लीना मेहेन्दले
वर्ष 1802 में इंग्लैड के श्री जेनर ने चेचक के लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गाय पर आए चेचक के दानों से बनाया जाता। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले से भारत में बच्चों पर आए चेचक के दानों से वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चों का बचाव करने की विधि थी। इस बाबत दसेक वर्ष पहले विस्तार से खोजबीन और लेखन किया है इंग्लैंड के श्री आरनॉल्ड ने। यह लेख उसी अध्ययन की संक्षिप्त प्रस्तुति है।
कुछ वर्ष पहले मुझे पुणे से डॉ. देवधर का फोन आया, यह बताने के लिए वे अमेरिकन जर्नल फॉर हेल्थ साइंसेज के लिए एक पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित कोलोनाइजिंग बॉडी। पुस्तक का विषय है कि प्लासी की लड़ाई अर्थात्वर्ष 1756 से लेकर 1947 तक अपने राजकाल में अंग्रेजी राज्यकर्ताओं ने भारत में प्रचलित कतिपय महामारियों को रोकने के लिए क्या-क्या किया। इसे लिखने के लिए लेखक ने अंग्रेजी अफसरों के द्वारा दो सौ वर्षों के दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गजेटियर और सरकारी फाइलों की पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारी से इस पुस्तक में लिखा। पुस्तक के तीन अध्यायों में चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियों के विषय में विस्तार से लिखा गया है। डॉ. देवधर के आग्रह पर मैंने उस पुस्तक के चेचक से संबंधित अध्याय की समीक्षा लिखी जो उनकी पुस्तक समीक्षा में मेरे नाम के साथ शामिल की गई। मेरी समीक्षा केवल चेचक के अध्याय के लिए ही सीमित थी, लेकिन उस अध्याय में लेखक ने जो कुछ लिखा है वह काफी महत्वपूर्ण है।
सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी चेचक की महामारी से बचने के लिए हमारे समाज में एक खास व्यवस्था थी। उनका विवरण देते हुए लेखक ने काशी और बंगाल की सामाजिक व्यवस्थाओं के विषय में अधिक जानकारी दी है। चेचक को शीतला के नाम से जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। इससे जूझने के लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी, उसमें धार्मिक भावनाओं का अच्छा खासा उपयोग किया गया था। चैत्र के महीने में शीतला उत्सव मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात चेचक का प्रकोप शुरू होने लगता है।
काशी के गुरूकुलों से गुरू का आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवों में इस पूजा विधान के लिये जाते थे। चार-पांच शिष्यों की टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरू के आशीर्वाद के साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे – चाँदी या लोहे के धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुई के फाहों में लिपटी हुई ‘कोई वस्तुÓ। इन शिष्यों का गाँव में अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यान से सुनी व मानी जाती थीं। वे तीन से पन्द्रह वर्ष की आयु के उन सभी बच्चों और बच्चियों को इक_ा करते थे जिन्हें तब तक शीतला का आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचक की बीमारी न हुई हो)। उनके हाथ में अपने ब्लेड से धीमे धीमे कुरेदकर रक्त की मात्र एकाध बूंद निकलने जितना एक छोटा सा जख्म करते थे। फिर रूई का फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तु को जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देर में दर्द खतम होने पर बच्चा खेलने कूदने को तैयार हो जाता। फिर उन बच्चों पर निगरानी रखी जाती। उनके माँ-बाप को अलग से समझाया जाता कि बच्चे के शरीर में शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगत के लिये बच्चे को क्या क्या खिलाया जाय। यह वास्तव में पथ्य विचार के आधार पर तय किया जाता होगा।
एक दो दिनों में बच्चों को चेचक के दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता था। इस समय बच्चे को प्यार से रखा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती। ब्राम्हण शिष्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वाद के रूप में पधारी हैं, वह प्रकोप में न बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे। यह सारा चक्र आठ-दस दिनों में सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चे को नीम के पत्तों से नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनों के निवास के बाद शीतला माता उस बच्चे के शरीर से विदा होती थीं और बच्चे को ‘आशीर्वादÓ मिल जाता कि जीवनपर्यन्त उस पर शीतला का प्रकोप कभी नहीं होगा। उन्हीं आठ-दस दिनों में ब्राह्मण शिष्य चेचक के दानों की परीक्षा करके उनमें से कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले पीब को साफ रुई के छोटे-छोटे फाहों में भरकर रख लेता था। बाद में काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरू के पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काम में लाये जाते थे।
यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दों में कहा जाय तो यह सारा पल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्राम था जो बगैर अस्पतालों के एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में चलाया जा रहा था। ब्राह्मणों के द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरह से रोग-नियंत्रण के ही साधन थे। हालांकि पुस्तक में सारा ब्यौरा बंगाल व बनारस का है, लेकिन मैं जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देश के अन्य कई भागों में शीतला सप्तमी का व्रत मनाया जाता है और हर गाँव के छोर पर कहीं एक शीतला माता का मंदिर भी होता है। आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र में रिवाज है कि चैत्र मास में छोटे-छोटे बच्चे सिर पर तांबे का कलश लेकर नदी में नहाने जाते हैं। कलश को नीम के पत्तों से सजाया जाता है। गीले बदन नदी से देवी के मंदिर तक आकर कलश का पानी कुछ शीतला देवी पर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिर पर उंडेलते हैं। इसी प्रकार शीतला सप्तमी का व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मास में किया जाता है। इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्याय में आगे लिखी गई थीं।
अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरों को देसी बीमारियों से बचाये रखने के लिए अलग से कैण्टोनमेंट बने जो शहर से थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टों में रहने वाले सोल्जरों को भी खतरा होगा। अत: महामारी के साथ सख्ती से निपटने की नीति थी। महामारी के मरीजों को बस्तियों से अलग अस्पतालों में रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपिया में लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगों की दवाईयों का ज्ञान तो अंगे्रजों को था नहीं और उन पर विश्वास भी नहीं था। अंग्रेजों के लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टों के चारों ओर भी एक बफर जोन हो, अर्थात वहाँ रहनेवाले भारतीय (प्राय: नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।
ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया में जिक्र है कि अठारवीं सदी के आरंभ में चेचक से बचने के लिए टीका लगवाने की एक प्रथा भारत से आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तान के रास्ते यूरोप में खासकर इंग्लैंड में पहुँची थी, जिसे वेरियोलेशन का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी कई गणमान्य लोग इसके प्रचार में जुटे थे और उन्हें इंग्लैंड के समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त था। वर्ष 1767 में हॉवेल ने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्ड की जनता को वेरियोलेशन के संबंध में आश्वस्त कराने का प्रयास किया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इम्युनाइजेशन के लिये बीमार व्यक्ति को ही साधन बनाने का सिद्धान्त और चेचक जैसी बीमारी में टीका लगाने का विधान भारत में उपजा था। तेरहवीं से अठारवीं सदी तक यह उत्तरी भारत के सभी हिस्सों में प्रचलित था। वर्ष 1767 में डॉ हॉवेल ने भारतीय टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा लंदन के कॉलेज ऑफ फिजिक्स में प्रस्तुत किया था और इसकी भारी प्रशंसा की थी। यह पद्धति इंग्लैंड में नई-नई आई थी और हॉवेल उन्हें इसके