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विश्वगुरू के रूप में भारत

राष्ट्रीय सौर कैलेंडर की उपेक्षा करने की दोषी सरकार भी है

 

लेखिका:- लीना मेहेंदले
(लेखिका सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी हैं)

कितने लोगों को पता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों की ही भांति देश की सरकार ने अपना एक कैलेंडर भी मान्य किया है, जोकि अपने देश की प्राचीन पंचांग परंपरा पर आधारित है। पंडित नेहरू द्वारा प्रसिद्ध विज्ञानी मेघनाद साहा के नेतृत्व में बनाई गई कैलेंडर समिति ने अंग्रेजी कैलेंडर के स्थान पर भारत के परंपरागत पंचाग व्यवस्था पर आधारित सौर शक संवत् को अपनाने का सुझाव दिया था। सरकार ने कागजों में तो इसे मान्य कर लिया परंतु व्यवहार में अंग्रेजी संवत् ही प्रचलन में रहा और आज भी है। भारत में ब्रिटिश राज से पूर्व कालगणना के लिये सांवत्सर तथा चांद्र पंचांग दोनों प्रचलित थे। उनके आधार पर सौर मंडल की गतिविधियाँ, महीने, ऋतु, मौसम चक्र, साप्ताहिक हवाएँ, कृषि हेतु कार्य आदि जाने जाते थे। जन सामान्य के लिये चांद्र पंचांग अधिक सरल था क्योंकि चंद्रमा की स्थितियाँ प्रतिदिन देखी जा सकती थीं। यह प्रथा 18वीं शताब्दी तक चलती रही।

ब्रिटिश शासन के बाद देश में अंग्रेजी कैलेंडर लागू किया गया और भारतीय पंचांग को रद्द घोषित किया। अगले दो सौ वर्ष तक अर्थात् लगभग आठ पीढिय़ों तक हमारे व्यवहार ग्रेगॅरियन कैलेण्डर से ही चलते रहे। हालाँकि पंचांगों का गणित और छपाई कायम रहे, लोगों के पर्व-त्यौहार भी पुरानी गणनानुसार ही चलते रहे, लेकिन हर अगली पीढ़ी इसके बारे में थोडा-थोड़ा भूलने लगी थी। स्वयं को आधुनिक मानने वाले लोग पंचांग में निहित वैश्विक गणित को ठुकराने और उसे अंधविश्वास बताने में ही धन्यता मानने लगे। फिर भी देश में एक मण्डली थी जो पंचांगों का अध्ययन करने और अगले वर्ष के अचूक पंचांग को बनाने में कुशल थी। इनसे परे ऐसे सक्षम विद्वान भी थे जो पंचांग के गणित में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों का भान रखते हुए उपयुक्त सुधार कर सकते थे। श्री लोकमान्य तिलक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, माधवचंद्र चट्टोपाध्याय, संपूर्णानंद, पं मदनमोहन मालवीय, आदि ने पंचांगों की काल गणना में कई सुधार किए। इससे ज्ञात होता है कि भारत में पंचांगों की समझ व परंपरा कितनी गहराई से समाहित है।

वर्ष 1947 में ब्रिटिश राज से मुक्त होने पर भारत ने अंगरेजी प्रतीकों को दूर करते हुए राष्ट्रीय प्रतीकों को अपनाया। उदाहरण स्वरूप राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान आदि। उस समय देश का एक अपना राष्ट्रीय कैलेंडर हो, यह विचार भी सामने आया। उन दिनों भारत में लगभग तीस विभिन्न पंचांग पद्धतियाँ थीं। उनका अध्ययन कर पूरे देश के लिये एक राष्ट्रीय कैलेंडर बनाने हेतु संसद ने एक समिति गठित की। इसके पीछे यह भावना थी कि पूरे भारत में एक ही कैलेंडर हो जिसमें भारतीयों की अस्मिता व एकात्मता का दर्शन हो।

तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सुझाव पर सीएसआईआर अर्थात् वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान काउन्सिल ने यह अध्ययन करने हेतु नवंबर 1952 में कैलेंडर सुधार समिति का गठन किया। प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री डॉ मेघनाद साहा इस समिति के अध्यक्ष थे। इसके अन्य सदस्य थे —

1) प्रो. ई सी बनर्जी (इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति)
2) डॉ. ए एल दप्तरी (बी.ए., बी.एल., डी.एल.टी., नागपुर)
3) श्री बी. सी. करंदीकर (संपादक, केसरी, पुणे)
4) डॉ. गोरख प्रसाद (गणित विभाग के प्रमुख, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
5) प्रो आर वी वैद्य (माधव कॉलेज, इलाहाबाद)
6) श्री एन सी लाहिड़ी (पंचांगकर्ता, कलकत्ता)
ये सभी पंचांग से संबंधित विभिन्न मुद्दों के विशेषज्ञ थे।

