-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हमारा यह संसार एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, अनादि, नित्य तथा सर्वशक्तिमान सत्ता से बना है। ईश्वर में अनन्त गुण हैं। उन्हीं गुणों में उसका सत्य, चित्त व आनन्द गुण सहित सर्वव्यापक तथा सर्वान्र्यामी होना भी सम्मिलित है। अनादि व नित्य होने से वह काल से परे है। उसका आरम्भ व अन्त नहीं है। इस कारण अपने सृष्टि रचना के शाश्वत विज्ञान से वह अनादि त्रिगुण सत्व, रज व तम वाले तत्व प्रकृति से अनादि काल से सृष्टि की रचना एवं प्रलय करता आ रहा है। सृष्टि की रचना का प्रयोजन यह है कि संसार में जीवात्मा नाम की एक अनादि व नित्य सत्ता है। यह जीवात्मा संख्या में अनन्त तथा परिमाण में व्यापक न होकर अणु परिमाण, एकदेशी एवं ससीम सत्तायें हैं। इन जीवात्माओं का ज्ञान मनुष्य योनि में जन्म लेकर अल्पज्ञता को प्राप्त रहता है।
जीवात्मा के मनुष्य योनि में पुण्य कर्म अधिक होने पर जीवात्मा को मनुष्य जन्म मिलता है तथा पुण्य कर्म कम व पाप कर्म अधिक होने पर मनुष्येतर पशु, पक्षी आदि निम्न व नीच योनियों में जन्म प्राप्त होता है। संसार में अनादि पदार्थ प्रकृति आदि का कभी नाश व अभाव नहीं होता। इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति तत्व व सत्ताओं का अस्तित्व सदा बना रहेगा और इस कारण से प्रकृति से सृष्टि का निर्माण होकर उसमें जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म सदा मिलते रहेंगे। जीवात्मा की जन्म व मरण की यात्रा मोक्ष प्राप्ति तक चलती है। जीवात्मा की अविद्या दूर होने, शुभ कर्मों की वृद्धि तथा पाप कर्मों का क्षय हो जाने पर जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। परमात्मा ने मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष निर्धारित की हुई है। इतनी अवधि तक जीवात्मायें परमात्मा के आनन्दस्वरूप व सान्निध्य में रहकर सुखों व आनन्द का भोग करते हंै। इसका वर्णन वेदों व वैदिक साहित्य के आधार पर ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में विस्तार से किया है। आत्मा व जीवन की उन्नति के इच्छुक सभी जिज्ञासुओं को सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश व मोक्ष विषयक जानकारी हेतु नवम् समुल्लास अवश्य पढ़ना चाहिये। मोक्ष की अवधि पूर्ण होने पर मोक्ष से लौटकर जीवात्मा का पुनः सृष्टि में मनुष्य योनि में जन्म होता है और वह पुनः कर्म फल बन्धनों में फंस जाता व सुख व दुःखों को प्राप्त होता है। इस प्रकार ईश्वर से निर्मित यह सृष्टि व जगत् कार्य कर रहा है और ईश्वर अपने सत्यस्वरूप, ज्ञान व बल की सामथ्र्य से इस सृष्टि की रचना, पालन व संहार का कार्य अनादि काल से करते आ रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे।
जिस ईश्वर से यह सृष्टि बनी है उसका स्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप अर्थात् सत्य, चेतन तथा आनन्द से युक्त है। ईश्वर का स्वरूप सदा से वा अनादि काल से ऐसा ही है और सदा ऐसा ही रहता है। इसमें न्यूनाधिक या ह्रास व वृद्धि आदि नहीं घटते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द तथा सर्वज्ञ अर्थात् सब कुछ जानने वाली वा पूर्णज्ञानी सत्ता है। उसे अपने लिये किसी भौतिक सुख व पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं में सत्य, सुख व आनन्द स्वरूप है। वह पूर्ण काम वा आनन्द से युक्त तथा सन्तुष्ट है। परमात्मा ने यह सृष्टि जीवों के सुख व कल्याण के लिए रची है। इसे ईश्वर का परोपकार का कर्म व कार्य कह सकते हैं। जिस प्रकार धार्मिक व धनवान मनुष्य धन का दान व परोपकार करते हैं, शक्तिशाली अन्याय