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आज का चिंतन धर्म-अध्यात्म

ऋषि दयानंद ने सबको वेदों और मत- मतान्तरों का अध्ययन कर असत्य छोड़ने का परामर्श दिया

ओ३म्

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मनुष्य के जीवन की आवश्यकता है सद्ज्ञान की प्राप्ति और उसको धारण करना। बिना सद्ज्ञान के उसका जीवन सही दिशा को प्राप्त होकर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त नहीं हो सकता। मनुष्य एक मननशील प्राणी है। इसे मनन करना आना चाहिये और मननपूर्वक सत्य व असत्य का निर्णय करना भी आना चाहिये। किसी बात पर बिना विचार व परीक्षा किये स्वीकार करने व आचरण करने को ही अन्धविश्वास कहा जाता है। अधिकांश लोग अपने जीवन में धर्म व मत-मतान्तर संबंधी बहुत सी बातों को बिना सत्यासत्य की परीक्षा किये स्वीकार कर अपने जीवन में आचरण में आते हुए दीखते है। इससे यह ज्ञात होता है कि वह अपने ज्ञान को बढ़ाने व सत्य निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न नहीं करते। हमारे ऋषि मुनि इस कमी को दूर करने के लिये विधान कर गये हैं कि मनुष्य को नित्य प्रति सद्ग्रन्थ वेदादि का स्वाध्याय करना चाहिये और अपनी सभी मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर खरा उतरने पर ही स्वीकार करना चाहिये। महाभारत युद्ध के बाद देखने को मिलता है कि संसार में अज्ञान छा गया था। लोग ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप तथा सद्घर्म को भूल गये थे। इस कारण संसार में सर्वत्र अनेक वेदविरुद्ध असत्य विचारों व मान्यताओं का प्रचार हुआ। सद्ग्रन्थों के सुलभ न होने व अनेक कारणों से लोगों ने सत्य की खोज व सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न कर उनको जैसा जिसने कहा, उसी को स्वीकार किया। इस कारण से संसार में विद्या व अविद्या दोनों प्रकार की बातों व मान्यताओं का प्रचार हुआ। समय के साथ यह बढ़ता ही गया। ऋषि दयानन्द के समय 1825-1883 में अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियां अपने चरम पर विद्यमान थी। ऋषि दयानन्द को ईश्वर पूजा की पर्याय मानी जाने वाली मूर्तिपूजा को करते हुए शिवरात्रि सन् 1839 में सन्देह हो गया था।