समिति की सिफारिशों और उनके द्वारा बनाए गए भारतीय सौर कैलेंडर को स्वीकारते हुए भारत सरकार ने इसे 22 मार्च 1957 अर्थात् एक चैत्र 1879 सौर शक इस भारतीय सौर दिनांक से लागू किया। सभी आधिकारिक राजपत्र और राजनीतिक पत्राचार में और विशेष रूप से विदेशों के साथ किए गए समझौतों पर भारतीय सौर दिनांक लिखने पर ही वे वैध माने जाते हैं। रिजर्व बैंक ने भी सभी बैंकों को सौर दिनांक अंगीकार करने हेतु आदेश दिये हैं। यदि आप बैंक लेन-देन में सौर दिनांक का प्रयोग करते हैं तो बैंक उस दस्तावेज को अस्वीकार नहीं कर सकता है। ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जब उनके अस्वीकार करने पर रिजर्व बैंक और ग्राहक मंच ने उन पर आर्थिक दण्ड लगाया है।

अब आइए, समिति द्वारा राष्ट्रीय कैलेंडर बनाने हेतु उपयोग में लाये सूत्रों को देखें। समिति पर देश में प्रचलित सारे पंचांगों की जांच करके एक वैज्ञानिक दिनदर्शिका बनाने का दायित्व था। समिति ने विभिन्न पंचागकर्ताओं से और देश की जनता से अपने विचार साझा करने का आग्रह किया। समिति को कुल 60 पंचांग और कई सुझाव प्राप्त हुए। उन सभी का अध्ययन करते हुए समिति ने एक अधिकारिक राष्ट्रीय सौर कैलेंडर बनाया। इसे समझना आवश्यक है।
आकाश में सूर्य के दो भासमान भ्रमण हैं – दैनिक और आयनिक जो पृथ्वी के भ्रमण के कारण हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर रोज एक चक्र पूरा करती है जिस कारण सूर्य रोज पूरब से उगता और संध्या में अस्त होता दिखता है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर भी एक दीर्घ वृत्ताकार पथ पर परिक्रमा करती है जिससे सूर्य भी आकाश मार्ग में ग्रहों के मध्य भ्रमण करता दिखता है। सूर्य प्रतिदिन एक अंश चलता है और लगभग 365 दिनों में आकाश की एक प्रदक्षिणा पूरी करता है। इसे सूर्य की आयनिक गति तथा भासमान मार्ग को आयनिक वृत्त कहा जाता है। परन्तु दीर्घवृत्त पर परिक्रमा करती पृथ्वी का तल और अक्ष पर घूमती पृथ्वी की धुरी के बीच समकोण न होकर 23 अंश का कोण होता है। इस कारण आयनिक वृत्त और खगोलीय विषुव का वृत्त अलग अलग हैं और वे दोनों एक दूसरे को दो बिंदुओं पर काटते हैं। 22 मार्च व 23 सितम्बर को सूर्य इन बिंदुओं पर आता है, तब पृथ्वी पर दिनमान और रात्रिमान समान अर्थात् 12 -12 घंटोके होते हैं। 22 मार्च को वसंत संपात तथा 23 सितम्बर को शरद संपात कहते हैं। सांवत्सरिक गणना में वसंत संपात या विषुव, अर्थात् 22 मार्च सबसे महत्वपूर्ण है जब दिन और रात्रि समान होते हैं। अत: राष्ट्रीय कैलेंडर में 22 मार्च से वर्षारंभ होता है। चांद्र पंचांगानुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्षारंभ होता है जो कि 22 मार्च के आस पास पड़ती है। इसी कारण समिति ने 22 मार्च को सौर चैत्र एक नाम दिया।

आयनिक वृत्त पर चलता हुआ सूर्य 22 मार्च के बाद खगोलीय विषुव की तुलना में उत्तरावर्ती होते होते 22 जून को चरम उत्तर में आता है। उस दिन तक उत्तरायण होता है। वहाँ से सूरज दक्षिण की ओर यात्रा करने लगता है। लेकिन 23 सितम्बर तक वह रहेगा विषुव के उत्तर में ही। 23 सितंबर अर्थात शरद संपात के दिन सूरज फिर से विषुव बिंदु पर आता है जिससे दिन और रात समान होते हैं। वहां से सूर्य विषुव के दक्षिण में यात्रा करता है, और 23 दिसंबर को चरम दक्षिण पहुँचता है। तब फिर से उसकी उत्तरायण यात्रा आरंभ होती है। यदि हम सूर्योदय के समय सूर्य को देखने का स्वभाव बना लें तो हम देख सकते हैं कि 22 मार्चके बाद सूर्य के उगने का स्थान उत्तर की ओर खिसकता है, 22 जून से वह वापस पूरब आने लगता है, 23 सितम्बर तक ठीक पूरब में होगा, वहाँ से दक्षिण की ओर चलता है और 22 दिसम्बर से फिर पूरब की ओर मुडऩे लगता है।

