तुर्कों के भारत में आकर यहां के कुछ क्षेत्र पर बलात अपना नियंत्रण स्थापित कराने में इस्लाम की धार्मिक (पंथीय या साम्प्रदायिक कहना और भी उचित रहेगा) मान्यताओं ने प्रमुख भूमिका निभाई। इन मान्यताओं के अनुसार इस्लाम संपूर्ण मानवता को दो भागों में विभाजित करके देखता है, सर्वप्रथम है-‘दारूल-इस्लाम’ अर्थात वो देश जिनका इस्लामीकरण किया जा चुका है, और दूसरे ‘दारूल हरब’ अर्थात वो देश जिनकी इस्लामीकरण की प्रक्रिया अभी जारी है, और जिन्हें एक दिन ‘दारूल इस्लाम’ बना देना है।
इस्लाम का दीनी परचम
इस्लाम को मानने वालों ने अपनी इन्हीं मान्यताओं को लागू कराने के लिए विश्व के बहुत से देशों में करोड़ों लोगों का रक्त बहाया है, और अनेकों रक्तिम संघर्ष किये हैं। अरब सहित रोम, फारस (ईरान) मिस्र, मोराको, बलोचिस्तान, अफगानिस्तान जैसे कई देशों में इस्लाम के अनुयायियों ने कुरान के आदेशों का पालन करते हुए ‘दीनी परचम’ लहराने का कार्य किया है। इसका विरोध करने वालों को कठोर से कठोर दण्ड दिये हैं और कितने ही निरपराधों का वध किया है। भारतवर्ष भी इस्लाम की इस घृणात्मक अपमानित कार्यशैली से बच नही पाया। इसलिए भारत को भी इस्लाम के रंग में रंगने के लिए ही इस देश पर अनेकों आक्रमण किये गये। अत: तुर्कों की भारत पर विजय प्राप्त करने में प्रमुख कारण राजनीतिक न होकर धार्मिक अधिक थे। यह अलग बात है कि उनके धार्मिक या साम्प्रदायिक उद्देश्यों में ही राजनीतिक उद्देश्य स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित होते हैं। धार्मिक उद्देश्यों से प्रेरित होकर भारत पर जितने भी आक्रमण किये गये उन सबमें यहां अत्याचारों के कीर्तिमान स्थापित किये गये। जिससे भारत की स्वतंत्रता कुपित हुई और उसकी मानवता बाधित हुई। ‘स्टोरी ऑफ सिविलिजेशन’ के लेखक बिल डयूरैण्ट ने बड़े पते की बात कही है-”इतिहास में इस्लाम द्वारा भारत की विजय के इतिहास की कहानी संभवत: सर्वाधिक रक्तरंजित है। यह एक अति निराशाजनक कहानी है, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष आदर्श यही है कि भारतीय सभ्यता जो इतनी बहुमूल्य और महान है, जिसमें स्वतंत्रता, संस्कृति एवं शांति का कोमल मिश्रण है कि उसे कोई भी बर्बर, विदेशी आक्रांता अथवा भीतर ही बढ़ जाने वाले आततायी किसी भी क्षण नष्ट भ्रष्ट एवं समाप्त कर सकते हैं।”
भारत में कितने बड़े स्तर पर लोगों का वध किया गया, इसके विषय में स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन हमारी बात की पुष्टि कर सकता है-”उनके अपने ही ऐतिहासिक’ लेखों (वर्णनों) के अनुसार जब पहली बार मुसलमान भारत आये भारत में हिंदुओं की जनसंख्या साठ करोड़ थी। इन कथनों में न्यून वर्णन का दोष हो सकता है, किंतु अतिश्योक्ति का न ही, क्योंकि मुसलमानों के अत्याचारों के कारण असंख्य हिंदुओं का वध हो गया था। किंतु वे हिंदू आज घटकर (केवल) बीस करोड़ रह गये हैं।”
इतनी बड़ी संख्या में जहां संहार हुए वहां किन्ही कारणों से यदि कहीं-कहीं और कभी-कभी मनोबल भी टूट गया हो, तो उसे राष्ट्रीय पराजय घोषित करना अन्याय है। महत्वपूर्ण बात ये है कि विदेशियों के अत्याचारों के सामने घुटने न टेकने को लोगों ने अपना जातीय और राष्ट्रीय (कौमी) संकल्प बना लिया। करोड़ों लोग मिट गये अपने संकल्प की रक्षा के लिए पर जो शेष बचते थे वह जाने वालों के बलिदान की सौगंध उठाकर पुन: हथियार उठाते थे और जा भिड़ते थे शत्रु से। अदभुत वीरता और अदभुत राष्ट्रभक्ति का अदभुत उदाहरण था ये।
