डॉ. रमेश ठाकुर
विजय दिवस यानी 16 दिसंबर को हम जितना खुशी से मनाते हैं, पाकिस्तान उतना ही दुखी होता है। इस दिन को वह अपने लिए कलंक मानता है। गद्दारी से जोड़कर देखता है। गद्दारी किसी और ने नहीं, बल्कि उनकी सेना ने ही की। भारत-पाकिस्तान के बीच जब लड़ाई हो रही थी।
करीब 49 वर्ष पहले, 16 दिसंबर 1971 की सुबह बहुत यादगार होने वाली थी, क्योंकि समूची दुनिया उसके बाद भारतीय सैन्य शक्ति, बहादुरी और पराक्रम की साक्षी बनने वाली थी। कमोबेश, हुआ भी कुछ वैसा ही। उस दिन के बाद हमारी सेना के प्रति दुनिया का नज़रिया बदला। एक मर्तबा हमें शिकस्त देने वाले देश चीन ने भी दोबारा हमसे लड़ने की हिमाकत नहीं की। हिंदुस्तान की मिट्टी सदैव योद्धाओं से सजी रही और ये सजावट बढ़ती ही रही। आज भारत की सेना समूची दुनिया में तकरीबन दूसरी बड़ी सैन्य शक्ति में शुमार है। भारतीय धरती की रक्षा के लिए अपने जीवन की बाजी लगाने वाले मत वालों की कमी नहीं। प्रत्येक देशवासी अपनी मातृभूमि से बेपनाह मोहब्बत करते हैं। आपस में लोग या सियासी पार्टियों के नेता कितने ही क्यों न लड़ें-भिड़ें, पर जब बात राष्ट्रहित की हो तो सभी एक हो जाते हैं। यही सामूहिक एकता हमें एक धागे में बांधे रहती है जिसे न सिर्फ पड़ोसी मुल्क, बल्कि पूरा संसार भलीभांति समझता है।
हिंदुस्तान में 16 दिसम्बर को विजय पर्व या विजय दिवस के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन हमारी फौज ने पाकिस्तान की सेना के दाँत खट्टे किए थे। उनके 93,000 सैनिकों को मजबूरन नतमस्तक आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया था। दरअसल, हम भारतवासी बहुत उदारवादी लोग हैं इसलिए उन्हें माफ कर दिया था। आत्मसमर्पण करने वाले किसी पाकिस्तानी सैनिक को नुकसान नहीं पहुंचाया, सकुशल वापस जाने दिया। उसके बाद हमारे ही रहमोकरम पर पूर्वी पाकिस्तान जो वर्षों से गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था, वह आजाद हुआ, जो बाद में बांग्लादेश के नाम से अलग स्वतंत्र देश बना। बांग्लादेश तब से लेकर आज तक खुले मंच पर भारत का गुणगान करता है। एहसानमंद है ये कहना नहीं भूलता।
हाल के दिनों में चीन ने भारत के खिलाफ भड़काने की तमाम कोशिशें कीं, लेकिन सभी नाकाम हुईं, बांग्लादेश किसी के बहकावे में नहीं आया। वह आज भी भारत के साथ खूंटा गाड़े खड़ा है। पाकिस्तान और चीन ने हमसे उलझने के प्रयास तो बहुतेरे किए, पर अंततोगत्वा सफलता नहीं मिली। बांग्लादेश को पता है जो फायदा उन्हें भारत के साथ मित्रता करके हो सकता है, वह चीन-पाकिस्तान से नहीं। उनके छल-कपट से वह पूरी तरह वाक़िफ़ है। बांग्लादेश को पता खुदा-न-खास्ता कभी ये दोनों देश उन पर अटैक करते भी हैं तो भारत ही उनका साथ देगा। क्योंकि भारत की सेना योद्धाओं से भरी है।
