स्वामी श्रद्धानन्द जी हिंदू धर्म की कुरुतियों को दूर कर रहे थे, सामाजिक नवजागरण फैला रहे थे और “शुद्धि आंदोलन” चला रहे थे। स्वामी जी ने उत्तर प्रदेश में 18 हज़ार मुस्लिमों की हिंदू धर्म में वापसी करवाई। पर कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों को लगा कि तब्लीग में तो धर्मांतरण एक मज़हबी कर्तव्य है, जायज़ है, लेकिन एक हिंदू संत ऐसा कैसे कर सकता है ? तब डा० राजेंद्र प्रसाद ने अपनी किताब “इंडिया डिवाइडेट” में स्वामी के पक्ष में लिखा कि “यदि मुसलमान अपने धर्म का प्रचार और प्रसार कर सकते हैं तो उन्हे कोई अधिकार नहीं है कि वो स्वामी श्रद्धानंद के गैर हिंदुओ को हिंदू बनाने के आंदोलन का विरोध करें”। लेकिन कुछ कट्टरपंथियों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ उनकी नफरत इतनी बढ़ चुकी थी कि वो स्वामी जी की जान के प्यासे हो गए..
और एक दिन 23 दिसंबर 1926 दिल्ली के चांदनी चौक में दोपहर के समय स्वामी श्रद्धानंद अपने घर में आराम कर रहे थे। वो बेहद बीमार थे। तब वहां पहुंचा एक व्यक्ति। नाम था अब्दुल रशीद। उसने स्वामी जी से मिलने का समय मांगा। स्वामी जी ने समय दे दिया। वो उनके पास पहुंचा उन्हें प्रणाम किया और देसी कट्टे से 4 गोलियां स्वामी जी के शरीर में आर-पार कर दीं। स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने वहीं दम तोड़ दिया। इस तरह भारत के पहले आतंकवादी अब्दुल रशीद ने इस कांड को अंजाम दिया ।
लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात थी महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया… स्वामी जी की हत्या के दो दिन बाद गांधी जी ने गुवाहाटी में कांग्रेस के अधिवेशन के शोक प्रस्ताव में कहा कि – “मैं अब्दुल रशीद को अपना भाई मानता हूं… मैं उसे स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूं… वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के खिलाफ घृणा की भावना पैदा की… हमें एक व्यक्ति के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए… मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूं”
इस प्रकार हमारे देश के राष्ट्रपिता ने एक हत्यारे की खुलेआम वकालत की।
मैं कभी कभी सोचता हूँ कि शायद यहीं से ‘तुष्टीकरण’, ‘सहिष्णुता’, ‘चापलूसी’, ‘चाटुकारिता’ आदि शब्दों का प्रयोग प्रारंभ हुआ होगा। एक बात और स्वामी श्रद्धानंद जी का हत्यारा अकेला अब्दुल रशीद था या उसको बचाने वाला महात्मा गांधी भी ???
सन्दीप आर्य
मंत्री आर्य समाज सांताक्रुज