भारत ही बच सका
संप्रदाय के नाम पर इस्लाम ने पूरे पांच सौ वर्षों तक संपूर्ण संसार में घोर रक्तपात किया। इस रक्तपात में से अपने आपको बचाकर बाहर लाने में केवल भारतवर्ष ही सफल हो पाया था। स्वामी विवेकानंद (स्वामी विवेकानंद ने कंपलीट वकर््स खण्ड 4 पृष्ठ 126) कहते हैं-”मुसलमान सर्वाधिक असभ्य, बर्बर, और घोर पंथवादी हैं। उनका आदर्श वाक्य है-अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका पैगंबर है। इसके परे जो कुछ भी है, वह केवल बुरा ही नही है, उसे तुरंत नष्ट भी कर दिया जाना चाहिए। एक क्षण की भी सूचना दिये बिना उन सभी मनुष्यों और स्त्रियों को जो उसमें एकदम वैसा ही विश्वास नही करते हर हालत में मार देना चाहिए। पैसिफिक से लेकर अटलांटिक तक पूरे पांच सौ वर्षों तक सारे विश्व में रक्तपात होता रहा। यह है मौहम्मवाद।”
इसी ‘मौहम्मदवाद’ से भारत की हिंदू जनता सैकड़ों वर्ष तक टक्कर लेती रही, तो उस वीर जाति को कायर कहना स्वयं में एक कायरता है। पता नही हमें कब अपने वीर देशभक्त पूर्वजों को राष्ट्रवीर कहने की समझ आएगी?
हमारे जीवन मरण का प्रश्न
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हम अपने महान और वीर देशभक्त पूर्वजों को अभी तक भी कायर माने और कहे जा रहे हैं, परंतु विदेशी इतिहासकारों या लेखकों की मान्यता हमारे विषय में ऐसी नही है। इतिहास कार कोनाई ऐलस्ट ने अपनी पुस्तक ‘निगेशनिज्म इन इण्डिया’ के पृष्ठ 33-34 पर जो कुछ लिखा है, वह भारत के इतिहासकारों के लिए सचमुच प्रेरणास्पद हो सकता है। वह लिखते हैं :-”बलात मुस्लिम विजयें हिंदुओं के लिए सोलहवीं सदी तक जीवन मरण के संघर्ष का ही प्रश्न बनी रहीं। संपूर्ण शहर जला दिये गये थे, संपूर्ण जनसंख्या का वध कर दिया गया था। प्रत्येक आक्रामक संघर्ष में हजारों का वध कर दिया गया। आक्रांता द्वारा वध किये गये हिंदुओं के सिरों के वस्तुत: पहाड़ खड़े किये जाते थे। एक हजार ईस्वी में अफगानिस्तान की बलात विजय के पश्चात वहां हिंदुओं का वध कर सफाया कर दिया गया था। उस स्थान को अभी भी ‘हिंदूकुश’ यानि कि ”हिंदुओं के कत्लेआम का स्थान कहा जाता है।”
….पर अब क्या विवशता है
प्रचलित इतिहास हमें कुछ ऐसी सूचना देता है जिससे ये भ्रांति फेेले कि 1206 ई. में दिल्ली पर कुतुबुद्दीन ऐबक का अधिकार होते ही सारा हिंदुस्तान मुस्लिमों का दास हो गया था। मुस्लिम काल में इतिहास का विकृतीकरण इसी राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया। न्यूनाधिक यही प्रवृत्ति अंग्रेजों की रही। परंतु अब तो हम स्वाधीन हैं, अब क्या विवशता है? संभवत: ‘वोट बैंक’ की राजनीति ही इसके लिए उत्तरदायी है कि अब भी हमारे इतिहास का शुद्घिकरण और पुनर्लेखन नही किया जा रहा है।
‘हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल’ नामक पुस्तक में खण्ड 7 पृष्ठ 12, 13 पर डा. आर.सी. मजूमदार लिखते हैं-”यह बड़े दुख की बात है कि राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इतिहास का विकृतीकरण मात्र राजनीतिज्ञों तक ही सीमित नही है, वरन यह दोष पेशेवर इतिहासज्ञों में भी व्याप्त हो गया है……..भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्वावधान में लिखित इतिहास में मुस्लिम विध्वंस आक्रांताओं द्वारा हिंदू मंदिरों के विध्वंस को झुठलाने का प्रयास किया गया और बल देकर कहा गया कि मुस्लिम शासक धर्म के मामलों में बड़े सहिष्णु थे।”
भारतीय इतिहास का एक अनावश्यक अध्याय
बस इसी सोच ने भारत के मध्यकालीन इतिहास के सबसे बड़े सच अर्थात विश्व की एक मात्र वीर हिंदू जाति (जो पांच सौ वर्षों तक संघर्ष करते-करते भी आक्रांताओं के सामने झुकी नही, जबकि उसी काल में अन्यत्र इस्लाम को आशातीत सफलता मिली थी) को सबसे बड़े झूठ के रूप में कायर लिखवा दिया। यही कारण रहा कि भारत में एक अनावश्यक अध्याय ‘राजपूतों की पराजय के कारण’ जोड़ दिया गया। कुश्ती समाप्त नही हुई और विजयी पक्ष को ही पराजित घोषित करने वाला ये अध्याय आज तक इतिहासकारों की ‘नूरा कुश्ती’ को जारी रखे हुए है। अब तक राजपूतों की पराजय के कारणों पर शोध और अनुसंधान जारी है। जबकि शोध इस बात पर होना चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों में हिंदुओं के पतन का शिकार होने के उपरांत भी वे अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किन कारणों से करते रहे और ये भी कि क्यों करते रहे?
इतिहास का पुनर्लेखन हो
हम अपने महान पूर्वजों के महान और अनुकरणीय बलिदानों के अलिखित इतिहास को पुनर्लेखित करें। यह उनका कोई दोष नही था कि वो बलिदानी लोग हमारे लिए अपने बलिदानों का कोई विवरण छोड़कर नही गये। वैसे भी जिस समय शत्रु पल-पल सामने रहकर हमारे सर्वनाश में लगा हो-उस समय प्रतिकार करना ही उचित होता है। अपने पौरूष का वर्णन करना तो उस समय अनुचित ही जान पड़ता है। उन्होंने जौहर और आत्मबलिदान को इतिहास की धधकती भट्टी बना दिया था, जिससे पूरा देश ही आत्मबलिदान के विशाल यज्ञकुण्ड में परिवर्तित हो गया। उस यज्ञकुण्ड से निकलने वाली हमारे बलिदानियों के बलिदान की सुगंध जहां-जहां तक जाती थी वहीं वहीं तक आक्रांताओं का प्रतिकार करने और उनके प्रति घृणा का भाव पहले से ही लोगों में संचारित हो जाता था। इसलिए सारे देश में ही प्रतिकार और घृणा की हवा आक्रांताओं के विरूद्घ बन चुकी थी। क्या कोई मानसिक विकलांगता से ग्रसित इतिहासकार इस बात का उत्तर दे सकता है कि सारे देश में ही विदेशी आक्रांताओं के प्रतिकार और उनके विरूद्घ घृणा के इन भावों में एक जैसी समानता क्यों थी? इसे ये कहकर उपेक्षित नही किया जा सकता कि उस समय के हिंदू समाज में विदेशियों को अपनाने का भाव समाप्त हो गया था।
जब इस विषय पर विचार करते हैं तो एडवर्ड थॉमसन नामक अंग्रेजी इतिहासकार का यह कथन उचित जान पड़ता है-”हमारे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान किया है। उस दृष्टिकोण को बदलने के लिए जो साहसपूर्ण एवं सशक्त समीक्षा शक्ति अपेक्षित है, वह भारतीय इतिहासकार अभी बहुत समय तक नही दे सकेंगे।”
तुर्कों ने भारतीयों का हृदय जीतने का प्रयास नही किया
कभी तुर्कों ने भारतीयों का हृदय जीतने का प्रयास नही किया। यदि वो ऐसा करते तो हिंदू समाज में उनके प्रति जिस प्रतिकार और घृणा का भाव भरा हुआ था वह समाप्त किया जा सकता था। अब प्रश्न ये है कि तुर्कों ने ऐसा क्यों नही किया? इसका उत्तर ‘मिशकत’ खण्ड 2 : 236 पृष्ठ 417 से हमें मिलता है। जहां इमाम शफी मौहम्मद साहब के वचनों को उद्घृत करते हुए लिखता है कि वध हुए व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्तियों का वधकर्ता ही अधिकारी है।
हिंदू समाज में विदेशियों को अपनाने के भाव की कमी का तर्क देने वाले तनिक बताएंगे कि जहां विदेशी हमारे समाज के लोगों का वध करना ही एकमात्र उद्देश्य मानकर चल रहे थे वहां उनसे मित्रता या समन्वय कैसे संभव था? इस उद्देश्य ने हिंदुओं में प्रतिकार और घृणा को मुस्लिमों के विरूद्घ बढ़ाया, जब संपत्ति लूटना उद्देश्य हो तो उस समय तो बहुत से मुस्लिमों के लिए हिंदुओं का धर्मांतरण कराना भी उचित नही था, तब तो उन हिंदुओं का वध कर देना ही उन्हें उचित लगता था। इसीलिए जौहर और आत्म बलिदानों के ‘साके’ रचाना भारतीयों ने उस समय अपना राष्ट्रीय संकल्प बना लिया। अत: दो विभिन्न विचारधाराओं में समन्वय की दूर दूर तक संभावनाएं क्षीण हो गयीं थीं। तलवार का सामना प्रतिकार से करना उस समय की अनिवार्यता भी थी और बाध्यता भी।
युद्घबंदियों के प्रति कुरान की मान्यता
युद्घबंदियों के प्रति भी कुरान की मान्यता यही है कि उन्हें भी मार डालना ही उचित है। जिससे काफिरों का सदा सदा के लिए नाश हो जाए। अत: जब भारतीयों ने देख लिया कि युद्घ में या शांति में जैसे भी वो इन आक्रांताओं के हाथ लगेंगे वैसे ही उनके वध किये जाने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा, तो उन्हेांने मरने के लिए ‘सर से कफन बांधकर’ बाहर निकलना ही उचित समझा।
मुस्लिमों को उनकी कुरान शरीफ प्रोत्साहित करती है-”निश्चय ही अल्लाह से डरने वाले। विश्वासियों के लिए एक अति सुरक्षित स्थान (जन्नत) जहां बगीचे होंगे, अंगूरों का बाग होगा, उठे हुए उरोजों वाली हूरें होंगी, उनकी प्रतीक्षा में हैं। (78, 31-34 पृष्ठ 1420)” कुरान ऐसा प्रोत्साहन उनके लिए देती है जो जिहादी है और विश्व में चारों ओर इस्लाम का परचम लहराना जिनका उद्देश्य है।
कुरान की ऐसी आज्ञाओं ने मुसलमानों को हिंदुओं के प्रति अति क्रूर और हिंसक बनाया। ऐसी क्रूर आज्ञाओं पर काम करने वाले मुस्लिम आक्रांताओं के साथ भी हिंदुओं से अपेक्षा की गयी कि उन्हें उनके साथ मिलकर चलना चाहिए और एक समानांतर दूरी बनाकर अपनी ‘पाचन शक्ति’ की दुर्बलता का परिचय नही देना चाहिए था। हमारा पूछना है कि अफगानिस्तान में बौद्घ बने हिंदुओं ने मुस्लिमों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उनके साथ मिलकर चलने का भी संकल्प लिया, पर परिणाम क्या निकला? सारा अफगानिस्तान मुसलमान बना दिया गया। मुस्लिमों के साथ मिलकर चलने का हिंदुओं को उपदेश देने वाले इतिहासकार क्या सारे देश केा ही अफगानिस्तान बना देना अच्छा समझते हैं? इनका उत्तर क्या होगा यह तो हमें ज्ञात नही पर उस समय के हिंदुओं के विषय में तो ये कहा ही जा सकता है कि यदि उनसे भी यही प्रश्न पूछ लिया जाता तो उनका उत्तर तो ‘सर्वथा नही’ ही होता। इस ‘नही’ को रहस्यमयी बनाना उचित नही है, और ना ही इसके मूल की उपेक्षा करना ही उचित है। मूल्यांकन हर परिस्थिति और हर घटना का निष्पक्षता से किया जाना अपेक्षित है।
हिंदुओं का भाग्यवादी होना
प्रचलित इतिहास की पुस्तक में हिंदुओं की कथित पराजय के कारणों में हिंदुओं का भाग्यवादी होना भी उनकी पराजय का एक कारण माना जाता है। वास्तव में यह ‘भाग्यवाद’ की विडंबना वेद विद्या के विरूद्घ हमारा आचरण हो जाने की परिणति थी। अविद्या और अज्ञान में देश का जनसाधारण फंसता जा रहा था और देश का ब्राह्मण वर्ग अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उन्हें अविद्याग्रस्त ही बनाये रखना चाहता था। जब सोमनाथ का मंदिर लूटा जा रहा था तो कहा जाता है कि उससे पूर्व मंदिर के महंत ने लोगों से कह दिया था कि चिंता मत करो, मंदिर की मूर्ति सबकी रक्षा करेगी। पर ऐसा ना तो होना था और ना ही हुआ। ऐसे अंधविश्वासों के कारण ही हमारा पतन हो रहा था। जो देश मनुष्यों को जन्मना पुरूषार्थी और उद्यमी बने रहने की शिक्षा देने के लिए विख्यात रहा था वह अब स्वयं ही कई प्रकार की अकर्मण्यताओं के भंवरजाल में फंस गया था। यह दुर्भाग्य रहा देश का कि जब यहंा विशेष सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आंदोलनों के माध्यम से पुन: वैदिक संस्कृति की धूम मचाने की आवश्यकता थी, उसी समय यहां इस्लाम की नंगी तलवार अपनी ‘धूम’ मचाने लगी। जिसका यहां के लोगों ने विरोध और प्रतिरोध तो किया परंतु उस तलवार को तोड़कर उसकी अपसंस्कृति का नाश करने में असफल रहे। अप संस्कृति का नाश करने से हमारा अभिप्राय विश्व में ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ के भारतीय आदर्श को मिटाने वालों के विरूद्घ एक वैश्विक प्रतिरोधी मंडल बनाकर देने के प्रति भारतीयों के उदासीनता के भाव से है। जबकि जनविरोधी राजा का सर्वनाश करना भारतीय क्षात्र धर्म की परंपरा रही है।
उस समय हम भाग्यवादी हो गये थे, तो आज हम भोगवादी हो गये हैं। पुरूषार्थ और उद्यमशीलता ये दोनों वो तत्व हैं जो किसी राष्ट्र को वर्चस्वी बनाते हैं। भारत के मौलिक चिंतन में ये दोनों तत्व सदा विराजमान रहे हैं। तभी तो हम ‘विश्वगुरू’ बने थे और तभी आज भी हमने विश्व में एक सम्मान जनक स्थान प्राप्त किया है। इस उत्साह जनक तथ्य के रहते हुए भी हम आज भी भाग्यवादी और भोगवादी होने के झूले में झूल रहे हैं, जो हमें कहीं विश्वगुरू बनने के लक्ष्य से भटका रहा है। आज हम धर्मनिरपेक्षतावादी बनने के चक्कर में अपने अतीत को भी सराहने से बचते हैं। पर जिस काल का उल्लेख हम कर रहे हैं उसमें लोगों ने अपने गौरवमय अतीत की विरासत को बचाने के लिए अथक परिश्रम किया था। वह भाग्यवादी थे परंतु भोगवादी नही थे। कदाचित् यही कारण था-जो उन्हें उस अंधकार पूर्ण निशा में भी प्रकाश के दर्शन कराता था और जब विदेशियों के हमले होते या भारी नरसंहार होता तो भी वे भाग्यवादी भारतीय भाग्य के सहारे ही रणक्षेत्र में कूद पड़ते या मुसलमान न बनकर भाग्य भरोसे रहकर ही अपने आपको बचाए रखते थे। यद्यपि हम इस भाग्य वाद को अपने भीतर उपजा एक दोष ही मानते हैं परंतु जब यह दोष ही कहीं बचाने में भी सहायक हो रहा हो तो इसे ही अपनी कथित पराजय का एकमात्र कारण मान लेना भी उचित नही है।