विषय में आश्वस्त कराना चाहते थे। हॉवेल ने बताया कि टीका लगाने के लिये भारतीय टीकाकार पिछले वर्ष के पीब का उपयोग करते थे, नये का नहीं। साथ ही यह पीब उसी बच्चे से लिया जाता जिसे टीके के द्वारा शीतला के दाने दिलवाये गये हों अर्थात जिसका कण्ट्रोल्ड एनवायर्नमेंट रहा हो। टीका लगाने से पहले रुई में स्थित दवाई को गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता था। बच्चों के घर और पास पड़ोस के पर्यावरण का विशेष ख्याल रखा जाता था। बूढ़े व्यक्ति या गर्भवती महिलाओं को अलग घरों में रखा जाता ताकि उन तक बीमारी का संसर्ग न फैले। हॉवेल के मुताबिक इस पूरे कार्यक्रम में न तो किसी बच्चे को तीव्र बीमारी होती और न ही उसका संसर्ग अन्य व्यक्तियों तक पहुँचता। यह पूर्णतया सुरक्षित कार्यक्रम था।
वर्ष 1839 में राधाकान्त देव ने भी इस टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है। आरनॉल्ड कहता है, हालॉकि हॉवेल या देव यह नहीं लिख पाये कि टीका देने की यह पद्धति समाज में कितनी गहराई तक उतरी थी, लेकिन वर्ष 1848 से वर्ष 1867 के दौरान बंगाल के सभी जेलों के आँकड़े बताते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत कैदी भारतीय विधान से टीका लगवा चुके थे। असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कम से कम साठ प्रतिशत लोक टीके लगवाते थे। आरनॉल्ड ने वर्णन किया है कि बंगाल प्रेसिडेन्सी में 1870 के दशक में चेचक से संबंधित कई जनगणनाएँ कराई गईं। ऐसी ही एक गणना 1872-73 में हुई। उसमें 17697 लोगों की गणना में पाया गया कि करीब 66 प्रतिशत लोग देसी विधान के टीके लगवा चुके थे, 5 प्रतिशत का वैक्सीनेशन कराया गया था, 18 प्रतिशत को चेचक निकल चुका था और अन्य 11 प्रतिशत को अभी तक कोई सुरक्षा बहाल नहीं की गई थी। बंगाल प्रेसिडेन्सी के बाहर काशी, कुमाँऊ, पंजाब, रावलपिण्डी, राजस्थान, सिंध, कच्छ, गुजरात और महाराष्ट्र के कोंकण प्रान्त में भी यह विधान प्रचलित था। लेकिन दिल्ली, अवध, नेपाल, हैदराबाद और मैसूर में इसके चलन का कोई संकेत लेखक को नहीं मिल पाया। मद्रास प्रेसिडेन्सी के कुछ इलाकों में उडिय़ा ब्राह्मणों द्वारा टीके लगवाये जाते थे। टीके लगवाने के लिये अच्छी खासी फीस मिल जाती लेकिन कई इलाकों में औरतों को टीका लगाने पर केवल आधी फीस मिलती थीं।
राधाकान्त देव के अनुसार टीका लगाने का काम ब्राम्हणों के अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमात के लोग भी करते थे। बंगाल में माली समाज के लोग और बालासोर में मस्तान समाज के तो बिहार में पछानिया समाज के लोग, मुस्लिमों में बुनकर और सिंदूरिये वर्ग के लोग टीका लगाते थे। कोंकण में कुनबी समाज तो गोवा में कॅथोलिक चर्चों के पादरी भी टीका लगाते थे। टीका लगाने के महीनों में अर्थात फाल्गुन, चैत्र, बैसाख में हर महीने सौ सवा सौ रुपये की कमाई हो जाती जो उस जमाने में अच्छी खासी सम्पत्ति थी। कई गाँवों का अपना खास टीका लगवाने वाला होता था और कई परिवारों में यह पुश्तैनी कला चली आई थी। लेखक के मुताबिक चूँकि टीका लगवाने की यह विधि ब्रिटेन में भी धीरे-धीरे मान्य हो रही थी, अत: बंगाल के कई अंग्रेज परिवार भी टीके लगवाने लगे थे। लेकिन वर्ष 1798 में सर जेनर ने गाय के थन पर निकले चेचक के दानों से वैक्सीन बनाने की विधि ढूँढ़ी तो इंग्लैंड में उसका भारी स्वागत हुआ। जैसे ही जेनर की विधि हाथ में आई अंग्रेजों ने मान लिया कि इसके सिवा जो भी विधि जहाँ भी हो वह बकवास है और उसे रोकना पड़ेगा।
जेनर की विधि सबसे पहले वर्ष 1802 में मुम्बई में लाई गई और वर्ष 1804 में बंगाल में। इसके बाद ब्रिटिश राज ने हर तरह से प्रयास किया कि भारतीयों की टीका लगाने की विधि अर्थात वेरियोलेशन को समाप्त किया जाए। इसका सबसे अच्छा उपाय यह था कि वेरियोलेशन द्वारा टीका लगवाने को गुनाह करार दिया गया और टीका लगवाने वालों को जेल भेजा गया। वर्ष 1830 के बाद चेचक के विषय में अंग्रेजों के द्वारा लिखित जितने भी ब्यौरे मिलेंगे उनमें वेरियोलेशन विधि को बकवास बताया गया है और भारतीयों की तथा उनकी अंधश्रद्धा की भरपूर निन्दा की गई जिसके कारण वे जेनर साहब के वैक्सीनेशन जैसे अनमोल रत्न को ठुकरा रहे थे जो उन्हें अंग्रेज डॉक्टरों की दया से मिल रहा था और जिसके प्रति कृतज्ञता दर्शाना भारतीयों का फर्ज था। भारतीयों द्वारा देसी पद्धति से टीका लगवाने को मृत्यु का व्यापार या हत्यात्मक कृत्य तक कहा गया।