ऋषि दयानन्द ने अपने पिता कर्शनजी तिवारी, टंकारा-गुजरात व विद्वानों द्वारा उनका समाधान न हो पाने सहित मृत्यु के स्वरूप व उस पर विजय विषयक अनेक प्रश्नों के सन्तोषजनक उत्तर न मिलने के कारण अपनी आयु के 21वें वर्ष में अपने माता पिता का गृह त्याग कर सत्य वा सद्धर्म की खोज की थी और अपने सभी प्रश्नों के समाधान प्राप्त किये थे। अपने प्रयत्नों, योगाभ्यास तथा मथुरा में प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के शिष्यत्व में विद्याभ्यास से वह ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान को जानने व प्राप्त करने में सफल हुए थे। उन्होंने वेदों की परीक्षा कर उन्हें सर्वांश में सत्य पाया था। उन्होंने पाया था कि संसार में लोग अविद्या व अन्धविश्वासों में फंस कर दुःख प्राप्त कर रहे हैं। संसार के अधिकांश दुःखों का कारण अविद्या ही होती है। अतः उन्होंने अविद्या को दूर कर विद्या का प्रकाश करने के कार्य को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया था। अपने इस कार्य में वह सफल हुए। उन्होंने अपनी ओर से विद्या व अविद्या का स्वरूप स्पष्ट कर दिया। यह बात अलग है कि सभी लोगों ने उनके कारणों से उनके विचारों से लाभ नहीं उठाया। ऋषि दयानन्द ने देश की जनता के सम्मुख विद्या का सत्यस्वरूप व सभी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया और सभी मत-मतान्तरों के विद्वानों की शंकाओं का समाधान कर वैदिक मान्यताओं को सत्य व प्रामाणित सिद्ध किया था। उनके प्रयत्नों से ही हम संसार में तीन सत्ताओं ईश्वर, जीव व प्रकृति तथा इनके यथार्थ स्वरूप को जान पाये हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। इनका सत्यस्वरूप तथा इनकी प्राप्ति के उपाय व साधनों का विस्तृत परिचय भी ऋषि दयानन्द ने कराया। इसके लिये उन्होंने न केवल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ ही लिखे अपितु परमात्मा की वाणी दैवीय संस्कृत में उपलब्ध चार वेदों के संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य करने का कार्य भी किया जिसे उन्होंने अद्वितीय रीति से किया और साधारण लोगों को भी वेदों का ज्ञानी व धर्म तत्व को जानने में समर्थ बनाने का महनीय कार्य किया जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में घोर तप किया। उनकी परिभाषा है कि धर्माचार में कष्ट सहन का नाम ही तप होता है। यदि अपने प्रयत्नों वा पुरुषार्थ में कर्तव्य व धर्म न जुड़ा हो तो वह तप नहीं होता। अपने तपस्वी जीवन में ऋषि दयानन्द ब्रह्मचर्य तथा संन्यास से युक्त जीवन व्यतीत करते हुए योगाभ्यास को प्राप्त हुए और उसमें समाधि अवस्था को प्राप्त कर कृत्यकृत्य व सफल हुए। समाधि प्राप्ति होने पर भी मनुष्य को सत्यासत्य का ज्ञान व निर्णय होता है। पूर्ण विद्या प्राप्ति के लिये वह मथुरा के गुरु स्वामी विरजानन्द दण्डी जी को प्राप्त हुए और उनसे वेद वेदोंगों का अध्ययन कर वेदज्ञ बने थे। इस योग्यता को प्राप्त कर वह ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सफल हुए थे। अपने ज्ञान व अनुभव को बढ़ा कर उन्होंने वेदों के सत्यस्वरूप व वेदज्ञान का प्रचार व प्रसार किया। वह देश के अनेक स्थानों पर गये और वहां की प्रजा को वैदिक ज्ञान व मान्यताओं से परिचित कराया। उन्होंने सबको सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा की। सत्यज्ञान से युक्त होने के कारण विचारशील व शिक्षित लोगों सहित अशिक्षित लोग भी उनके प्रचार से प्रभावित हुए और अनेकों ने वैदिक धर्म को श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर अविद्यायुक्त अज्ञान तथा वेदविरुद्ध मूर्तिपूजा, अवतारवाद की मान्यता, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, बेमेल विवाह आदि को मानना छोड़ दिया था। ऋषि ने सभी को वेदाध्ययन व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय वा अध्ययन की प्रेरणा की थी। इस कार्य में सहयोग करने के लिये ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ लिखे। उन्होंने वेदभाष्य की रचना का कार्य भी आरम्भ किया। वह मृत्यु से पूर्व सम्पूर्ण यजुर्वेद तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 61वे सूक्त के 2सरे मन्त्र तक का भाष्य करने में सफल हुए। यदि उनको षडयन्त्रकारियों ने विष देकर मार न डाला होता तो वह कुछ समय में चारों वेदों का पूर्ण भाष्य सम्पन्न कर देते। मानवजाति का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वह उनके सम्पूर्ण वेदभाष्य व अन्य कार्यों, जो वह शेष जीवन में करते, वंचित रह गई।

ऋषि दयानन्द ने एक सच्चे व अपूर्व वेदज्ञ एवं धर्माचार्य बनकर मौखिक उपदेशों सहित ग्रन्थ लेखन, शंका समाधान तथा शास्त्रार्थों द्वारा ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रचार किया। उन्होंने सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों से भी धर्म चर्चायें कीं। उनसे शास्त्र चर्चा, शास्त्रार्थ व शंका-समाधान आदि भी किये। वह ऐसे धर्माचार्य थे जिन्होंने स्वपक्ष के एवं प्रतिपक्षी सभी लोगों के सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान वेदप्रमाणों, तर्कों एवं युक्तियों के साथ किया। वह वेद को सभी मत-मतान्तरों के लिए आदर्श ग्रन्थ सिद्ध करने में सफल हुए। ऋषि दयानन्द चाहते थे कि सभी मत-मतान्तर अपने मतों की परीक्षा कर वेदों के आलोक में अपनी अपनी अविद्यायुक्त मान्यताओं का सुधार, मार्जन व परिष्कार करें। इस लक्ष्य में सहायता के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ व उसके उत्तरार्ध के चार समुल्लास लिखे जिसमें उन्होंने भारतीय मत-मतान्तरों, बौद्ध व जैन मत, ईसाई एवं यवन मत की समीक्षा की है और सभी मतों की अविद्या पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। इसका उद्देश्य यही था कि सभी आचार्य व मत-मतान्तरों के अनुयायी अपने अपने मत के अध्ययन में सहायता प्राप्त करें और असत्य को छोड़े व सत्य को प्राप्त हों।

ऋषि दयानन्द ने उत्तरार्ध के चार समुल्लासों की अनुभूमिकायें भी लिखी हैं जिससे उनका मत-मतान्तरों की समीक्षा करने का अभिप्राय स्पष्ट होता है। चर्तुदश समुल्लास की अनुभूमिका में वह अपना अभिप्राय स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि उन्होंने मत मतान्तर विषयक जो समीक्षायें लिखी हैं वह केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिये है। सब मतों के विषयों का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान मनुष्यों को होवे, इससे उन्हें परस्पर विचार करने का समय मिले और एक दूसरे के दोषों का खण्डन कर गुणों का ग्रहण करें। किसी मत पर झूठ मूठ बुराई या भलाई लगाने का उनका प्रयोजन नहीं है किन्तु जो-जो भलाई है वही भलाई और जो बुराई है वही बुराई सब को विदित होवे। न कोई किसी पर झूठ चला सके और न सत्य को रोक सके, और सत्यासत्य विषय प्रकाशित करने पर भी जिस की इच्छा हो वह न माने वा माने। किसी पर बलात्कार नहीं किया जाता और यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष ओर गुणों को गुण जानकर गणों का ग्रहण ओर दोषों का त्याग करें। और हठियों का हठ दुराग्रह न्यून करें करावें, क्योंकि पक्षपात से क्या-क्या अनर्थ जगत् में न हुए और न होते हैं। सच तो यह है कि इस अनिश्चित क्षणभंग (क्षणभंगुर) जीवन में पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त (रहित या वंचित) रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहिः है। ऋषि यह भी लिखते हैं कि उनसे जो कुछ विरुद्ध लिखा गया हो उस को सज्जन लोग विदित कर देंगे तत्पश्चात् जो उचित होगा तो माना जायेगा क्योंकि यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है न कि इन को बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुंचाना हमारा मुख्य कर्म है। ऋषि लिखते हैं कि विचार कर इष्ट का ग्रहण अनिष्ट का परित्याग कीजिये।

ऋषि दयानन्द ने सभी मत-मतान्तरों व उनके अनुयायियों को सत्य को जानने, उसे ग्रहण करने तथा असत्य को छोड़ने का जो सत्परामर्श दिया था वह आज भी प्रांसगिक है। ऐसा किये बिना मनुष्य जाति की उन्नति नहीं हो सकती। सभी को ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों सहित जीवन चरित का भी अध्ययन करना चाहिये। इसी से सब विद्या को प्राप्त होकर अपने अपने जीवन का कल्याण कर सकते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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