Categories
प्रमुख समाचार/संपादकीय

आज का चिंतन-25/04/2014

सृजन में सुगंध चाहें तो
लेन-देन की बुद्धि न रखें

– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

वह हर सृजन सुगंध देने वाला होता है जो पूर्वाग्रहाें, दुराग्रहों,
पक्षपात, स्वार्थ और अपेक्षाओं से मुक्त होता है क्योंकि ऎसा सृजन
प्रकृति और ईश्वर प्रदत्त होता है और अन्ततः ईश्वर को ही समर्पित होता
है।
आजकल दो प्रकार का सृजन हमारे सामने है। एक वो लेखन है जिसमें इंसान
मुंशी की तरह काम करता है। जो हमसे जैसा लिखवाना चाहता है वैसा रुपए-पैसे
देकर लिखवा लेता है या कि हम स्वयं रुपए-पैसे मिलने के लोभ में सामने
वाले की इच्छा के अनुसार अपनी कलम को हल की तरह हाँक दिया करते हैं।
आजकल लेखक और साहित्यकार या चिंतक कहे जाने वाले खूब सारे बड़े-बड़े नामी
गिरामी लोग हैं जो लिखने के लिए लिख डालते हैं। इनमें कोई छपने और
प्रतिष्ठा पाने के लिए लिख डालता है, कोई बाजार की मांग को ध्यान में
रखकर अपने सारे लाभ-हानि के गणित को देखकर लिख डालता है, कोई किसी बड़े पद
या कद का मद पाने के मोह में लिखता है और खूब सारे ऎसे हैं जिनकी कमजोर
नस को दबाकर उनसे किसी भी प्रकार का लिखवाया जा सकता है।
कुछ लोगों का अपना कोई सिद्धान्त नहीं होता। ये औरों के सिद्धान्तों को
अपना मुनाफा देखकर अपना लिया करते हैं और बिना टिकाऊ बने रहते हुए जिंदगी
भर बिकाऊ बनकर हर प्रकार की मनचाही कलम किसी के भी हक में चला सकते हैं।
जिनको सीधे रुपया-पैसा पाने में कोई लाज-शरम होती है उनके लिए मिठाई और
महंगे उपहारों का विधान हमारे यहाँ रहा है। कई सारे ऎसे होते हैं जो
भविष्य के लाभों को देखकर किसी के लिए कुछ भी लिख डालने को स्वतंत्र हैं
तो कई ऎसे हैं जिनके लिए उन लोगों के बारे में लिखना विवशता हुआ करती है
जो वर्तमान के रौशनदान हैं।
लेखकों की जात-जात की खूब सारी मुंशीछाप किस्मों के बीच ऎसे लोग भी हैं
जिनके लिए न अपना कोई धरम होता है, न लेखन का धरम। जहाँ मुँह मारने को
कुछ मिल जाए, उस पर लिख डालने में भी गर्व का अहसास करते हैं।
हर क्षेत्र में कुछ लोग ऎसे होते ही हैं जिनके छोटे-मोटे स्वार्थ पूरे कर
कोई भी कुछ भी लिखवा सकता है। कुछ की तासीर ही ऎसी हैं थूहरों और
कैक्टसों से लेकर बरगद तक की छाया पाने या फिर बड़े-बड़े हाथियों के साथ
रहने और इनसे संबंध दर्शाने के लिए प्रशस्तिगान करते रहते हैं।
कुल मिलाकर आजकल सृजन भी एक ऎसा धंधा बन गया है जिसमें सभी किस्मों के
लोग भी हैं और लाभ-हानि का गणित भी। अपार संभावनाएं भी हैं और
यश-प्रतिष्ठा पाने के रास्ते भी। सृजन भी अब बिजनेस की श्रेणी में शुमार
हो चला है जहाँ अब सरस्वती की बजाय लक्ष्मी की पूजा होने लगी है और साथ
में कुबेर की भी।
दूसरी ओर ऎसे भी सर्जक रहे हैं, और अब भी विद्यमान हैं जो वही सब लिखते
हैं जो अन्दर से आता है। ऎसे सर्जक वास्तव में सरस्वती उपासक होते हैं जो
भीतरी संवेदनाओं और यथार्थ के धरातल पर सृजन करते हैं। ऎसे लोगों का सृजन
किसी व्यक्ति या दानदाता अथवा अपनी स्वार्थपूर्ति करने वालों लोगों या
समूहों को सामने रखकर कभी नहीं होता।
ऎसे लोग न किसी के कहने पर लिख सकते हैं न किसी के बारे में झूठा लिख
पाने के लिए उनकी कलम चल पाती है। ऎसे लोग जो कुछ लिखते हैं वह अपने
आपमें दिव्यता और सुगंध लिए हुए होता है और इनके सृजन की सुगंध अपने आप
मीलोें तक ऎसी फैलने लगती है कि इसके लिए न दिशाओं की कोई सीमाएं होती
हैं न क्षेत्रों और देशों की।
जिस सृजन की पृष्ठभूमि या प्रेरणा में किसी भी अंश में कोई व्यापार या
स्वार्थ आ जाता है वह सृजन न होकर मंंुशी का लेखन हो जाता है जिसमें न
गंध है, न दिव्यता। ऎसा लेखन ज्यादा प्रभाव भी नहीं छोड़ पाता।  सृजन का
आनंद और प्रभाव तभी है जब हमारे मन में सृजन से पहले और बाद में किसी भी
प्रकार का स्वार्थ नहीं उपजे।
सृजन कोई सा हो, सरस्वती हम पर तभी तक प्रसन्न रह सकती है जबकि हम लेखन
को कमाई या प्रतिष्ठा पाने का जरिया न बनाएं बल्कि अपने आपको दिव्य
विचारों का आवागमन तथा परिष्करण केन्द्र मानें और समाज के सामने ऎसा कुछ
परोसें जो कि सत्यं शिवं सुन्दरं की अभिव्यक्ति को धार देने वाला हो।
साहित्य सृजन की कोई सी विधा हो, जब वह व्यापार का स्वरूप ग्रहण कर लेती
है तब सरस्वती ऎसे सर्जक की वाणी और मस्तिष्क से पलायन कर जाती है और
उसका स्थान ले लेती है अलक्ष्मी। ऎसे में वह इंसान सर्जक न होकर शब्दों
का व्यापारी बन जाता है। व्यापारी भी ऎसा कि जो झूठों, फरेबियों और
मक्कारों से लेकर अपराधियों तक के लिए प्रशस्तिगान कर सकता है, उनके लिए
कुछ भी बोल सकता है, लिख सकता है । फिर एक बार जब इंसान अपनी इंसानियत
खोकर लाभ-हानि के चक्कर में  गणिकावृत्ति में फंस जाता है तब वह
मुद्राओं, उपहारों और पदों के लिए ऎसा घनचक्कर बन जाता है कि अपने आपको
भी भुला कर औरों के बाड़ों में पलने वाले पशुओं की तरह जीवन जीने लगता है।
—000—

Comment:Cancel reply

Exit mobile version