संतोष पाठक
नेपाली जनता इसलिए लोकतांत्रिक प्रणाली से हताश और निराश हो गयी है
नेपाल में भी माओवादी ताकतों ने बंदूक के बल पर तो राजनीतिक दलों ने अहिंसा और जन आंदोलन के बल पर राजशाही से दशकों तक सिर्फ इसलिए संघर्ष किया कि वहां सही मायनों में लोकतंत्र की स्थापना हो लेकिन अब वहां की जनता सिर्फ 12 वर्षों में ही लोकतंत्र से ऊब गई है।
भारत के साथ सदियों पुराने ऐतिहासिक पारस्परिक सहयोग और रोटी-बेटी का संबंध रखने वाले नेपाल में हाल के दिनों में एक और आंदोलन जोर पकड़ रहा है। नेपाल का इस बार का आंदोलन दुनिया भर के देशों को चौंका रहा है। खासकर उन देशों को जहां की सरकार और जनता लोकतंत्र के लिए पूरी तरह से समर्पित है। 12वीं शताब्दी के इंग्लैंड से लेकर आधुनिक विश्व के हर देश में जितने भी आंदोलन हुए हैं, उनमें से ज्यादातर आंदोलन की लगभग एक ही मांग रही है कि उस देश विशेष में स्थापित सरकार के तौर-तरीकों को बदल कर वहां लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की जाए।
नेपाल में भी माओवादी ताकतों ने बंदूक के बल पर तो राजनीतिक दलों ने अहिंसा और जन आंदोलन के बल पर राजशाही से दशकों तक सिर्फ इसलिए संघर्ष किया कि वहां सही मायनों में लोकतंत्र की स्थापना हो लेकिन अब वहां की जनता सिर्फ 12 वर्षों में ही लोकतंत्र से ऊब गई है। केवल 12 वर्षों के लोकतांत्रिक शासन में ही वहां की जनता राजनीतिक दलों और सत्ता में बैठे नेताओं के ड्रामे से इतना त्रस्त हो गई है कि अब वहां राजशाही की वापसी के लिए आंदोलन हो रहे है। 12 वर्षों के लोकतांत्रिक ढ़ांचे में जो कुछ हुआ या जो कुछ हो रहा है, उससे त्रस्त नेपाली जनता अब 250 साल पुराने राजतंत्र की वापसी के लिए आंदोलन कर रही है। निश्चित तौर पर नेपाली सत्ता में बैठे लोग या सत्ता का सुख भोग रहे नेता इसे एक षड्यंत्र करार देंगे और बड़ी-बड़ी बात करेंगे लेकिन इससे सबसे ज्यादा निराश वो लोग होंगे जिन्होंने सही मायनों में नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष किया था। जिन लोगों ने नेपाली जनता की भलाई का सपना देखा था। जिन लोगों को यह लगता था कि जनता के द्वारा चुनी गई सरकार जनता की सरकार होगी और जनता के लिए कार्य करेगी। नेपाल की सत्ता में पिछले 12 वर्षों से बैठे लोगों ने ऐसे लोगों को घोर निराश किया है।
नेपाल में वर्तमान में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में है और प्रधानमंत्री के पद पर केपी शर्मा ओली बैठे हुए हैं। हालांकि अब उन्होंने संसद को भंग करने का प्रस्ताव कर दिया है। केपी शर्मा ओली भले ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के तौर सत्ता में बैठे हों लेकिन उनकी अपनी पार्टी में ही उनके कामकाज के तौर-तरीकों को लेकर काफी विवाद हो रहा है। नेपाल में माओवादी आंदोलन का चेहरा रहे और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड जो वर्तमान में पार्टी के को-चेयरपर्सन भी हैं, लगातार ओली के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। लेकिन ओली येन-केन-प्रकरेण अपनी सत्ता को बचाने के लिए हरसंभव उपाय करने में लगे हुए हैं। कभी वो अपनी ही पार्टी के बैठकों से भागने की कोशिश करते नजर आते हैं तो कभी नए-नए नियम और कायदे कानून के जरिए पार्टी को नए तरह से हांकने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो फिर वो राष्ट्रपति भवन का सहारा लेकर देश पर अध्यादेश के जरिए नए कानून थोपने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती है।
नेपाल के सत्ता प्रतिष्ठान में जारी ड्रामे से त्रस्त नेपाली जनता अब सड़कों पर उतर कर लोकतंत्र को खत्म करके दुनिया की आखिरी हिंदू राजशाही को वापस लाने की मांग कर रही है और यह सारा बदलाव महज 12 साल में ही हो गया है। दरअसल, नेपाल दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है जो कभी भी किसी का गुलाम नहीं रहा। हालांकि नेपाल की वर्तमान सीमा का निर्धारण उनके और ब्रिटेन के बीच 1814 से 1816 तक चली लड़ाई के बाद हुई संधि से ही हुआ है। वहां हमेशा से राजा का शासन था लेकिन उस दौर में वहां राणाओं ने नेपाल को बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग रखा। भारत की आजादी के साथ नेपाल में भी लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गए। नेपाली कांग्रेस पार्टी के देशभर में चलाए गए आंदोलन और भारत की मदद से 1951 में वहां राणाओं की सत्ता समाप्त हुई और वास्तविक सत्ता राजाओं के हाथ में आ गई और इसके बाद लोकतंत्र के लिए आंदोलन लगातार जोर पकड़ता गया। 