डॉ. कृपा शंकर सिंह
भारत और राष्ट्र, ये दोनों शब्द सदियों पहले से इस देश के भूभाग के लिये प्रयुक्त होते रहे है। विश्व का प्राचीनतम लिखित प्रमाण और भारतीय अस्मिता की आत्मा ऋग्वेद में राष्ट्र शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। दसवें मंडल में राष्ट्र, राजा और प्रजा (समाज) को लेकर ऋचायें कही गयी है। ऋषि कहते हैं— हे राजन! हमारे राष्ट्र का तुम्हें स्वामी बनाया गया है। तुम हमारे राजा हो। तुम नित्य अचल और स्थिर होकर रहो। सारी प्रजा तुम्हें चाहे। तुमसे राष्ट्र नष्ट न होने पावे। (10.173.1)
दूसरी ऋचाओं में कहा गया — तुम ध्रुव बनकर इस राष्ट्र को धारण करो (10.173.2) और राष्ट्र को तेजस्वी वरुण स्थिर करें, देव बृहस्पति, इन्द्र और अग्नि राष्ट्र को अचल बनावें। (10.173.5)
दसवें मंडल में ही संवनन ऋषि ने राष्ट्र चेतना को जाग्रत करने के लिये एक ऋचा में कहा है — हम सबके मंत्र समान हों, हमारी समिति समान हो। चित्त सहित मन समान हो। मैं तुम्हें एक ही मंत्र से अभिमंत्रित करता हूँ, एक सी हवि से तुम्हारे लिये हवन करता हूँ। (10.191.3) एक और ऋचा में कहा गया है — तुम्हारी संकल्प शक्ति समान हो। तुम्हारे हृदय समान हों। तुम्हारे मन समान हों। तुम सबका पूर्ण रूप से संघटन हो। (10.191.4)
ऋग्वेद में भारत नाम भी अनेक बार प्रयोग में आया है। जिन पांच मुख्य आर्यजन के नाम ऋग्वेद (1.108.8) में आते हैं, वे हैं — पुरु, यदु, तुर्वश, दुहयु और अनु। इनसे पुरुओं में तीन शाखायें हुई — भरत तृत्सु और कुशिक। बाद में भरत और तृत्सु एक हो गये। इन्हीं भरत राजाओं के कारण भारत नाम था। इनमें दिवोदास और उसका पुत्र सुदास ऋग्वैदिक काल के प्रसिद्ध राजा हुये, जिन्होंने जनपदों के छोटे—छोटे राजाओं (राजकों) को संगठित करने का काम किया था। इन्हीं भारतों के ऊपर देश का नाम भारत पड़ा।
विश्वामित्र ऋग्वेद के प्राचीन ऋषियों में से है। वे तीसरे मंडल के सूक्तों के रचयिता हैं। वे दाशराज्ञ युद्ध के बाद सुदास राजा के पुरोहित भी रहे। उन्होंने एक ऋचा में राष्ट्र के सन्दर्भ में भारत का नाम लिया है। राष्ट्र के निवासियों के लिये भारतजन कहा है। उनकी एक ऋचा इस तरह है — य इमे रोदसी अमे अहमिन्द्रम तुष्टनम्। विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्नेदं भारतं जनं।। (3.53.12)
हे कुशिकपुत्रों, जो यह दोनों आकाश और पृथिवी है, उनके धारक इन्द्र की मैंने स्तुति की है। स्तोता विश्वामित्र का यह स्तोत्र भारतजन की रक्षा करता है। वशिष्ठ भी ऋग्वेद के प्राचीन ऋषियों में है। दाशराज्ञ युद्ध में वे सुदास के पुरोहित थे। तृत्सु राजाओं को उन्होंने भारतवंशी कहा है। एक ऋचा में उन्होंने यह कहा है कि तृत्सुओं के पुरोहित बनने के बाद भारतवंशी राजाओं की प्रजा में वृद्धि हुई।(7.33.6)
भारतीय भूभाग को ऋग्वेद में सप्तसिन्धु कहा गया है। ऋग्वेद में यह नाम कई बार आया है। यह भूभाग गंगा की उपत्यका से लेकर सिन्धु नदी के पश्चिम तक था। ऋग्वेद की एक ऋचा में गंगा से लेकर मेहलू तक की नदियों का पूर्व से पश्चिम की ओर के क्रम में विवरण मिलता है।