विजय दिवस यानी 16 दिसंबर को हम जितना खुशी से मनाते हैं, पाकिस्तान उतना ही दुखी होता है। इस दिन को वह अपने लिए कलंक मानता है। गद्दारी से जोड़कर देखता है। गद्दारी किसी और ने नहीं, बल्कि उनकी सेना ने ही की। भारत-पाकिस्तान के बीच जब लड़ाई हो रही थी। पाकिस्तान की सेना हारकर हताश होने लगी, तो उन्होंने तय किया कि मरने से बेहतर होगा सरेंडर कर दिया जाए। तत्पश्चात 15 दिसंबर 1971 की आधी रात को उनके लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने भारतीय फौज के सामने खुद के सरेंडर करने का आग्रह किया। भारत तो पहले से ही युद्ध नहीं चाहता था। सरकार ने तुरंत युद्धविराम का आदेश फौज को दिया। उसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी बलों के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एके नियाजी ने भारत के पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने 93,000 सैनिकों के साथ हथियार डाल दिए। भारत ने कुछ समय के लिए उनके सभी सैनिकों को युद्धबंदी बनाकर छोड़ दिया।
सरेंडर करने के बाद जनरल एएके नियाजी का रहना पाकिस्तान में दूभर हो गया। हर तरह की यातनाएँ उनको और उनके परिवार को दी जाने लगीं। उस वक्त पाकिस्तान में जो भी व्यक्ति अपने नाम के आगे नियाजी लगाता था, उसे गद्दार की कौम कहा जाता था। नियाजी बिरादरी के लोग इस कदर भयभीत हुए, उन्होंने नियाजी लगाना ही बंद कर दिया। इस शब्द को पाकिस्तान ने गाली की संज्ञा दे दी। हालांकि मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान खान भी इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो आज भी 1971 का दंश झेलते हैं। 1971 का संघर्ष विराम एक ऐसा अध्याय था जिसके बाद भारतीय सैना नए तेवर के साथ उभरी, सेना की ताकत नए रूप में रेखांकित हुई। दुनिया ने देखा कि जब ये सेना किसी देश को घुटने पर टिका सकती है तो कुछ भी कर सकती है।
बेशक, उसके बाद सन् 99 में पाक ने दोबारा हमसे उलझने की कोशिश की, लेकिन उसका भी नतीजा उसे भुगतना पड़ा। हालांकि पाकिस्तान ऐसा मुल्क है जो कभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला। कुछ न कुछ ख़ुराफ़ात करता ही रहता है, बावजूद इसके हर बार मुंह की खाता है। 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद, दो पड़ोसी मुल्कों की सेनाओं में प्रत्यक्ष सशस्त्र से संघर्ष लंबी अवधि तक हुआ, सियाचिन ग्लेशियर को नियंत्रित करने के लिए दोनों देशों के प्रयासों के बावजूद आसपास के पहाड़ों पर सैन्य चौकियां बनाई गईं ताकि आगे कोई तनातनी न हो। लेकिन सैन्य झगड़े फिर भी नहीं रूके, कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियाँ बढ़ती ही रहीं। माहौल अब भी तनावपूर्ण है। स्थिति को कम करने के प्रयास में दोनों देशों ने फरवरी 1999 में लाहौर घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए और कश्मीर संघर्ष के शांतिपूर्ण और द्विपक्षीय समाधान प्रदान करने का वादा किया। लेकिन आज भी जो स्थिति है उसे सब देख ही रहे हैं।
बहरहाल, भारत ने हमेशा पाकिस्तान का मान रखा, जैसा उसने कहा, भारतीय हुक़ूमत ने किया। लेकिन उसका नतीजा धोखा ही रहा। पाकिस्तान को विजय दिवस की तारीख 16 दिसंबर 1971 को स्मरण करना चाहिए। एक बार फिर से पूर्व की तरह नतमस्तक होकर भारत से माफी मांग लेनी चाहिए और भारत के लिए चीन की साथ रचने वाली नापाक साजिशों से तौबा करके अपने हित में सोचना चाहिए। वरना अंजाम फिर 1971 और 1999 जैसा ही होगा। इस बार फिर कहीं ऐसा न हो, नियाजी की तरह लोग ‘खान’ शब्द से भी ऐतराज करने लगें। बहरहाल, विजय दिवस हमारे लिए मीठे शरबत जैसा है, जिसकी मिठास हम भारतीयों में कभी कम नहीं होनी चाहिए। अपने मातृभूमि की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए।