इतिहास पर गांधीवाद की छाया, अध्याय – 20 , राष्ट्रपिता गांधी और राष्ट्रपति भवन का कड़वा सच

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कांग्रेस के विषय में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पार्टी ने प्रारम्भ से ही अंग्रेजों की कार्यशैली को अपने लिए आदर्श के रूप में स्वीकार किया था । स्वाधीन भारत में जब सत्ता कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के हाथों में रही तो इन्होंने अंग्रेजों की कार्यशैली को अपनाकर ही शासन करना आरम्भ किया। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में भारत में ऐसे अनेकों शासकीय भवनों का निर्माण कराया , जिनके लिए प्राप्त की गई भूमि को उन्होंने या तो बिना मुआवजा दिए हड़प लिया था या नाममात्र का मुआवजा देकर उसके वास्तविक स्वामियों अर्थात मूल काश्तकारों को शान्त कर दिया था।
देश के अधिकांश लोग आज यह नहीं जानते होंगे कि हमारे देश का राष्ट्रपति जिस स्थान से बैठकर संवैधानिक रूप से देश का शासन चलाता है वह ऐसा स्थान है जिसका मुआवजा आज तक उसके वास्तविक स्वामियों अर्थात किसानों को नहीं दिया गया है । इस स्थान को इसके मूल स्वामियों से अंग्रेजों ने बलात छीनकर यहाँ पर सन 1912 से 1920 के बीच ‘वायसराय हाउस’ बनाया था। ‘नॉर्थ ब्लॉक’ व ‘साउथ ब्लॉक’ और देश के शासन के कई प्रतिष्ठान जहाँ पर आज स्थित हैं , यह सब भी तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हमारे देश के किसानों से जबरन छीन कर यहाँ पर राजकीय भवनों का निर्माण किया था।
यह वह काल था जब दिल्ली अपने आपमें कोई स्वतंत्र राज्य नहीं होता था अपितु आज के हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) प्रान्त के सोनीपत जिले की एक उप तहसील हुआ करती थी। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि स्वतन्त्र भारत की सरकारों ने भी आज तक यह नहीं सोचा कि जबरदस्ती कब्जाए गये इस विशाल भूभाग का मुआवजा लोगों को दे दिया जाए ? जिनकी जमीन का मुआवजा उस समय उनके द्वारा न लेने की स्थिति में सरकारी कोष में वापस जमा कर दिया गया था।
सन 2012 में जब दिल्ली को देश की राजधानी बने हुए 100 वर्ष पूर्ण हुए तो मेरे पास हरियाणा के सोनीपत जिले के मालचा गांव से एक फोन आया । जिसमें एक दु:खी व्यक्ति मेरे से कह रहा था कि आप एक बार हमारे गाँव आएं। हम आपको कुछ अपने दु:ख दर्द को बताना चाहते हैं। उस व्यक्ति की आवाज में एक दर्द झलक रहा था जिसे वह बताते हुए भावुक भी हो गया था। उसका कहना था कि आज जब देश स्वतंत्र हो गया है और दिल्ली को देश की राजधानी बने हुए भी 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं तो हमारे साथ किए गए ब्रिटिश सरकार के अन्याय को स्वाधीन भारत की सरकार धोने का प्रयास क्यों नहीं कर रही है ?
उस व्यक्ति के विशेष आग्रह पर मैं अपने कुछ साथियों के साथ उसके गाँव मालचा पहुंचा । तब उन लोगों ने जो कुछ बताया , वह बड़ा दुखद था । उस समय जब देश का शासन दिल्ली के राजधानी के रूप में 100 वर्ष पूरे होने पर उत्सव मना रहा था तो वे लोग इस बात पर दु:ख मना रहे थे कि उन्हें 100 वर्ष से किसी ने भी यह नहीं पूछा कि दिल्ली को बसाने में उनके द्वारा दी गई जमीन का मुआवजा उन्हें दे दिया जाए ?
हुआ यह था कि ये लोग मालचा नाम के गाँव के निवासी थे । आज भी राष्ट्रपति भवन के पास ‘मालचा हाउस’ नाम का एक स्थान है । यह वही स्थान है जहाँ पर यह गाँव दिल्ली में मूल रूप में हुआ करता था । यद्यपि अब इस गांव में कोई ऐसा बुजुर्ग तो नहीं था जो 1912 की उस घटना का साक्षी रहा हो ,पर ऐसे कई बुजुर्ग अवश्य थे जो उस समय के साक्षी रहे अपने माता-पिता या दादा से उस समय की पीड़ादायक घटना को सुनते रहे थे। मालचा गाँव के लोगों ने हमें बताया कि अंग्रेजों ने गाँव को जबरदस्ती यहाँ से उठाकर हटाने का प्रयास किया था। उस समय इस गाँव में मात्र 85 परिवार रहते थे। जिन्होंने वहाँ से किसी अन्य स्थान पर जाने से मना कर दिया था । तब अंग्रेजों ने रातों-रात वहाँ पर तोपें तान दीं और गाँव वालों से कहा कि या तो भाग जाओ , नहीं तो सारे के सारे तोप से उड़ा दिए जाओगे ।
डर के मारे गाँव के लोग अपने गाँव को खाली कर वहां से भाग गए और उन्होंने दिल्ली की सीमाओं से दूर जाकर सोनीपत में मालचा के नाम से ही एक नया गाँव बसा लिया । लेकिन इसके उपरान्त भी उन लोगों के मन मस्तिष्क में अपने मूल गाँव की स्मृतियां शेष बनी रहीं और इतना ही नहीं वह भयानक मंजर भी उनकी नजरों में घूमता रहा जब अंग्रेजों ने उन्हें अपने मूल गांव से भागने के लिए विवश किया था। लोगों का कहना था कि हमें हमारी जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया और जहाँ आज राष्ट्रपति भवन है , साथ ही ‘नॉर्थ ब्लॉक’ , ‘साउथ ब्लॉक’ आदि वह स्थान हैं जहाँ से देश का शासन चलता है , वे सारे के सारे हमारे गाँव की भूमि में ही बने हुए हैं । आज संभवतः कोई नहीं जानता कि बुद्धा नाम का उनका एक पूर्वज था , उसी के नाम से बुद्धा गार्डन दिल्ली में है ।
उनका यह भी कहना था कि 1947 के बाद से लेकर आज तक वह लगभग हर सरकार के प्रधानमंत्री से मिले हैं , परन्तु किसी ने भी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया । मैंने उनकी जमीन के सरकारी अभिलेख देखे तो सचमुच उनके गाँव का मुआवजे का सारा पैसा सन 1913 की जनवरी में सरकारी कोष में उल्टा जमा कर दिया गया था । क्योंकि गाँव के लोगों ने मुआवजा लेने से मना कर दिया था।
और हाँ, एक बात और याद आई । नेहरू जी अपनी अचकन पर जिस गुलाब के फूल को लगाया करते थे उनके लिए गुलाब का वह फूल भी उस समय प्रतिदिन इसी मालचा गाँव से ही आया करता था । नेहरू जी ने यहाँ के गुलाब को तो पसन्द किया पर यहाँ के लोगों के चेहरे भी गुलाबी हो जाएं – इस ओर ध्यान नहीं दिया।