1959 में नेपाल ने अपना लोकतांत्रिक संविधान बनाया। संसदीय चुनाव हुए जिसमें नेपाली कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया लेकिन इसके अगले ही साल राजा महेंद्र ने सरकार पर भ्रष्टाचार और अकुशलता का आरोप लगाकर संसद को भंग कर दिया। इसके बाद 1962 में नेपाल के राजा ने बुनियादी लोकतंत्र के नाम पर किसी भी पार्टी के सहयोग के बिना ही राष्ट्र पंचायत का गठन किया। यहां तक कि मंत्रिमंडल का गठन भी राजा ने स्वयं ही किया।
राजा महेन्द्र की मृत्यु के बाद 1972 में राजा बीरेन्द्र ने नेपाल की राजगद्दी संभाली। इसके कुछ सालों बाद 1980 में संवैधानिक सुधार की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन हुआ। नेपाल के राजा ने कुछ बातें तो मानीं लेकिन उनकी अजीब-सी शर्तों के कारण नेपाली कांग्रेस ने 1985 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। नेपाली कांग्रेस ने 1986 के चुनावों का बहिष्कार भी किया। आंदोलन जोर पकड़ता गया। 1990 तक सड़कों पर प्रदर्शनों, सभाओं, हड़तालों के दबाव में आखिरकार राजा बीरेंद्र ने पंचायत पद्धति खत्म कर राजनीतिक पार्टियों को वैधता देने वाले नए संविधान पर अपनी मंजूरी दे दी। नए संविधान के तहत 1991 में नेपाल में चुनाव हुए। इस चुनाव में नेपाली कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और गिरिजा प्रसाद कोइराला देश के प्रधानमंत्री बने। उस समय यह किसे पता था कि कुछ ही वर्षों में नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के भयावह दौर में फंसने जा रहा है। तीन साल बाद 1994 में कोइराला सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। दोबारा चुनाव करवाए गए और नेपाल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ लेकिन अगले ही साल इस सरकार को भंग कर दिया गया। उसी समय नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही के खात्मे के लिए देशभर खासकर नेपाल के ग्रामीण इलाकों में विद्रोह शुरू कर दिया। एक तरफ देश में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी तो दूसरी तरफ नेपाल के राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद को लेकर म्यूजिकल चेयर का खेल खेलने में व्यस्त थे।
1999 में हुए चुनाव में नेपाली कांग्रेस फिर से सत्ता में आई और कृष्ण प्रसाद भट्टराई प्रधानमंत्री बने। लेकिन अगले ही साल पार्टी में विद्रोह के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा और गिरिजा प्रसाद कोइराला चौथी बार प्रधानमंत्री बने। उठा-पटक के इसी दौर में नेपाल के राजपरिवार को भयानक त्रास्दी से गुजरना पड़ा। जून 2001 में राजकुमार दीपेंद्र ने राजा बीरेन्द्र और रानी ऐश्वर्या समेत राजपरिवार के कई सदस्यों की गोली मारकर हत्या कर दी। राजा बीरेंद्र की हत्या के बाद उनके भाई राजकुमार ज्ञानेंद्र राजा बने। ज्ञानेंद्र स्वभाव से ही लोकतंत्र विरोधी थे इसलिए उनके राज में माओवादी विद्रोह की घटनाएं जोर पकड़ने लगीं।
माओवादियों ने नेपाल के कई हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया। पहले कोईराला और बाद में देउबा ने माओवादियों के साथ समझौता करने की कोशिश की लेकिन तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। परेशान राजा ज्ञानेंद्र ने नेपाल में आपातकाल लगा दिया। एक तरफ माओवादियों की ताकत लगातार बढ़ती जा रही थी तो दूसरी तरफ राजा ज्ञानेंद्र लगातार नए प्रधानमंत्री बनाने और उन्हें हटाने के खेल में लगे थे। इस दौर में एक के बाद एक देउबा, लोकेंद्र बहादुर चंद्र, सूर्य बहादुर थापा, उसके बाद फिर से शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बनाए गए। फरवरी 2005 में राजा ज्ञानेंद्र ने देउबा को बर्खास्त कर सारी कार्यकारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं। लेकिन इसके महज तीन साल बाद 2008 में उनके हाथ से सब कुछ चला गया। मई 2008 में 240 वर्षों से चली आ रही हिंदू राजशाही को खत्म करने की घोषणा कर दी गई। राजा ज्ञानेंद्र को सत्ता से बाहर कर दिया गया। नेपाल में नई सरकार सत्ता में आई। नेपाल को हिन्दू राष्ट्र की बजाय धर्मनिरपेक्ष देश घोषित कर दिया गया। 2008 में जिस नेपाल में वास्तविक लोकतंत्र आया था, अब 2020 में उसी नेपाल में फिर से लोकतंत्र को खत्म कर राजा को वापस लाने की मांग जोर पकड़ने लगी है।