सूर्य की यह नियमित और निरंतर भासमान गति है। उसी को आधार बनाकर सौर कैलेण्डर निर्माण समिति ने इन चार दिनों को महत्वपूर्ण बताया और उन्हीं से चार मासारंभ तथा महीनों के दिन निर्धारित किये। इस प्रकार एक चैत्र है 22 मार्च, वसंत संपात। महीनों के दिन चैत्र -30, वैशाख -31, ज्येष्ठ -31
एक आषाढ है 22 जून, दक्षिणायनारंभ । महीनों के दिन आषाढ, श्रावण, भाद्र प्रत्येक के 31
एक अश्विन है 23 सितंबर, शरद संपात। महीनों के दिन आश्विन, कार्तिक, अगहन प्रत्येक के 30
एक पौष है 22 दिसंबर, उत्तरायणारंभ। महीनों के दिन पौष, माघ, फाल्गुन प्रत्येक के 30 दिन।

इस प्रकार उत्तरायण के 185 तथा दक्षिणायन के 180 दिन होंगे। जो अंग्रेजी का लीप इयर होगा, उस वर्ष का चैत्र मास 21 मार्च से आरंभ होगा और उसके 31 दिन होंगे, जैसा इसी वर्ष 2020 में हो रहा है। इस विभाजन के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है। पृथ्वी सूर्य की प्रदक्षिणा में दीर्घवृत्त में घूमती है, विशुद्ध गोलाकार वृत्त में नहीं। दीर्घवृत्त में दो केंद्रक बिंदु होते हैं। सूर्य इनमें से एक बिंदु पर स्थित है। अपनी कक्षा में घूमती पृथ्वी जब सूरज के करीब अर्थात उपसूर्य स्थिति में यानी सूर्य के निकट होती है, तो उसकी गति अधिक होती है। जब पृथ्वी अपसूर्य क्षेत्र में (सूर्य से दूर) होती है, तब उसकी गति कम होती है। इसीलिए, वसंत संपात से शरद संपात की यात्रा में पाँच दिन अधिक लगते हैं।

चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि नाम पूरे भारत में प्रचलित हैं, इस कारण समिति ने यही नाम अपनाये। कैलेंडर सुधार समिति द्वारा बनाई गई इस नई कालदर्शिका को सरकार ने एक चैत्र 1879 यानी 22 मार्च, 1957 से अपनाया और निम्नानुसार तय किया

1) सभी भारतीय गजेटों में पहले भारतीय दिनांक को व उसके साथ अंग्रेजी तारीख को भी प्रिंट किया जाएगा।
2) आकाशवाणी पर और अब दूरदर्शन पर भी दिनांक की घोषणा में भारतीय व अंगरेजी दोनों की घोषणा होगी।
3) सरकारी कैलेंडर पर भारतीय मिती को बड़े व अंग्रेजी तारीखों को छोटे आकार में प्रदर्शित किया जाएगा।

इस प्रकार संवैधानिक रूप से स्वीकृत कैलेंडर को लागू किये आज 62 वर्ष बीतने पर भी भारतीय मानस में इसका प्रचार बिलकुल नहीं किया गया। इसीलिए कैलेंडर को बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। भारतीय पंचांग नक्षत्रों, महीनों, ऋतु आदि की शास्त्रीय नींव पर आधारित होता है जिससे प्रकृति संबंधी जानकारियाँ अपने आप जनमानस को पता चल जाती हैं। परन्तु सौर कैलेण्डर के विकल्प में ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग करना जारी रखने के कारण राष्ट्रीय सौर कैलेंडर भी वैसा ही उपेक्षित रहा, जैसा अंग्रेजी भाषा के विकल्प के कारण सभी भारतीय भाषाएँ उपेक्षित रहीं। इसे प्रचार में लाने हेतु जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है।

कहाँ तो एक ओर राष्ट्रीय दिनदर्शिका की वैज्ञानिकता को समझते हुए डॉ. साहा समिति ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से इस कैलेंडर को विश्व स्तर पर फैलाने की इच्छा देश के सम्मुख व्यक्त की थी और कहाँ भारत में ही लोगों को इसके विषय में बताना पड़ रहा है। अत: सौर दिनदर्शिका तभी सार्थक होगी जब सारे भारतीय इसे अपनाने का निर्णय लें।
✍🏻साभार: भारतीय धरोहर पत्रिका

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