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_-राजेश बैरागी-_

मैं स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन के इस विचार से सहमत हूं कि संविदा खेती से संबंधित ‘किसान(सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा समझौता विधेयक,2020′, द्वारा प्रस्तावित विवाद समाधान तंत्र किसानों के लिए बहुत जटिल है।वे कहते हैं,-इसके लिए उपभोक्ता अदालतों की तर्ज पर किसान अदालतों की स्थापना इस समस्या का समाधान होगा।’ तीन सप्ताह से केंद्रीय सत्ता के दरवाजे पर बैठे किसानों को अंततः क्या हासिल हो सकता है?आज के समाचार पत्रों में खबर है कि नेपाल में गन्ना किसानों ने काठमांडू को घेरा हुआ है।

वहां की चीनी मिलों पर किसानों का नब्बे करोड़ रुपए बकाया है। गृहमंत्री राम बहादुर थापा ने एक बार फिर अधिकारियों को मिल प्रबंधकों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया है परंतु किसानों को इस आदेश पर कोई भरोसा नहीं है। दरअसल वहां की सरकार चीनी मिलों के हवाले से किसानों का केवल साठ करोड़ रुपए बकाया बता रही है। वहां की सरकार भी आंदोलन करने वालों को बिचौलिया करार दे रही है। गौरतलब है कि नेपाल में कम्यूनिस्टों की सरकार है। भारत में हिंदूवादी, सांप्रदायिक और पूंजीपतियों का हित सर्वोपरि रखने वाली भाजपा की सरकार है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के आंदोलन के अधिकार की रक्षा करते हुए आदेश दिया है कि अन्य नागरिकों को नुकसान पहुंचाये बगैर आंदोलन जारी रह सकता है। ऐसा आंदोलन कैसे हो सकता है और किसे प्रभावित कर सकता है।सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति बनाने को कहा है जिसमें किसान और सरकार के अलावा कृषि विशेषज्ञ भी शामिल हों। क्या इससे कोई रास्ता निकल सकता है? सरकार के सशक्तिकरण से अदालतों की विवेकाधीन सक्रियता खत्म हो चुकी है। अब अदालत समझौता पंचायत जैसे फैसले देती हैं। इससे भली तो खाप पंचायत हैं जो फैसला भी देती हैं और अपने फैसलों को लागू भी कराती हैं।

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