वर्तमान माहौल में देखा जाए तो इसकी सिर्फ एक और एक ही वजह निकल कर सामने आ रही है कि वहां की तमाम राजनीतिक पार्टियों ने नेपाली जनता को हताश और निराश कर दिया है। पिछले 12 वर्षों में नेपाल में हालात सुधरने की बजाय और ज्यादा बिगड़ हए हैं। यह बात भी सही है कि नेपाल की अधिकांश जनता अभी भी राजशाही को पसंद नहीं करती है। लेकिन उतनी ही सही यह बात भी है कि राजशाही की तमाम बुराईयां अभी भी शासन व्यवस्था में बनी हुई हैं। नेपाल में गरीबी और बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। नेपाल अभी भी दुनिया के भ्रष्ट देशों की लिस्ट में शामिल है। करप्ट नेता और अधिकारियों के खिलाफ कोई प्रभावी सख्त एक्शन लेने में वहां की सरकार अक्षम है।
सबसे बड़ी बात, वहां की सरकारों के देश विरोधी रवैये की है। नेपाल और भारत के संबंध जग-जाहिर हैं। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर में तो नेपाल के राजा अपने देश के भारत में विलय तक को तैयार थे। लेकिन उस समय भारत ने ऐसा करने से मना कर दिया। भारत यह चाहता था कि एक स्वतंत्र देश के तौर पर नेपाल का अस्तित्व बना रहे। भारत-चीन के बीच एक बफर स्टेट के तौर नेपाल की भूमिका काफी अहम मानी जाती रही है। लेकिन 2008 के बाद सत्ता में आने वाली ज्यादातर सरकारों ने भारत विरोध के नाम पर नेपाल के राष्ट्रीय हितों तक से समझौता कर लिया। भारत-नेपाल की सीमा खुली है। दोनों देशों के बीच आवागमन के लिए किसी पासपोर्ट या वीजा की जरूरत नहीं है। नेपाली नागरिक भारतीय की तरह ही भारत में शिक्षा ले सकते हैं, नौकरी कर सकते हैं। दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी का संबंध माना जाता है। भगवान राम की अयोध्या भारत में है तो सीता मैया का मायका जनकपुर नेपाल में। सीतामढ़ी, मधुबनी जैसे बिहार के कई जिलों के हजारों गांवों के परिवारों ने अपनी बेटी या बेटे की शादी नेपाल में कर रखी है।
नेपाल की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में भारत का अहम योगदान रहा है। नेपाल का शायद ही कोई ऐसा इलाका या फील्ड बचा होगा, जहां भारतीय मदद नहीं जा रही हो लेकिन इसके बावजूद नेपाली सत्ता में बैठे लोगों ने भारत विरोध की अंधी पट्टी अपनी आंखों पर बांध रखी है। चीन के डर या मोह में वहां की सरकारों, खासकर वर्तमान प्रधानमंत्री ओली ने भारत विरोध के नाम पर नेपाल की संप्रभुता को चीन के आगे गिरवी रख दिया है। इन हालातों में नेपाल की देशभक्त जनता को यह लगने लगा है कि लोकतंत्र के नाम पर राज करने वाले इन नेताओं को अगर जल्द से जल्द सत्ता से बाहर नहीं किया गया तो नेपाल का भौगोलिक नक्शा बदलने में देर नहीं लगेगी। डर इस बात का भी है कि जो नेपाल अपने राजनीतिक इतिहास में कभी किसी का गुलाम नहीं बना वो कहीं चीन का एक उपनिवेश मात्र बन कर न रह जाए इसलिए वहां की जनता सड़कों पर उतर रही है। इसलिए नेपाली लोग राजशाही को वापस लाने की मांग कर रहे हैं। वहां की जनता यह अच्छी तरह से जानती है कि एक तरफ भारत है जिसने हमेशा नेपाल की संप्रभुता और नेपाली जनता का मान रखा है। जिस भारत ने नेपाल के राजा के कहने के बावजूद नेपाल का भारत में विलय नहीं किया वो भारत कभी भी नेपाल को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। तो दूसरी तरफ चीन है, जिसकी विस्तारवादी नीतियों से पूरी दुनिया वाकिफ है। हैरानी की बात तो यह है कि जो बात नेपाली जनता की समझ में आ गई है वो बात वहां सत्ता में बैठे लोगों को क्यों समझ नहीं आ रही है। नेपाल के साथ-साथ यह पूरे महाद्वीप के लिए बेहतर होगा कि नेपाल में राज कर रहे लोग जल्द से जल्द नेपाली जनता की भावना को समझ कर, उनके अनुरूप काम करें।