कहीं ना कहीं अंग्रेजों को यह समझ थी कि जब तक काशी के ब्राम्हणों के शिष्य अपना वेरिओलेशन का कार्यक्रम कर रहे हैं तब तक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी। उसे रोकने के लिए देशी तरीके को अशास्त्रीय करार दिया गया और शीतला का टीका लगाने वाले ब्राम्हणों को जेल भिजवाया जाने लगा। तब ब्राम्हणों ने अपनी विद्या गाँव-गाँव के सुनार और नाइयों को पढ़ाई। जिन सुनार/नाइयों को यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा टीकाकार और आज भी बंगाल व उड़ीसा में टीकाकार नाम से कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलत: सुनार या नाई दोनों जातियों से हो सकते हैं।
चेचक के नियंत्रण की अंग्रेजी पद्धति के लोकप्रिय न होने का एक कारण यह भी था कि काफी वर्षों तक अंग्रेजी पद्धति में कई कठिनाईयाँ थीं। उन्नींसवीं सदी के अंत तक यह पद्धति काफी क्लेशकारक भी थी। भारतवर्ष में गायों को चेचक की बीमारी नहीं होती थी। अत: गाय के चेचक का पीब (जिसे वॅक्सिन कहा गया) इंग्लैंड से लिया जाता था। फिर बगदाद से बंबई तक इसे बच्चों की श्रृखंला के द्वारा लाया जाता था – अर्थात् किसी बच्चे को गाय के वॅक्सीन से टीका लगा कर उसे होने वाली जख्म के पकने पर उसमें से पीब निकालकर अगले बच्चे को टीका लगाया जाता था।
बाद में गाय के वॅक्सिन को शीशी में बन्द करके भेजा जाने लगा। परंतु गर्मी से या देर से पहुँचने पर उसका प्रभाव नष्ट हो जाता था। उसके कारण बड़े बड़े नासूर भी पैदा होते थे। गर्मियों में दिये जाने वाले टीके कारगर नहीं थे, अतएव छह महीनों के बाद टीके बंद करने पड़ते थे और अगले वर्ष फिर से बच्चों की श्रृखंला बनाकर ही टीके का वॅक्सिन भारत में लाया जा सकता था। यूरोप और भारत में यह भी माना जाता था कि इसी पद्धति के कारण सिफिलस या कुष्ट रोग भी फैलते हैं। वर्ष 1850 में बम्बई में वेक्सिनेशन डिविजन ने गाय बछड़ों में वेक्सिनेशन कर उनके पीब से टीके बनाने का प्रयास किया परंतु यह खर्चीला उपाय था।
वर्ष में बंगाल के सॅनिटरी कमिश्नर डायसन ने लिखा है – अंग्रेजी पद्धति में एक वर्ष से कम उमर के बच्चों को टीका दिया जाता था। जिस बच्चे का घाव पक गया हो उसे दूसरे गाँवों में ले जाकर उसके घावों का पीब निकालकर अन्य बच्चों को टीका लगया जाता। कई बार घाव को जोर से दबा-दबा कर पीब निकाला जाता ताकि अधिक बच्चों को टीका लगाया जा सके। बच्चे, उनकी माएं और अन्य परिवार वाले रोते कलपते थे। टीका लगवाने वाले परिवार भी रोते क्योंकि उनके बच्चों को भी आगे इसी तरह से प्रयुक्त किया जाता था। गाँव वाले मानते थे कि इन अंग्रेज टीकादारों से बचने का ही रास्ता था कि उन्हें चाँदी के सिक्के दिये जायें। यह सही है कि इस विधि में बच्चे को कोई बीमारी नहीं होती थी या उसे चेचक के दाने नहीं निकलते थे जबकि भारतीय पद्धति में पचास से सौ तक दाने निकल आते थे। फिर भी कुल मिलाकर भारतीय पद्धति में तकलीफें कम थीं।
इस सारे विवरण को विस्तार से पढऩे के बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि शीतला का टीका लगाने की इस विधि के विषय में हमारे आयुर्वेद के विद्वान क्या और कितना जानते हैं? दूसरा विचार यह है कि हमारे समाज में कभी यह क्षमता थी कि इस प्रकार की विकेंद्रित प्रणाली का आयोजन किया जा सकता था। आज वह क्षमता लुप्त सी होती दिखाई पड़ती है जोकि गहरी चिन्ता का विषय है। यह भी विचारणीय है कि जैसा गहन शोध आरनॉल्ड ने यह पुस्तक लिखने के लिये किया वैसा गहन शोध हमारे ही देश की स्वास्थ्य प्रणाली के विषय में कितने लोग या कितने आयुर्वेदिक डॉक्टर कर पाते हैं? उनकी क्षमता बढ़ाने के लिये सरकार के पास क्या नीतियाँ हैं और वे कितनी कारगर हैं? सबसे पहले प्रयास के रूप में इतना तो अवश्य किया जा सकता है कि हमारे आयुर्वेद के डॉक्टर और सरकारी अफसर इस पुस्तक को या कम से कम इस अध्याय को पढ़ लें।
(लेखिका पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी हैं।)