सूफी परंपरा ने हमें पराजित घोषित कराया
प्रसिद्घ दार्शनिक सुकरात को शीशा देखने का बड़ा चाव था। नित्य की भांति वह उस दिन भी शीशा देख रहे थे, तो उन्हें शीशा देखते हुए उनके एक शिष्य ने देख लिया। शिष्य अपने कुरूप गुरू को शीशा देखते हुए देखकर मुस्कराने लगा। उसकी मुस्कुराहट ने दार्शनिक सुकरात को समझा दिया कि वह क्यों हंस रहा है? तब गंभीर हुए सुकरात ने शिष्य से कहा-वत्स! मैं तुम्हारी मुस्कुराहट का कारण जानता हूं कि तुम मुझे देखकर क्यों हंसे?
शिष्य अपनी चोरी पकड़े जाने पर इससे पूर्व कि कोई असत्य बात कहता, गुरूजी ने अपना वक्तव्य निरंतर जारी रखा। वह आगे कहने लगे-तुम सोचते हो कि गुरूजी कुरूप हैं, इसलिए उन्हें शीशा देखने की क्या आवश्यकता है? जबकि मैं शीशा इसलिए देखता हूं कि मुझे अपनी कुरूपता का नित्य प्रति बोध होता रहे और मैं अपनी कुरूपता को छुपाने के लिए नित्य प्रति अच्छे कार्य करता रहूं। सुकरात ने आगे कहा-मैं यह नही कहता कि जो लोग सुंदर हैं, उन्हें शीशा नही देखना चाहिए। मेरा मानना है कि शीशा उन्हें भी देखना चाहिए और शीशे में अपनी सुंदरता को देखकर उन्हें और भी सुंदर कार्य करने के लिए कृत संकल्प होना चाहिए। जिससे कि उनकी सुंदरता उनके लिए सार्थक हो सके।
शिष्य पूर्णत: मौन खड़ा था , उसे अपनी शंका का समाधान ही नही मिल गया था, अपितु साथ ही साथ शीशे का सार्थक प्रयोग करने का गुरू भी मिल गया था।
सार्थक इतिहास बोध
हमारा मानना है कि इतिहास भी हमारे लिए एक शीशा है, जिसे हर व्यक्ति को देखना चाहिए, पढऩा चाहिए। क्योंकि इतिहास हमारी कुरूपता का और सुंदरता का सुंदर समन्वय स्थापित करता है। यदि हमने अतीत में कुछ भूलें की हैं तो उन्हें वर्तमान में सुधारने का अवसर देता है और यदि अतीत में अच्छाईयों या आदर्शों के कीर्तिमान स्थापित किये हैं तो उन्हें पुन:-पुन: दोहराने का अवसर उपलब्ध कराता है।
हम अपने कुरूपित चेहरे को शीशे में देखकर उसे फेंके नही, और ना ही उसकी उपेक्षा करें, अपितु अपने आपको संवारें, सुधारें और संभालें। स्वयं को संवारना, सुधारना या संभालना महापुरूषों का कार्य होता है। जनसाधारण के वश में अपने भीतर सुधार का यह सतत प्रवाह चलाये रखना संभव नही होता। वह कहीं ना कहीं भटक जाता है या अटक जाता है। इसी प्रकार यदि हम सुंदर हैं तो हमें गर्व से फूलकर कुप्पा नही हो जाना चाहिए। ऐसी समावस्था का नाम ही इतिहास का वास्तविक बोध हो जाना है।
इतिहास बोध के लिए केवल आत्मप्रशंसा उचित नही है, यह भी उतनी ही घातक है जितनी कि आत्म प्रवंचना। इतिहास के वास्तविक बोध के लिए उचित है -इतिहास का तथ्यात्मक विवेचन और घटनाओं का तथ्यात्मक विश्लेषण किया जाना।
मुस्लिम धर्मांतरण पर हो इतिहास की समीक्षा
भारत में मुस्लिमों की पर्याप्त संख्या है और इनके विषय में यह भी सर्वविदित है कि इनमें से अधिकांश भारत की हिंदू जनसंख्या में से बलात धर्मांतरित किये गये लोग हैं। अत: इस बलात धर्मांतरित मुस्लिम जनसंख्या के विषय में इतिहास को समीक्षित करने की आवश्यकता है कि इस वीर परंपरा के पुजारी देश में मुस्लिमों की इतनी बड़ी संख्या क्यों है?