पीड़ितों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार ईश्वर अपने धार्मिक व दयालु स्वभाव से जीवों के सुख व कल्याण के लिये सृष्टि की रचना व पालन आदि करते हैं। सृष्टि की रचना व पालन आदि कार्यों से ईश्वर के आनन्द में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आती। वह अपने स्वभाविक स्वरूप से बिना किसी विकार, दुःख व तनाव आदि को प्राप्त हुए सृष्टि का संचालन करते हैं। इसी कारण से ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप कहा जाता है। जीवात्मा व मनुष्य को ईश्वर के उपकारों का चिन्तन करते हुए ईश्वर के सच्चिदानन्दस्वरूप का ही ध्यान करना होता है जिससे जीवों के सभी क्लेश दूर हो जाते हैं। ईश्वर की उपासना का उद्देश्य व लाभ भी ईश्वर का ध्यान कर शक्तिशाली होना तथा ज्ञान से युक्त तथा दुःख व दुव्र्यसनों से मुक्त होना होता है। अतः सभी मनुष्यों को संसार में विद्यमान ईश्वर की एकमात्र सत्ता को जानना चाहिये और उसकी योग विधि से धारणा व ध्यान द्वारा उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने सहित अपने सभी दुःखों, क्लेशों, अज्ञान व निर्बलताओं को दूर करना चाहिये।
ईश्वर का एक मुख्य गुण उसका सर्वव्यापक होना है। सर्वव्यापक का अर्थ है कि ईश्वर इस अखिल ब्रह्माण्ड में सब स्थानों पर विद्यमान है। वह जन्म, अवधि व परिमाण की दृष्टि से अनादि व अनन्त होने सहित अनन्त आकार वाला है और सर्वत्र एकरस, एक समान, अखण्ड तथा सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक होने के कारण ही वह इस विशाल ब्रह्माण्ड की रचना करने में सफल होता है। यदि वह सर्वव्यापक न होता तो इस अनन्त परिमाण से युक्त ब्रह्माण्ड की रचना कदापि सम्भव नहीं होती। इतने विशाल व सामथ्र्यवान परमात्मा की इसी कारण हम स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हैं। वह सभी जीवों का समान रूप से उपासनीय है। सभी को वेदों का अध्ययन कर उसको यथार्थ स्वरूप में जानकर उसकी स्तुति व प्रार्थना सहित उपासना नित्य प्रति करनी चाहिये।
ईश्वर सर्वान्तर्यामी सत्ता है। सर्वान्तर्यामी का अर्थ है कि वह सबसे सूक्ष्म है और संसार के सभी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के भीतर व बाहर समान रूप से विद्यमान व व्यापक है। वह हमारी आत्मा के भीतर व बाहर भी विद्यमान व व्यापक है। सर्वान्तर्यामी होने के कारण ही वह जीव के भीतर भी विद्यमान रहता है और उसके विचारों व कर्मों को जितना जीव जानता है उतना व उससे अधिक पूर्णता से परमात्मा भी जानता है। इस ज्ञान के द्वारा ही परमात्मा सभी जीवों के सभी कर्मों का जो उसने प्रकट व अप्रकट रूप में किए होते हैं, दण्ड देता है। कोई जीव अपने शुभ व अशुभ कर्मों का फल सुख व दुःख भोगे बिना बचता नहीं है। इस कारण कि जीव को कभी कोई दुःख न हो और वह सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाये, ईश्वर की भक्ति व उपासना सहित सद्कर्म करना आवश्यक होता है। वैदिक दर्शन की नींव ईश्वर, जीव व प्रकृति के अस्तित्व तथा जीवों के सद् असद् कर्मों सहित उसको सुख व दुःख प्राप्त होने तथा विद्या व पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति होने के सिद्धान्त पर टिकी हुई है। विचार व परीक्षा करने पर यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध होते हैं। हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी स्वरूप को यथार्थरूप में जानना चाहिये और इस ज्ञान को बढ़ाकर ईश्वर की उपासना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न करने चाहिये। यही सभी जीवात्माओं के लिए करणीय एवं प्राप्तव्य हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य