जम्मू कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला परिवार आजकल पंथ निरपेक्षता को लेकर आग उगल रहा है। महरुम शेख़ अब्दुल्ला के सुपुत्र और केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला, आगे उनके फरजन्द और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला दोनों घाटी में हकलान हो रहे हैं और लोगों को बता रहे हैं कि केन्द्र में भाजपा की सरकार आ जाने से देश में पंथ निरपेक्षता, जिसे अंग्रेज़ी में सेक्युलिरिजम कहते हैं, ख़तरे में पड़ जायेगी। अब पंथ निरपेक्षता अब्दुल्ला परिवार के लिये प्राण वायु है। जब प्राण वायु की कमी होगी तो ज़ाहिर है वह अपनी प्राण रक्षा के लिये भागेगा ही। फारुख और उमर दोनों ही उस स्थिति में पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे, ऐसा दोनों ने स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। ये दोनों शायद यह मान कर चलते हैं कि पाकिस्तान में भारत की अपेक्षा सेक्युलिरिज्म की प्राण वायु सर्वाधिक है। वैसे केवल रिकार्ड के लिये बता दिया जाये कि पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर अपने को इस्लामी गणतंत्र घोषित किया हुआ है और वहां रसूल निन्दा के लिये सज़ा-ए-मौत का प्रावधान है। कहीं ऐसा तो नहीं अब्दुल्ला परिवार इस्लामी राज्य को ही सबसे बड़ा पंथ निरपेक्ष या सेक्युलर राज्य मान रहा है? यह शक इसलिये भी गहरा होता जा रहा है क्योंकि पिछले कई दशकों से अब्दुल्ला परिवार कांग्रेस की सहायता से जम्मू कश्मीर राज्य का इस्लामीकरण करने में लगा हुआ है। फारुख अब्दुल्ला के राज्यकाल में ही कश्मीर घाटी के हिन्दुओं को आतंकवादियों की सहायता से अमानुषिक तरीक़ों से मौत के घाट उतार दिया गया और बाद में चार लाख से भी ज़्यादा हिन्दु सिक्खों को घाटी से केवल भगा ही नहीं दिया गया, बल्कि उनके मकानों पर भी बलपूर्वक क़ब्ज़ा कर लिया गया। पिछले अनेक साल से अब्दुल्ला परिवार सोनिया गान्धी के लोगों की सहायता पाकर राज्य में शासन पर क़ाबिज़ है लेकिन उसने हिन्दुओं की घाटी में वापसी की हर कोशिश को नाकाम कर दिया। फारूक अब्दुल्ला अब यह प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दु-सिक्ख घाटी छोड़कर जगमोहन के राज्यकाल में गये थे। लेकिन घाटी में आतंकवादियों के लिये अनुकूल वातावरण किसने तैयार किया था? जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने तो बहुत बाद में राजीव गान्धी को लिखा भी कि आपके मित्र फारूक अब्दुल्ला उन 70 कट्टर आतंकवादियों को जेल से छोड़ रहे थे जो आधुनिकता हथियारों के प्रयोग में भलीभाति प्रशिक्षित थे। इन आतंकवादियों के पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर में उच्च स्तर पर सम्बंध थे। वे पाकिस्तान में आने जाने के सभी गुप्त रास्तों से पूरी तरह परिचित थे। इन आतंकवादियों की नजऱबन्दी को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय सलाहकार समिति ने स्वीकृति दी थी। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि फारुख अब्दुल्ला इन दुर्दान्त आतंकवादियों की रिहाई के लिये क्यों लालायित थे। क्या उन्हें मालूम नहीं था कि यही लोग पूरी घाटी को हिन्दू सिक्खविहीन कर उसे शुद्ध इस्लामी घाटी बनाना चाहते हैं। क्या अब्दुल्ला परिवार की दृष्टि में यही पंथ निरपेक्षता है? यदि अब्दुल्ला परिवार की पंथ निरपेक्षत या सेक्युलिरिज्म में सचमुच आस्था होती तो वह चाहे दिल से न सही केवल दिखावे के लिये ही राज्य के संविधान को पंथ निरपेक्ष घोषित करता। 