मैंने इस सारे समाचार को अपने ‘उगता भारत ‘ समाचार पत्र में प्रमुखता से प्रकाशित किया था । परन्तु सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी । व्यवस्था गूंगी बहरी बनी रही। अब आप ही बताएं कि जिस देश का राष्ट्रपति जबरदस्ती कब्जा की गई भूमि में बैठा हो, उसमें भूमाफिया और गैर कानूनी ढंग से काम करने वाले लोगों का वर्चस्व न होगा तो और कहाँ होगा ? क्या आपकी दृष्टि में यह उचित नहीं होगा कि आज की केंद्र सरकार मालचा गाँव के लोगों को ससम्मान बुलाए और इस गाँव के लोगों का देश के शासन पर जो ऋण है, उसे चुकता करे ।
जब तक मालचा गाँव के लोगों को उनका मुआवजा नहीं मिलता है तब तक समझ लेना चाहिए कि इस देश में किसी भी व्यक्ति को न्याय नहीं मिल पाएगा। क्योंकि शासन का संचालन जहाँ से होता है उस भूमि का पवित्र होना बहुत आवश्यक है । यदि राजा के राजभवन पर ही लोगों की अमंगलकारी कामनाओं का श्राप पड़ा हो तो देश का शासन कभी भी मंगलकारी नहीं हो सकता ?
हम इस घटना को कुछ दूसरे दृष्टिकोण से भी देखते हैं। हमारा मानना है कि स्वाधीन भारत के शासन पर पहला अधिकार उन क्रान्तिकारियों का था, जिन्होंने अपने बलिदानों से स्वाधीनता के आन्दोलन को सींचा था और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की थी। पर जब समय सत्ता की सुन्दरी के वरण करने का आया तो कांग्रेस उसमें बाजी मार गई अर्थात वधू पर अधिकार किसी और का था और वर कोई और बन गया ? जब राजा स्वयं अन्यायी और बेईमान हो तो उससे न्याय और ईमानदारी की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कांग्रेस को अपने आकाओं अर्थात अंग्रेजों द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य उचित ही जान पड़ता था , इसलिए उसकी दृष्टि में मालचा गाँव के लोगों के साथ भी जो कुछ किया गया, वह भी उचित ही था। हमें ध्यान रखना चाहिए षडयन्त्रों से प्राप्त की गई सत्ता षड़यंत्रों में ही उलझ कर रह जाती है और वह किसी प्रकार के षड़यंत्र या बेईमानी या अन्याय का उचित समाधान नहीं कर पाती है और ना ही लोगों को न्याय दे पाती है। हमारे क्रांतिकारियों और ‘हिंदी , हिंदू ,हिंदुस्तान’ के प्रति किए गए अंग्रेजों के प्रत्येक षड्यंत्र में ‘राष्ट्रपिता’ गांधी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित या सहमत रहे, यदि गांधीजी को मालचा गाँव के लोगों की दृष्टि से देखा जाए तो क्या उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहलाने का अधिकार है ? क्या यह भी एक प्रकार की हिंसा नहीं है कि गांधीजी के गांधीवादी लोग सत्ता में रहकर मालचा गांव के लोगों का मानसिक और आर्थिक शोषण करते रहे ? यदि किसी भी कारण से इसे उचित मान लिया जाता है तो यह भी मान लेना चाहिए कि गांधीवाद नाम की ऐसी कोई चीज है ही नहीं, जो लोगों को सत्य , अहिंसा और प्रेम का वास्तविक पाठ पढ़ा सके और उनके मध्य बन्धुता को बढ़ावा देने वाली न्यायपूर्ण शासन प्रणाली का विकास कर सके।
समझ लो कि हम गांधीवाद के नाम पर मात्र एक काल्पनिक विचार को या किसी भ्रांति को ही ढो रहे हैं। गांधीवादी के इस काल्पनिक बोझ को जितनी शीघ्रता से हम अपने सिर से उतार कर फेंक देंगे उतनी ही शीघ्रता से हम आराम का अनुभव कर सकेंगे और देश को वास्तविक राजपथ के मार्ग पर आगे बढ़ाने में सफल भी हो सकेंगे।

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

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