राजेंद्र सिंह
भारतीय रसायन शास्त्रा का इतिहास लाखों वर्ष पुराना है। भारतीय रसायन शास्त्रा के अनेक विवरण भगवान शिव से जुड़े हुए हैं। शिव कोई आज के काल के हैं नहीं। इसी प्रकार यदि हम रामायण काल को देखें तो वाल्मिकी के शिष्य थे भारद्वाज। उन्होंने यंत्रासर्वस्व नामक ग्रंथ लिखा था। इसमें एक प्रकरण था वैमानिकी। वैमानिकी प्रकरण आज भी मिलता है। इस पर लगभग 400 वर्ष पहले वृत्ति लिखी गई थी। वैमानिकी में सोलह प्रकार के लोहों यानी कि धातुओं का वर्णन मिलता है। यहां लोहे का अभिप्राय धातु से है।
अक्सर यह कहा जाता है कि मनुष्य को पहले तांबे का पता चला बाद में लोहे का। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार एक हजार ईसा पूर्व से पहले मनुष्यों को लोहे का पता नहीं था। जबकि पत्थरों की मूर्तियां कई-कई हजार वर्ष पुरानी हैं। दक्षिण भारत में कई मंदिर हैं जो पूरी पहाड़ी को काट कर बनाए गए हैं। प्रश्न उठता है कि पत्थरों को कैसे तराशा गया होगा? कोई नर्म धातु तो उसे तराश नहीं सकती। सख्त धातु तो केवल लोहा या स्टील ही है। इसकी ही छैनी बनती है जिससे पत्थर तराशे जाते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि लोहे की जानकारी मनुष्यों को काफी पहले से है।
महाभारत में अणुगीता में एक दृष्टांत दिया गया है कि जिस प्रकार पिघला हुआ लोहा सांचे में डाले जाने पर सांचे के आकार को ग्रहण कर लेता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा जिस योनी में जाती है, वैसी ही हो जाती है। इससे पता चलता है कि महाभारत के काल में लोहा गलाया जाता था और सांचे बनाए जाते थे। इसकी अच्छी तकनीक हमारे यहां थी। सिंधु घाटी सभ्यता में बड़े-बड़े चौरस पत्थर पाए गए हैं। चट्टानें तो चौरस होती नहीं हैं। फिर उन्हें चौरस आकार में कैसे काटा गया होगा? साफ है कि लोहे की जानकारी लोगों के पास थी ही।
आज के ब्लास्ट फरनेस में एक किलो लोहा ढालने के लिए एक किलो पत्थर का कोयला लगता है जबकि भारतीय लौहकर्म इतना विकसित था कि वह केवल 450-500 ग्राम कोयले से एक किलो लोहा ढाला जा सकता है। इसका मतलब है कि प्रति किलो न्यूनतम 500 ग्राम कोयले की बचत हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर यह एक बहुत बड़ी बचत हो सकती है। इसके अलावा इस फरनेस को चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है जबकि भारतीय तरीके में बिजली की आवश्यकता ही नहीं होती।
रसायन शास्त्रा पर बड़ी संख्या में साहित्य भी अपने देश में रचा गया था। शिव-पार्वती के संवाद के रूप में बहुत सारे तांत्रिक ग्रंथ हैं जिनमें रसायनशास्त्रा के रहस्य भरे पड़े हैं। व. कृ. मोरे ने अपनी पुस्तक सिद्ध रसायन में इसका विस्तार से वर्णन किया है। कबीर की एक वाणी में कुछ ऐसा कहा गया है कि ‘तोरस मोरस कहे कबीरा। इसका अर्थ है कि शिव जी पार्वती से कहते हैं कि तेरा रस और मेरा रस मिल कर ही सब कुछ बना है। तंत्रा ग्रंथों में शिव पारे का प्रतीक है और पार्वती गंधक का। ये दोनों ही पर्यायवाची हैं। पारे और गंधक के मेल से कजली बनती है। आयुर्वेद की जिन औषधियों में रस लिखा होगा, उनमें गंधक और पारा अवश्य होगा। भारतीय रसायन शास्त्रा के अनुसार सातों प्रमुख धातु पारे और गंधक के मेल से ही बने हैं।