1975 में भारतीय संसद ने संघीय संविधान को संशोधित करते हुये उसे पंथ निरपेक्ष या सेक्युलर घोषित किया। तब सभी को लग रहा था कि अब्दुल्ला परिवार के उस समय के मुखिया महरुम जनाब शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला साहिब राज्य के संविधान में भी सेक्युलर शब्द जोड़ेंगे। लेकिन उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी। 1977 में जनता पार्टी के राज में जम्मू कश्मीर में पहली बार निष्पक्ष चुनाव हुये और उसमें राज्य के सभी मज़हबों के लोगों मसलन हिन्दुओं, सिक्खों, शियाओं, गुज्जरों और मुसलमानों ने शेख़ साहिब का समर्थन किया। 1952 में अपने सभी विरोधी उम्मीदवारों के नामांकन पत्र रद्द करवाकर विधान सभा की सभी 75 सीटें निर्विरोध जीत लेने वाले शेख़ अब्दुल्ला के जीवन का यह पहला असली चुनाव था।
उनमें विश्वास दर्शाते हुये राज्य के लोगों ने उन्हें राज्य विधान सभा में बहुमत दे दिया। इस बार सभी की यही आशा थी कि शेख़ साहिब संविधान में सेक्युलर शब्द अवश्य जोड़ेंगे, क्योंकि शेख़ साहिब आम तौर पर दिल्ली जाकर पंथ निरपेक्षता का कविता पाठ किया करते थे। जम्मू कश्मीर राज्य में यह और भी जरुरी था क्योंकि यह राज्य मुस्लिम बहुल राज्य ही नहीं है, बल्कि घाटी में तो हिन्दु-सिक्ख, गुज्जर और शिया समाज की सात आठ लाख की संख्या निकाल दी जाये तो शेष मुसलमान ही बचते हैं। इन अल्पसंख्यकों की रक्षा के कोई प्रावधान राज्य के संविधान में नहीं है। यदि सिद्धान्त रुप से यह स्वीकार कर लिया जाये की राज्य का संविधान सेक्युलर है तो अल्पसंख्यकों को उनके अधिकार देने का मामला और भी सुरक्षित हो जायेगा। लेकिन शेख़ अब्दुल्ला अड़ गये कि जम्मू कश्मीर के संविधान को पंथ निरपेक्ष किसी तरह भी नहीं बनने देंगे। अलबत्ता उन्होंने एक काम अवश्य किया। वह था तेज़ी से राज्य, ख़ास कर कश्मीर घाटी का इस्लामीकरण। गांवों के नाम बदले जाने लगे। राज्य में बोली जाने बाली जनजाति भाषाओं को सरकारी तौर पर अरबी लिपि में लिखा जाने लगा।यहां तक कि कश्मीरी भाषा को भी केवल अरबी लिपि में लिखने को प्रोत्साहित किया जाने लगा। अपने मरने से पहले राज्य के इस्लामीकरण का दायित्व वे अपने बेटे फारुख अब्दुल्ला को सौंप गये और शायद सख़्ती से हिदायत भी कर गये कि प्रान्त किसी तरह भी पंथ निरपेक्ष नहीं बनना चाहिये। संविधान में तो यह किसी भी हालत में नहीं लिखा जाना चाहिये।अब्बूजान के सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाने के बाद 1982 में उनके फरजन्द फारुख अब्दुल्ला राज्य के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद वे 1983 में और तीसरी बार 1996 में राज्य के मुख्यमंत्री बने। प्रदेश की पंथनिरपेक्ष ताक़तों ने उनसे बहुत अनुरोध किया कि राज्य में पंथ निरपेक्ष संविधान लागू करना समय की माँग है और इस्लाम को भी समय के अनुसार चलना चाहिये। इसलिये राज्य के संविधान को संशोधित कर उसे स्पष्ट रुप से सेक्युलर घोषित करना चाहिये। आज सेक्युलिरिजम को लेकर मगरमच्छ के आँसू बहाने वाले इन्हीं फारुख अब्दुल्ला ने डट कर इसका विरोध ही नहीं किया बल्कि यह भी कहा कि ये ताक़तें राज्य का जनसांख्यिकी अनुपात बदलना चाहतीं हैं। अपने आप को पंथ निरपेक्षता का शैदायी कहने वाले यही फारुख अब्दुल्ला 1947 में पाकिस्तान से उजड़ कर आये लाखों हिन्दुओं-सिक्खों को विधान सभा में मतदान का अधिकार देने के लिये केवल इस लिये विरोध करते रहे कि इससे हिन्दु-मतदाताओं की संख्या राज्य में बढ़ जायेगी। जिन हिन्दु-सिक्ख लड़कियों का विवाह राज्य के बाहर हो जाता था, उनको मतदान के अधिकार से तो बंचित कर ही दिया जाता था, उनको उनकी सम्पत्ति से भी बेदख़ल कर दिया जाता था। यह सारे तौर तरीक़े खुले आम इसलिये इस्तेमाल किये जाते थे ताकि राज्य में हिन्दु-सिक्खों की रही सही जनसंख्या भी समाप्त हो जाये। इसके विपरीत अब्दुल्ला परिवार ने पाकिस्तान बनने पर वहां चले गये मुसलमानों को राज्य में वापिस लाकर उन्हें पुन: राज्य में बसाने के क़ानून बनाने शुरू कर दिये।2009 में अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी ने राज्य की सत्ता संभाली। फारुख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला राज्य के मुख्यमंत्री बने। लेकिन बड़े मियाँ तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्लाह। वे तो यदि कोई राज्य के संविधान में सेक्युलर या पंथनिरपेक्ष लिखने की कोई बात भी करता था तो भड़क उठते। अब बाप बेटे ने एक और कहानी शुरू कर दी। वे यह बताने लगे की हम तो चाहते हैं कि कश्मीर में हिन्दु वापस लौट आयें, लेकिन वे आना ही नहीं चाहते। इसके साथ वे एक और जुमला भी जोडऩे लगे कि इन हिन्दुओं को घाटी से गये अब बीस साल से भी ज़्यादा समय हो गया है। इनके बच्चे कश्मीर को भूल गये हैं। वे अब अपने मां बाप को भी घाटी में आने नहीं देंगे। बाप बेटे के इस प्रवचन के पीछे कहीं गहरी छिपी हुई चेतावनी ही थी कि अब घाटी में आने की कोशिश मत करना। सरकार ने इतना जरुर किया कि सरकारी नौकरियों में हिन्दु सिक्खों को लेना इतना कम कर दिया कि उनके पास दूसरे राज्यों में जाने के सिवा कोई चारा न रहे। अब्दुल्ला परिवार शायद जम्मू कश्मीर को शुद्ध रूप से इस्लामी स्टेट बना देने को ही सेक्युलुरिज्म की जीत मानता है। कांग्रेस अब तक अपने तुष्टिकरण के सिद्धान्त के चलते इस अभियान में अब्दुल्ला परिवार का साथ देती रही है, इसलिये दोनों का गठबन्धन बनता रहा है।
इतना ही नहीं राज्य की विधान सभा के अन्दर भी यदि किसी ने राज्य के संविधान में सेक्युलर शब्द जोडऩे का प्रयास किया तो अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उसका डटकर विरोध किया। ऐसा एक प्रयास 2006 में हुआ और उसके बाद 2011 में हुआ। हिमाक़त की हद तो यह है कि 2011 के प्रस्ताव को तो चर्चा के लिये भी स्वीकार नहीं किया गया जबकि विधान सभा और सचिवालय दोनों की बागडोर छोटे अब्दुल्ला यानि उमर के पास ही थी। अब क्योंकि देश ने करवट बदली है। जम्मू कश्मीर में भी हिन्दु-सिक्ख, गुज्जर, बकरवाल, बल्ती, लद्दाखी बौद्ध और शिया समाज अपने अधिकारों की मांग करने लगा है, इसलिये अब्दुल्ला परिवार बौखला गया लगता है। ताज्जुब है कि जो अब्दुल्ला परिवार राज्य के संविधान में सेक्युलुरिजम का डटकर विरोध करता रहा वही अब केन्द्र सत्ता परिवर्तन की संभावना देख कर ही सेक्युलिरिजम के नाम पर रुदाली का दृश्य उपस्थित कर रहा है।