सिन्धुक्षित की दो ऋचाओं (10.75.5.6) में उन सभी नदियों का उल्लेख किया गया है, जो उस पूरे क्षेत्र में प्रवाहित होती है। इसमें गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलुज से लेकर कुभा (काबुल) और मेहलू नदियों तक के नाम हैं। हिरण्यस्तूप आंगिरस सविता की स्तुति करते हुये एक ऋचा में कहते हैं — पृथिवी की आठों दिशायें, परस्पर संयुक्त हुये तीनों लोक और सप्तसिन्धु को सविता देव ने प्रकाशित किया है। स्वर्णिम आंखों वाले सविता देव (हिरण्याक्ष: सविता देव:) हव्यदाता राजमान को वरणीय दान देकर यहां आवें। (1.35.8) सप्तसिन्धु कई जनपदों का सम्मिलित नाम था।
भारतीय परम्परा आकाश को पिता और धरती को माता मानने की रही है। आदि काल से इस परम्परा का निर्वाह होता रहा है। ऋग्वेद के ऋषि दीर्घतमा औचथ्य ने छावापृथिवी को पिता और माता के रूप में आह्वान किया है – मैंने आह्वान मंत्र द्वारा पुत्र के प्रति द्रोहहीन और पितृस्थानीय द्युलोक के उदार और सदय मन को जाना है। मातृस्थानीय पृथिवी के मन को भी जाना है। पिता—माता (द्यावापृथिवी) अपनी शक्ति से यजमानों की रक्षा करते हुये पर्याप्त अमृत देते हैं। (1.159.2)
आकाश को पिता और पृथिवी को माता की परम्परा हिन्दू धार्मिक मान्यता का अपरिहार्य अंग है। भारतीयों में हर दिन प्रात: काल सोकर उठने के बाद धरती पर पैर रखने के पहले धरती से क्षमा मांगने की प्रथा थी — समुद्रवसने देवि, पर्वत स्तन मंडले। विष्णु पत्रि नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमस्व मे।
भारत देश के अर्थ में सिन्धु शब्द का प्रयोग पाणिनी (5वीं सदी ई. पू.) की अष्टाध्यायी (4.3.93) में हुआ है। सिन्धु देश के लोगों को सैन्धव कहा गया है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख (पहली शताब्दी ई. पू. के आसपास) में भारतवर्ष शब्द आया है। विष्णुपराण में भारत की सीमा का उल्लेख किया गया है। उसमें कहा गया है
उत्तरं यत्समुदस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षंतद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:।।
भारत नाम हिमालय से समुद्र तक के उत्तर दक्षिण भूभाग का है। भारत में भारती प्रजा का निवास है। मनुस्मृति में देश शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। उसमें देश का आशय विशेष भूमिभाग से लिया गया है, जैसे ब्रहमावर्त देश का क्षेत्र निर्धारण करते हुये बाताया गया है कि सरस्वती तथा दृषद्वती इन दो देवनदियों के मध्य का जो देश है, उसे देव निर्मित (देवनदी निर्मित) ब्रहमावर्त कहा गया है। (2.17)
यहां सरस्वती और दृषद्वती नदियों को देव नदी के रूप में माना गया है। इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य है, एक यह कि सरस्वती (हषदृवती सरस्वती की सहायक नदी थी) को मनुस्मृति में भी नदियों में पवित्रतम देवनदी के रूप में बताया गया, जो ऋग्वैदिक परम्परा के अनुकूल है। ऋग्वेद में सरस्वती को लेकर बहुत सी ऋचायें कही गयी है और उसे नदियों में सर्वोत्तम के साथ ही माताओं में सर्वोत्तम तथा देवियों में सर्वोत्तम कहा है। (2.41.6)