जब हम इस प्रश्न का उत्तर खोजते हैं तो ज्ञात होता है कि भारत में मुस्लिमों की अधिकांश धर्मांतरित जनसंख्या को मुस्लिम बनाने में तलवार से अधिक सूफी संतों के छद्मी वेश ने अधिक भूमिका निभाई। आज हमें जहां जहां सूफी संतों की मजारें या पीर आदि की मजारें मिलती हैं उन सबके पीछे भी भारत के बहुत से वीरों के बलिदानों की आंसू भरी परंतु वीरतापूर्ण कहानियां छिपी हैं। इसे काल का निर्मम प्रवाह कहिए या हमारी इतिहास बोध के प्रति असावधानी कहिए कि जो हमारे शत्रु थे, या जो कभी हमारे विनाश का कारण बन रहे थे, हम आज उन्हीं की पूजा कर रहे हैं। इतिहास के शीशे में हमने अपना चेहरा देखने में भूल की है।
सूफी संतों का पाखण्ड
जब मुस्लिम सुल्तानों और आक्रामकों ने देखा कि भारत के लोग सीधे-सीधे युद्घ क्षेत्र में पराजित होकर तो मुस्लिम बनते नही, तो उस समय उन्होंने भारतीयों को पाखण्ड, अंध -विश्वास और धार्मिक रूप से छल कर मुस्लिम बनाने का नाटक सूफी संतों के माध्यम से कराना आरंभ किया। उनका यह प्रयोग असफल नही रहा, बल्कि सफल रहा। सूफी संतों ने भारत की धर्मभीरू जनता को अपने दांव में फंसाना आरंभ कर दिया।
इन सूफियों में बहराइच का शहीद सलार महमूद गाजी का नाम भी सम्मिलित है। यह सुल्तान महमूद गजनवी की बहन का लड़का था। पुरूषोत्तम जी की पुस्तक ‘भारत के इस्लामीकरण के चार चरण’ से हमें ज्ञात हेाता है कि इसी महमूद गाजी ने ही गजनवी को सोमनाथ का मंदिर तोडऩे के लिए प्रेरित किया था।
पुरूषोत्तम जी लिखते हैं-”जिस मार्ग से चलकर यह (गाजी) पंजाब से बहराइच पहुंचे उस मार्ग पर आज हजारों मजारें उनके उन साथियों की हैं, जो हिंदुओं से युद्घ करते हुए उस स्थान पर मारे गये। उन सबके नाम के साथ गाजी, शहीद, पीर अथवा बाबा आदरसूचक शब्द जोड़ दिये गये। गाजी अर्थात काफिर का वध करने वाला। शहीद अर्थात काफिर के हाथ से धर्मयुद्घ में मारा जाने वाला। पीर अर्थात चमत्कारिक गुरू। बाबा अर्थात साधु फकीर या आदरणीय गुरू। बहुत बाद में अंग्रेजी काल में यह शब्द उन लोगों के नाम के साथ भी जोड़ दिये गये जिन्हें साम्प्रदायिक दंगों अथवा हिंदुओं के वध के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया।’’
सैय्यद अथ्थर अब्बास अली की पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ सूफीज्म इन इंडिया’ व पी.एम. करी साहब की पुस्तक ‘श्राइन एण्ड कल्ट ऑफ मोईनुद्दीन चिश्ती ऑफ अजमेर’ जैसी कई पुस्तकों से संदर्भ ग्रहण कर पुरूषोत्तम जी ने उक्त पुस्तक लिखी। इन तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि विदेशी आक्रांताओं ने प्रारंभ से ही भारत के धर्मांतरण के लिए छल-छद्म और पाखण्ड का आश्रय लिया पर एक बात यहां भी ध्यातव्य है कि हर छल, छद्म और पाखण्ड के पीछे भी हमारे बलिदानी पूर्वजों के बहुत से बलिदानों की गाथा छिपी पड़ी है। बताया जाता है कि कलकत्ता से अमृतसर तक जी.टी. रोड पर लगभग दस हजार नौ गजा पीर स्थापित हंै। इन पीरों की कहानी ये है कि ऐसा प्रत्येक पीर किसी ऐसे मुस्लिम की मजार है जिसने अपने समय में सैकड़ों हजारों हिंदुओं का वध किया था। यह अत्यंत दुख का विषय है कि आज ऐसे पीर ही हिंदुओं के लिए पूज्यनीय हो गये हैं। स्वयं सैय्यद अथर अब्बास रिजवी बहराइच के शहीद सलार मसूद गाजी की दरगाह के बारे में लिखते हैं-”उसकी मजार पर जाकर उसकी पूजा करने वाले लाखों हिंदुओं के लिए यह बिल्कुल महत्वपूर्ण नही है, कि उसने उनके कितने पूर्वजों का वध किया था।’’
यदि उन हिंदुओं की संख्या को खोजा जाये जिन्होंने राष्ट्र और धर्म के लिए उस समय अपना बलिदान दिया, तो निश्चित रूप से ऐसी संख्या लाखों में होगी।
भारतीयों के अंधविश्वास
भारत में उस समय हिंदू समाज में मूर्ति पूजा और धार्मिक पाखण्ड वाद का प्रचलन बड़ी शीघ्रता से फैल रहा था। ऐसा लोगों के अपने मूल वेदधर्म से विपरीत दिशा में चले जाने के कारण हो रहा था। अज्ञानता और अविद्या का प्राबल्य उस समय के हिंदू समाज को अपने शिकंजे में जकड़ रहा था। नये-नये आविष्कार पूजा पद्घतियों को लेकर हो रहे थे। इसलिए विदेशी सूफियों ने भी भारत की जनता की इस दुर्बलता का लाभ उठाना ही श्रेयस्कर समझा। फलस्वरूप उन्होंने जड़ पूजा के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषी भारत की हिंदू जनता से पीर पुजवाने आरंभ कर दिये।
इसका अभिप्राय था कि कड़वी गोली को रोटी के बीच में रखकर देने की प्रक्रिया इन सूफी संतों ने अपनानी आरंभ कर दी। यह भी एक सत्य है कि भारत में गण्डे, ताबीज, कान में फूंक मारना या जिन्न आदि को भगाने के लिए किये जाने धार्मिक पाखण्ड भी मुस्लिम सूफी संतों की देन हंै। कहने का अभिप्राय है कि जो लोग सहजता से मुस्लिम बन गये वो तो बन ही गये जो नही बने उनको और उनके धर्म को पतित करने का प्रबंध भी इन सूफी संतों ने किया।
इसके उपरांत भी हम आज तक भारत की एक काल्पनिक ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ का गुणगान करते आ रहे हैं। इस गुणगान में हमारे लाखों हिंदू वीर बलिदानियों के बलिदानों को या तो दबा दिया गया या उन्हें उठाकर उपेक्षा के गहन गहवर में डाल दिया गया। बलिदानी इतिहास को खोजने का प्रयास ही नही किया गया। इतिहास के प्रचलित झूठों को पूजित करने के लिए हम पर अनुचित दबाव डाला गया। हमने वेद धर्म को विस्मृत किया और अविद्या व अज्ञानग्रस्त होकर जड़ पूजा में अपनी बुद्घि को भटकाया तो परिणाम ये निकला कि वृहत्तर भारत दिन-प्रतिदिन क्षीण होने लगा। पुरूषोत्तम जी लिखते हैं-”इस्लाम का थोड़ा भी अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह सब लोग जो कहते हैं वह इस्लाम के स्वाभाविक चरित्र के अनुसार ही कहते हैं। 1250 वर्ष पहले अफगानिस्तान 100 प्रतिशत हिंदू था, काफिरिस्तान मूर्ति पूजक था। 800 वर्ष पहले मलाया, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, आदि पूर्वी द्वीप समूह 100 प्रतिशत बौद्घ और हिंदू थे। यह सभी देश जो वृहत्तर भारत के अंग थे, आज मुस्लिम देश हैं। 900 वर्ष पहले पश्चिमी पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान, काश्मीर, पूर्वी बंगाल, सौ प्रतिशत हिंदू और बौद्घ थे, वह धीरे-धीरे मुस्लिम बहुल हो गये।’’
पीर परंपरा रही देश के लिए घातक
आज विचारणीय बात ये है कि भारत की संस्कृति और अतीत के वैभव को बनाये रखने के लिए जिन लोगों ने अपने बलिदान किये, हम उनके बलिदानों का महत्व समझें। क्योंकि अपने बलिदानियों को भूलकर और अपने अतीत को भुलाकर हम आज भी पीर-पूजा में लगे हुए हैं। उस दिशा में कोई कार्य ही नही हो रहा है जिधर होना चाहिए। ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ की काल्पनिक अवधारणा को पुष्ट करने के लिए हम अंधेरी गुफा में भटक रहे हैं, और वो हमारा आज भी धर्मांतरण कर हमारे संख्या बल को निरंतर घटाते जा रहे हैं। लगता है इतिहास से हमने कोई शिक्षा नही ली है। सूफी परंपरा के कथित संतों की पूजा परंपरा जितनी ही अधिक बढ़ रही है। उतनी ही ये गुत्थी उलझती जा रही है और हमें कोई उचित समाधान खोजने से भी नही मिल पा रहा है।
सचमुच इतिहास के शीशे में हमें अपना चेहरा नित्यप्रति देखना चाहिए। यदि हम कुरूप हैं तो अपने कार्यों को उत्कृष्टता दें और यदि सुंदर हैं तो कार्यों की उत्कृष्टता को नैरन्तर्य प्रदान करें।
हमने यहां केवल बहराइच के गाजी पीर की बात ही की है, जबकि ऐसे पीर तो देश में हजारों हैं, उनके द्वारा भारतीय संस्कृति के विकृतीकरण की जिस परंपरा का प्रचलन भारत में किया गया वह हमारे लिए घातक रही है। इस परपंरा ने हमारा बलिदानी इतिहास हमारी दृष्टि से ओझल करा दिया और जिस उद्देश्य के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना बलिदान दिया था, वह उद्देश्य भी हमारी दृष्टि से चमत्कारिक ढंग से हटा दिया। संभवत: इसीलिए हमें जीत के उपरांत भी पराजित घोषित करा दिया गया।