगन में नाच-गान कर लेने की आदत पाल लेते हैं। इन्हेंं नाच-गाकर मुफतिया माल उड़ाने से ही मतलब है, फिर चाहे भोज आशीर्वाद समारोह का हो या किसी का मृत्यु भोज या भण्डारा। हर समाज में काफी सारे लोग ऎसे मिल जाते हैं जो पूंजीवादी समूहों की नापाक हरकतों से परेशान होकर हमेशा-हमेशा के लिए समाज से मुँह मोड़ लेते हैं।
इन तमाम स्थितियों में पूंजीवादी और सम सामयिक धाराओं के प्रभावशाली लोग अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए समाज का कबाड़ा कर दिया करते हैं और फिर सामाजिकता और अनुशासन, मर्यादाओं आदि का लोप होने लगता है और समाज कई बरस पीछे चला जाता है।
इसका खामियाजा समाज को भी भुगतना पड़ता है और उन लोगों को भी जो समाज का अंग कहे जाते हैं। आज समाजों को पूंजीवादियों और प्रभावशाली गिराहों से मुक्त कराया जाना बहुत जरूरी हो चला है वरना आने वाला समय समाज और देश दोनों के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि पूंजीवाद और गिरोहबंदी हमेशा ‘बाँटों और राज करो’ वाले सूत्र को ही अपनाती है।
इस सत्य को हम आज नहीं स्वीकारेंगे तो आने वाले समय में समाज नाम का शब्द इतिहास में दफन होकर रह जाएगा। अपने-अपने समाजों को नालायकों, पूंजीवादियों और इस्तेमाल करने वालों से मुक्त कराएं और वर्तमान युग के अनुरूप सामाजिक दायित्वों और प्रत्येक इकाई के फर्ज को परिभाषित करें। वरना अब हमारे सामने ऎसे-ऎसे लोग आ चुके हैं जो समाज और संस्थाओं को खा जाने का पूरा सामथ्र्य रखते हैं।
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