गतांक से आगे…..

राजा अम्बरीष

हम ऊपर लिख आए हैं कि अम्बरीष का वर्णन सहदेव के साथ आया है और वहां इसका अर्थ आमड़ा वृक्ष ही होता है। दूसरी जगह अमरकोष में अम्बरीष भड़भूंजे के भाड़ को भी कहते हैं। इससे अम्बरीष राजा सिद्घ नही होता।

राजा त्रिशंकु

यह राजा भी सूर्यवंश का है। इसके लिए प्रसिद्घ है कि वह जमीन और आसमान के बीच में लटका है। इससे समझ लेना चाहिए कि यह न तो मनुष्य है और न राजा। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि :-

गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद बहि:।

नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिषु जाज्वल।

अवाकशिरस्त्रिाशंकु कुश्व तिष्ठत्वमरसंनिभ:।

अनुयास्यन्ति चैतानि ज्योतीषि नृपसत्तम्।

त्रिशंकुकुर्विमलो भाति राजर्षि स पुरोहित।

पितामह पुरोअस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम्।

दक्षिण दिशा लंका में रामचंद्र जी ने इस तारे को देखकर कहा कि ये हमारे पूर्वपितामह त्रिशंकु हंै।  लंका से देखने पर यह मध्य रेखा के नीचे लटका हुआ दिखता है। इसलिए इसको जमीन आसमान के बीच में लटका हुआ कहा गया है।

इस तरह से आकाशीय और औषधादि पदार्थों के वर्णनों को उसी नामवाले राजाओं के वर्णनों के साथ मिलाकर पुराणकारों ने सच्चे इतिहास को असंभव और इतिहास शून्य वेदों को ऐतिहासिक कर दिया है, किंतु समय फिरा है-ढूंढ़ तलाश जारी है। इससे आशा है कि सब झगड़ा तय हो जाएगा। यहां तक हमने राजाओं का दिग्दर्शन कराया, अब आगे ऋषियों के नामों का अर्थ दिखलाया जाएगा।

ऋषियों के नाम

अभी इसके पूर्व यह दिखला आये हैं कि वेदों में जिन पदार्थों का वर्णन है वे संसार के राजा नही प्रत्युत वे या तो आकाशीय पदार्थ हंै या वनौषधि हैं। यहां इस प्रकरण में हम उन शब्दों का अर्थ दिखलाना चाहते हैं जिनका अर्थ लोग ऋषि, ब्राह्मण अथवा तपस्वी करते हैं।

हमको जहां तक पता लगा है कि हम कह सकते हैं कि ये ऋषिवाचक शब्द या तो नक्षत्र किरण आदि आकाशीय चमत्कारिक पदार्थों के वाचक हैं अथवा वे मनुष्य शरीर में स्थित इंद्रियों के वाचक हैं यहां हम पहले आकाशस्थ पदार्थवाची शब्दों को लिखते हैं।

अगस्ति ऋषि प्रसिद्घ हैं, पर एक अगस्ति नामक तारा भी प्रसिद्घ है, जो वर्षा के अंत में दिखलाई पड़ता है उसके उदय होते ही वर्षा बंद हो जाती है। उस पर से यह कथा गढ़ी है कि अगस्ति ने समुद्र को पी लिया, किंतु तुलसीदास अपनी रामायण में लिखते हैं कि ‘उदय अगस्ति पंथ जल सोखा’ इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह अगस्ति तारा ही है, ऋषि नही।

महाभारत में लिखा है कि-

ब्रह्माशिर्विशुद्घभ्र शुद्घाश्र परमर्षय:।

आर्चिष्मन्त: प्रकाशन्ते धु्रवं सर्वे प्रदक्षिणम्।

अर्थात धु्रव की प्रदक्षिणा सप्तर्षि करते हैं। यहां लोक में भी उत्तर की ओर घूमने वाले सातों तारों को सप्तर्षि कहते हैं। उधर धु्रव एक राजा का पुत्र प्रसिद्घ ही है। कहते हैं कि यह धु्रव कभी पृथ्वी लोक में मनुष्य था पर अब नक्षत्र है जिसकी प्रदक्षिणा सात तारे करते हैं। ऋग्वेद में उत्तानपाद का वर्णन है, जिससे धु्रव संबंध रखता है। कर पुराणों ने उत्तानपाद, धु्रव और सप्तर्षि को मनुष्य बना डाला है, जिससे वेद में आये हुए इन शब्दों के इतिहास का भ्रम होने लगता है।

हम कहीं पहले कह आये हैं कि वैदिक साहित्य में आकाश भी एक संसार है। वहां गली, ग्राम, नगर, युद्घ, ऋषि आदि सभी कुछ हैं। उसी के अनुसार ऊपर के श्लोकों का भी अर्थ है कि उत्तर गोलार्ध में नागवीथी के अंत में सप्तर्षि हंै और दक्षिण गोलार्ध में अगस्ति तारे के पास जहां अजवीथी हैं वहां 88000 हजार मुनि हैं। इस वर्णन से प्रकट हो गया कि तारागणों को ऋषि मुनि कहा गया है।

यह सब जानते हैं कि उत्तर स्थित सप्तऋषियों में एक नक्षत्र का नाम वशिष्ठ है। अभी हमने कहा है कि त्रिशंकु दक्षिणा दिशा में है।   क्रमश:

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