भारतीय रसायन ग्रंथों में बताया गया है कि तांबे के रंग के केंचुओं, मोर के पंख और नीले थोथे में तांबा होता है जिसे अलग किया जा सकता है। इसे आप आधुनिक रसायनशास्त्रा से नहीं निकाल पाएंगे। परंतु भारतीय रसायन विद्या से निकाल सकते हैं। इसका तरीका इस प्रकार है। त्रिफले का काढ़ा बना लें और उसे लोहे के पात्रा में डाल लें। उसमें मरे हुए केंचुए या मोर पंख या नीला थोथा डाल दें। तांबा बर्तन की तलहटी में जमा हो जाएगा। इतना सरल है देसी रसायन विद्या। वह तांबा पूरी तरह शुद्ध होता है। मैंने स्वयं यह प्रयोग करके देखा है।
ऐसा ही एक और प्रयोग है। तांबे के तार कई बार काफी सख्त होते हैं और टूटने लगते हैं। ऐसे में तांबे को नरम करना होता है। इसके लिए धतुरे के तने का रस निकालिए या फिर उसका काढ़ा बना लीजिए। उसमें तांबे को गरम करके उसमें बुझाइये। तांबा सोने जितना नरम हो जाएगा। तार बनाने वाले निर्माता इस विधि से तांबे को नरम करके आसानी से इसका तार बना सकते हैं। वास्तव में भारतीय विधियां काफी सरल हैं और जैविक सामग्रियों के उपयोग पर आधारित हैं। इनके रासायनिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव नहीं होते।
भारतीय रसायनशास्त्राी सोना भी बनाते थे। मैं स्वयं ऐसे तीन व्यक्तियों को जानता हूँ जो सोना बना सकते थे। जब मैं एस्कार्ट्स में नौकरी करता था, वहां एक लाला धर्मपाल होते थे। विभाजन से पहले वे वर्तमान पाकिस्तान में एक आयुर्वेद की दुकान में काम करते थे। विभाजन के बाद दिल्ली आने पर वे एस्कार्ट्स में इलेक्ट्रोप्लेटिंग विभाग में काम करने लगे। यह वर्ष 1969 की बात थी। उन्होंने मुझे आयुर्वेद सिखाया। उनके पास लगभग 250 पुस्तकें थीं जो उन्होंने मुझे पढ़ाईं। वे सोना बनाना जानते थे। एक रसायन फार्मेसी के प्रमुख थे गणपति सिंह वर्मा, वे भी सोना बना सकते थे। तीसरे व्यक्ति का नाम मुझे स्मरण नहीं है। वर्ष 1930-32 में बिड़ला जी ने इसका एक प्रयोग करवाया था। उस समय ऋषिकेश के एक वैद्य थे जिन्होंने सोना बनाया था। उन्होंने एक तरल सा पदार्थ बना रखा था, जिसे तांबे पर डालने पर वह सोना बन जाता था। एक तोला तांबा एक तोले सोने में बदल जाता था। उन्होंने अठारह सेर तांबे का सोना बनाया जो उस समय 75 हजार रूपये का बिका था। खरीदार भी सुनार थे और उन्होंने उसकी परीक्षा की थी। इसका वर्णन नई दिल्ली के बिड़ला मंदिर में लिखा हुआ है। उसे आप आज भी जाकर पढ़ सकते हैं।
इस प्रकार हम देखें तो भारतीय रसायन शास्त्रा न केवल काफी उन्नत था बल्कि बिल्कुल हानिरहित और पर्यावरणानुकूल भी था। उसके अपने सिद्धांत थे, अपनी शब्दावली भी थी। कई विद्वानों ने उन्हें आज की शब्दावली से मिलाने का प्रयास किया है। यदि भारतीय रसायन शास्त्रा को आधुनिक रसायन की शब्दावली में लिख दिया जाए तो उसे समझना और उसका प्रयोग करना सरल हो सकता है। अन्यथा रसायन शास्त्रा के साथ संस्कृत की शिक्षा भी देनी होगी। समस्या यह है कि जो रसायन शास्त्रा के विद्वान हैं, उन्हें संस्कृत नहीं आती और जो संस्कृत के विद्वान हैं वे तकनीक से अनभिज्ञ हैं।
उदाहरण के लिए शिखिग्रीवा का सामान्य अर्थ मोर की गर्दन होता है, परंतु इसका रासायनिक अर्थ होगा मोर की गर्दन के रंग का धातु या फिर वह तापमान जिस पर आग का रंग मोर की गर्दन की रंग का हो जाए। इसी प्रकार गोजिह्वा एक औषधि है। इसका अर्थ कोई गाय की जीभ कर दे तो गड़बड़ हो जाएगी।