-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने वनस्पति जगत सहित पृथिवी पर अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि पदार्थ प्रदान किये थे। जब यह पृथिवी मनुष्यों के निवास के अनुकूल हुई वा बन गई तो इसमें पशु, पक्षी आदि नाना प्रकार के प्राणियों सहित मनुष्यों की रचना व उत्पत्ति की गई। मनुष्य के निर्माण व जीवन लक्ष्य की साधना के लिये जिस शरीर व इन्द्रिय आदि साधनों व अवयवों यथा देखना, बोलना, सूंघना, रस व स्वाद जानना, स्पर्श से अनुमान करना, बल व ज्ञान आदि की आवश्यकता थी, वह सब परमात्मा ने मनुष्यों ने ही को प्रदान किये। मनुष्य की एक प्रमुख आवश्यकता ज्ञान व भाषा की प्राप्ति की भी थी। परमात्मा के अतिरिक्त मनुष्यों को ज्ञान व भाषा देने वाली अन्य कोई सत्ता नहीं थी। अतः यह भाषा व ज्ञान भी ज्ञानस्वरूप चेतन परमात्मा से ही मनुष्यों को प्राप्त हुए थे। ऋषि दयानन्द ने प्रमाणों के आधार पर इन तथ्यों का उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है। परमात्मा ने भाषा व ज्ञान की जो सामग्री व ज्ञानराशि सृष्टि के आरम्भ में सर्वप्रथम मनुष्यों को दी, वह चार वेद संहितायें व उसके सभी मन्त्र ही हैं। वेदभाषा व वेदज्ञान से प्राचीन संसार में न कोई भाषा है और न ज्ञान है, यह सब मनुष्यों व विद्वानों को जानना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि परमात्मा ने ही आदि अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को वेद के मन्त्रों के उच्चारण व अर्थ का ज्ञान भी दिया था। परमात्मा प्रत्येक सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न ऋषियों के माध्यम से इतर मनुष्यों को ज्ञान व भाषा प्रदान करता है।
परमात्मा का ज्ञान वेद है। महाभारत युद्ध व उसके काफी समय बाद तक वेद समस्त संसार का मान्य धर्म ग्रन्थ था। वेदों के आधार पर ही संसार व मनुष्यों का समस्त व्यवहार चलता था। वेदों की अन्तःसाक्षी तथा ऋषियों की मान्यताओं के अनुसार ही वेदों को परमधर्म व सभी विषयों में परम प्रमाण माना जाता था। मनुस्मृति तथा इतर वैदिक साहित्य को पढ़कर इसका ज्ञान होता है। मनुस्मृति के अनुसार समस्त वेद धर्म का मूल व आधार है। सभी मत-मतान्तरों में भी वेदों की मान्यतायें कहीं कुछ कम व कहीं अधिक देखने को मिलती है। महाभारत के बाद लोगों के आलस्य प्रमाद के कारण वेदों का अध्ययन अध्यापन अवरुद्ध होने से वेद व वैदिक मान्यतायें लुप्त होती गयीं। इसी कारण से देश देशान्तर में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए। ऐसी स्थिति में कुछ आचार्यों ने वेदों पर जो लेखन कार्य किया वह भी अनेक दोषों से युक्त था जिसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द ने अपने वचनों व लेखों में किया है। ऋषि दयानन्द ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों की वेदविषयक मान्यताओं का उल्लेख कर उनकी समीक्षा की है और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग किया है। सत्य के ग्रहण के साथ जो सत्य विस्मृत हो गया था, उसे भी खोज कर ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और इसमें वह सफल हुए हैं। ऋषि के इन प्रयासों व सफलताओं का परिणाम ही उनके सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में वेद विषयक जो ज्ञान मिलता है, वह ऋषि दयानन्द के काल व पूर्ववर्ती मनुष्य व विद्वानों को सुलभ व प्राप्त नहीं था। अतः ऋषि दयानन्द द्वारा विलुप्त वेद ज्ञान का प्रकाश करने का कार्य एक महान व प्रशंसनीय कार्य हुआ है।
वेदों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर ही मनुष्य अपने जीवन को अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर कर सकते हैं। बिना वेद ज्ञान के मनुष्य अपने कर्तव्यों का निर्धारण भी नहीं कर सकते। हम अपने प्रमुख कर्तव्य पंच-महायज्ञों को मानते हैं। इसका निर्धारण भी वेद एवं वैदिक ऋषियों के ग्रन्थों के अनुसार ही हुआ है। ऋषि दयानन्द के समय में लोग इन कर्तव्यों तथा इनकी पूर्ति की विधियों को भूल चुके थे। ऋषि दयानन्द ने अपने पुरुषार्थ तथा विवेक ज्ञान से इन कर्तव्यों को बताया और इनके आचरण व पालन की विधि भी प्रस्तुत की जिससे आज वेदों के अनुयायी इनका पालन कर सुख व सन्तोष का लाभ करते हैं। यदि ऋषि दयानन्द न आते और वेदों का परिचय व उसके सत्य वेदार्थ न बताते, वैदिक सत्य परम्पराओं को पुनः प्रचलित न करते, अन्धविश्वासों व पाखण्ड का खण्डन न करते तथा विद्या का प्रकाश न करते, तो आज हम जो सुख व सन्तोष का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, वह सम्भव न होता। इस कारण से समस्त मनुष्य समाज ऋषि दयानन्द का ऋणी है। सबको ऋषि दयानन्द की वेद विषयक मान्यताओं व सिद्धान्तों का अध्ययन कर उससे जन्म-जन्मान्तर में प्राप्त होने वाले लाभों पर विचार कर उनका आचरण कर लाभान्वित होना चाहिये। ऐसा करके ही मनुष्य जीवन धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर सफल हो सकता है। इसके विपरीत मनुष्य जीवन अल्पज्ञान, विपरीत व मिथ्या ज्ञान तथा भौतिक सुखों के भोग तक सीमित रहता है जिसका परिणाम मनुष्य जीवन में आदि-व्याधियों से होने वाले दुःखों सहित असन्तोष तथा परजन्म में भी दुःख के रूप में होता है। अतः हमें मनुष्य जीवन को समझना है, इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द के वेद विषयक विचारों, दृष्टिकोण व सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है। ऐसा करके मनुष्य जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है।
ऋषि दयानन्द के जीवन काल 1825-1883 में देश देशान्तर के लोग प्रायः वेदों व उनके सत्यस्वरूप को पूरी तरह से भूल चुके थे। वैदिक धर्म एवं सनातन धर्म दोनों एक ही धर्म ‘सत्य मानव धर्म’ के पर्याय हैं। सनातन धर्म भी वेदों से दूर जाने के कारण अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित कुरीतियों से ग्रस्त हो गया था। सभी अन्धविश्वासों व कुरीतियों को भी वेदसम्मत माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने वेदाध्ययन कर वेदों के सत्य वेदार्थ को जाना था। अतः उन्होंने अनार्ष ज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीतियों, मिथ्या परम्पराओं को दूर करने का संकल्प लिया था। वेदों की प्रमुख शिक्षा यही है कि अज्ञान को दूर कर ज्ञान का प्रकाश किया जाये। ऋषि दयानन्द ने इस गुरुतर कार्य को करते हुए जहां मौखिक प्रचार व विपक्षी विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वैदिक सत्य मान्यताओं को स्थापित व प्रचारित करने का कार्य किया, वहीं उन्होंने वेदों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित व प्रचारित करने के लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों के कारण ही विलुप्त वेदों के सत्य वेदार्थ का आंशिक रूप से प्रकाश हुआ। ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों का भाष्य करने से पूर्व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का प्रणयन किया। इस भूमिका ग्रन्थ में उन्होंने चारों वेदों में विद्यमान प्रमुख विषयों को वेदों के मन्त्रों के आधार पर ही प्रस्तुत कर उन पर प्रकाश डाला है। इस ग्रन्थ को पढ़ लेने पर वेदों के यथार्थस्वरूप बोध होता है।
ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना-सुनाना सब आर्यों व मनुष्यों का परमधर्म है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से ऋषि की इस मान्यता की पुष्टि होती है। इससे वेद सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से यह भी विदित होता है कि संसार में वेदों के विधानों को जानना व उनका आचरण करना ही धर्म तथा वेद निषिद्ध बातों का त्याग करना भी धर्म है। वेद निषिद्ध बातें अधर्म हैं। उनको कदािप नहीं करना चाहिये। वेदों में ईश्वर की मूर्ति बनाकर पूजा व उपासना का विधान न होने से मूर्तिपूजा धर्म व धर्मसम्मत नहीं है अपितु वेदविरुद्ध कर्म है। योगदर्शन के अनुसार अष्टांग योग की विधि व ऋषि दयानन्द लिखित सन्ध्या पद्धति से ईश्वर की उपासना करना ही मनुष्य का धर्म एवं प्रमुख कर्तव्य है। विदेशी विद्वान मैक्समूलर ने भी ऋषि की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ को पढ़ा था। इससे उनके वेदविषयक विचारों में परिवर्तन आया था। ऋषि के इस ग्रन्थ की प्रशंसा कर उन्होंने लिखा है कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से होता है तथा समाप्ति ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर होती है। आश्चर्य एवं दुःख की बात है कि मत-मतान्तरों में फंसी मानव जाति ने ऋषि दयानन्द के अमृत तुल्य वेद ज्ञान व सत्य मान्यताओं की अनदेखी व उपेक्षा की है और अपने मोक्ष के साधक जीवन को अवनति व ईश्वर की प्राप्ति व उसके आनन्द से दूर किया है।
ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका दोनों ही क्रान्तिकारी व मानव जीवन के परिवर्तनकारी ग्रन्थ है। इनसे ईश्वरीय ज्ञान वेदों का सत्यस्वरूप, जो ज्ञान व सुख प्रदान करने वाला है, स्पष्ट होता है। इसको जानकर व आचरण में लाकर ही मनुष्य जीवन सफल व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। सभी मनुष्यों को वेदों की शरण में आना चाहिये। वेद ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा वेद भाष्य आदि ग्रन्थों से होकर ही गुजरता है। इनकी अवहेलना कर हम सत्य व यथार्थ वेदार्थ वा वेदज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकते। बिना वेदों के ज्ञान के ईश्वर की प्राप्ति को होना भी अशक्य है। मोक्ष व जन्म व मरण के दुःखों से मुक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेदभाष्य का आश्रय लेना चाहिये। इसी से वह ईश्वर व मोक्ष प्राप्ति में आगे बढ़ सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001