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इसलाम और शाकाहार

रक्त-रंजित मुद्रा की चकाचौंध-9

मुजफ्फर हुसैन

गतांक से आगे…….

बकरा ईद आते ही अहिंसा प्रेमी और जागरूक पर्यावरणवादी इस प्रयास में जुट जाते हैं कि धर्म के नाम पर कम से कम कुरबानी हो। प्रबोधन के साथ साथ इस दिशा में क्या कोई कानूनी कार्रवाई हो सकती है, इस बात पर भी विचार किया जाता है। धर्मनिरपेक्ष देश के लिए अनेक प्रकार की मर्यादाएं हैं, इसलिए समय के साथ यह मुद्दा कमजोर होता चला जाता है। इस दिशा में वर्ष भर कुछ होना चाहिए, इस पर विचार नही होता। माहौल में तनाव पैदा हो जाता है, लेकिन एक सप्ताह बाद सब भूल जाते हैं। जो जागरूकता बकरा ईद के अवसर पर जताई जाती है वह साल भर क्यों नही रहती? देश के बूचड़खाने प्रतिवर्ष लाखों पशुओं का कत्ल कर देते हैं। उनका मांस निर्यात कर वारे न्यारे हो जाते हैं। उनके विरूद्घ कोई संगठित आंदोलन क्यों नही चलता? मांस निर्यात करने वाली बड़ी कंपनियां इस प्रकार के विरोध की चिंता नही करतीं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके विरूद्घ जो आंदोलन चला रहे हैं, वे बिना दांत के चीते हैं, इसलिए घबराने की जरूरत नही है। पहली आवश्यकता तो भारत की जनता को इस व्यवसाय के संबंध में जागरूक करने की है। कितने कत्लखाने हर रोज खुल रहे हैं, उनमें कितने वैद्य हैं और कितने अवैद्य इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। इन बूचड़खानों में प्रतिदिन कितने जानवर काटे जाते हैं? काटे गये जानवरों का निर्यात किस प्रकार होता है? मांस बेचने वाली कुल कितनी बड़ी कंपनियां हैं? प्रतिवर्ष वे कितना कमाते हैं? सरकार की इस संबंध में क्या नीति है और देश के पर्यावरण तथा देश की अर्थव्यवस्था पर इसके क्या कुप्रभाव पड़ रहे हैं? देश में असंख्य मोरचे निकलते हैं और प्रदर्शन आयोजित किये जाते हैं। अन ेक मामलों में विरोधी दल संसद को ठप्प करते हैं और कई दिनों तक चलने नही देते, लेकिन आज तक मांस के निर्यात और पशुओं को निर्दयता से काटने के संबंध में ऐसा कोई आंदोलन नही चला है। गांधीवादी, धार्मिक नेता और समाज का बहुत छोटा बुजुर्ग वर्ग इस आंदोलन से जुड़ता है, लेकिन युवाओं का दूर दूर तक पता नही चलता। इसलिए भावी पीढ़ी जब तक जागरूक नही होती, लोकतांत्रिक सरकार में इसका समाधान मिलना कठिन है। भारत मे इतने राजनीतिक दल हैं, लेकिन क्या उनमें से किसी ने इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में स्थान दिया है? क्रमश:

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