दूसरी बात यह कि मनुस्मृति काल में सरस्वती अभी सूखी नहीं थी, ऐसा संकेत मिलता है। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि मनुस्मृति का रचना काल दूसरी सदी ई. पू. जैसा कि अधिकतर लोक मानते हैं, से पहले का होना चाहिये, क्योंकि दूसरी सदी ई. पू. की रचना पंचविंश ब्राहमण (15.10.16) में सरस्वती के सूखने का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति में ब्रह्मर्षि देश का उल्लेख है। उसमें कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल, पंजाब और कन्नौज का समीपवर्ती देश और शूरसेन देश, यह ब्रहमर्षि देश ब्रहमावर्त से कुछ कम उसके बाद में है। (2.19)
मध्य देश का वर्णन करते हुये कहा गया है कि हिमालय और विन्ध्याचल के बीच विनशन (कुरुक्षेत्र) के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम का देश मध्यदेश कहा गया है। (2.21)
आर्यावर्त देश के बारे में कहा गया कि पूर्व समुद्र तथा पश्चिम समुद्र और इन्हीं दोनों पर्वतों के मध्य स्थित देश को पंडित आर्यावर्त देश कहते हैं। (2.22)
इनके अतिरिक्त मनुस्मृति में यज्ञिय और म्लेच्छ देश का भी उल्लेख है। कहा गया कि जहां पर काला मृग स्वभाव से ही विवरण करता है, यह यज्ञिय (यज्ञ के योग्य) देश हैं, इसके अतिरिक्त म्लेच्छ देश है। (2.23)
यहां म्लेच्छ देश की परिभाषा नहीं की गयी है। लगता यह है कि यज्ञिय देश, जहां आर्यो का निवास था, और म्लेच्छ देश (क्षेत्र) वह जहां दस्यु रहा करते थे। ऋग्वेद में भी दस्युओं को राक्षस (1.51.57.8), असुर (10.73.1) दस्यु (6.31.4) दास (5.3.8) आदि कहा गया है। यह हो सकता है कि मनुस्मृति के इस श्लोक में यज्ञिय और म्लेच्छ देश ऋग्वेद के आधार पर कहा गया हो।
ऋग्वेद में यह भी है कि दस्यु और आर्यों की बस्तियां एक दूसरे से पर्याप्त दूरी में रही थी। तभी तो इन्द्र की दूती सरमा पणियों के यहां गौवों का पता लगाने गयी थी। उन ऋचाओं में उसे दूर देश से आने वाली बताया गया है। उसके आने पर बृबु पाठी उससे आने का कारण जानने के लिए पूछता है, सरमा तुम किस इच्छा से इतनी दूर आयी हो, मार्ग बहुत लम्बा है और कठिन भी। तुम्हें तो कितनी ही रातें राह में बितानी पड़ी होंगी। तुमने रास्ते की नदियों को किस तरह पार किया होगा। (10.108.1)
भारत की तरह भारतजन के लिये हिन्दू नाम भी बहुत प्राचीन काल से प्रयुक्त होता रहा था। इसका संकेत हमें जेंदावेस्ता में आये हन्द शब्द से मिलता है। पं. धर्मानन्द महाभारती के बंगला भाषा में प्रकाशित लेख का महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उल्लेख किया है। उस लेख में कहा गया है कि हिन्दू शब्द का इतिहास बहुत पुराना है। पारसी जो अग्निपूजक थे, के धर्मग्रंथ जेंदा वेस्ता में हन्द् शब्द का प्रयोग किया गया है। यहूदियों की धर्मपुस्तक ओल्ड टेस्टामेंट (जो बाइबल का पुराना भाग है) में भी हन्द शब्द आया है। ओल्ड टेस्टामेंट हिब्रू भाषा में है और पारसियों का जेंदा वेस्ता जेंद भाषा में है। हिब्रू की अपेक्षा जेंद भाषा अधिक पुरानी मानी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दू शब्द का प्राचीनतम प्रयोग हन्द के रूप में जेंद भाषा में प्रयुक्त हुआ है।