कितने असली नकली हो, जानै जाननहार

गतांक से आगे….

पश्चिम दिशा में अस्तांचल में अवसान के समय भी अपने यश की अरूणाई को, तेजस्विता को एक पल के लिए भी छोड़ता नही है। भाव यह है कि सूर्य अपने यश और तेज के साथ उत्पन्न होता है और यश और तेज के साथ ही शाम को विदा होता है।

मत भूलै हरिनाम को,

रोज घटै हैं सांस।

एक दिन तेरे कण्ठ में,

फंसै मौत की फांस ।। 615 ।।

कितने असली नकली हो,

जानै जाननहार।

भाव तलक भी जानता,

सबका प्राणाधार ।। 616 ।।

भाव यह है कि इस संसार में ऐसे लोग भी होते हैं जो ऊपर से देखने में बड़े धार्मिक अथवा आध्यात्मिक और पुण्यात्मा बनने का ढोंग रचते हैं, किंतु ऐसे लोग परमपिता परमात्मा की दिव्य दृष्टिï से किसी भी सूरत में बच नही सकते। तुम ऊपर से कैसे हो? अंदर से कैसे हो? तुम कितने असली हो? कितने नकली हो? वह सर्वज्ञ सब कुछ जानता है। यहां तक कि आपका चिंतन क्या है? कर्म के पीछे आपका भाव क्या है? जिसके आधार पर आपका कमीशय (प्रारब्ध) बनता है। वह प्राण प्रदाता ‘ओ३म्’ इतनी  सूक्ष्मता से सब कुछ जानता है। इसीलिए भक्ति मार्ग कोई खाला जी का घर नही है।

मन बुद्घि अर्पित करै,

हृदय में सदभाव।

ऐसे मय्याशक्त की,

पार करै हरि नाव ।। 617 ।।

अर्थात जिसने अपने मन और बुद्घि भगवान को अर्पित कर दिये हैं, यानि कि मन और बुद्घि को सत्संकल्प सत्कर्म और शिव कल्याण में लगा दिया है, जो मय्याशक्त है अर्थात जिनका मन भगवान में आसक्त हो गया है। भाव यह है कि जिनका मन अधिक स्नेह अथवा प्रेम के कारण परमात्मा से चिपक गया है, स्वाभाविक रूप से परमात्मा में रम गया है।

ऐसे लोगों को परमपिता परमात्मा अपनी कृपा का पात्र बनाते हैं और उनकी जीवन नैया को पार लगाते हैं, सत्संकल्प को सर्वदा पूरा करते हैं।

रोड़ा हो कोई राह में,

ठोकर से दो हटाय।

भारी पाथर राह में,

तो स्वयं बच जाए ।। 618 ।।

 

अर्थात नीतिज्ञों की राय यह है कि यदि शत्रु अपने से कम शक्तिशाली हो तो उसे दृढ़ता के साथ अपने मार्ग से सदा के लिए हटा दीजिए और यदि शत्रु अपने से अधिक शक्तिशाली है तो बुद्घिमानी इसी में है कि उससे बचाव किया जाए।

ज्ञान और प्रेम परमात्मा की अनुपम देन हैं।

ज्ञान हमें सर्वदा गतिशील रखता है। ज्ञान के प्रकाश में ही हमारा अभ्युदय (बहुमुखी विकास) संभव है। ज्ञान प्रभु प्रदत्त वह शक्ति है जो हमें हमारे आत्मा उदगम तथा गंतव्य-मोक्ष धाम अथवा उस आनंद लोक का बोध कराती है। इतना ही नही ज्ञान के द्वारा तत्ववेत्ता ऋषियों ने बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने निसर्ग के नियमों की खोज की, प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर नये-नये आविष्कार कर बहुआयामी विकास को उत्कर्ष तक पहुंचाया है।

जबकि प्रेम हमें प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशीलता रखता है, एकता के सूत्र में पिरोता है, परमात्मा के दिव्य गुणों को परिलक्षित करता है तथा पारस्परिक संबंधों में सद्भाव की सृष्टिï करता है।

क्रमश:

Comment: