लोकतांत्रिक आचार विचार से दूर हिंसाचार में भटकती बंगाल की राजनीति

प्रमोद भार्गव
पश्चिम बंगाल में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमला, राजनीतिक हिंसा की पराकाष्ठा है। हालांकि बंगाल में चुनावों के पहले ऐसी घटनाएं पहले भी देखने में आती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ माह से ये घटनाएं निरंतर घट रही हैं। बावजूद राज्य सरकार इन घटनाओं पर नियंत्रण के कोई ठोस उपाय करने की बजाय आग में घी डालने का काम कर रही है। केंद्र सरकार ने कानून व्यवस्था को लेकर राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को दिल्ली तलब करने की तारीख 14 दिसंबर तय की तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कह दिया कि ‘इन अधिकारियों को भेजना या नहीं भेजना राज्य सरकार के विवके पर निर्भर है। सरकार के फैसले के बिना वे प्रदेश के बाहर कदम नहीं रख सकते हैं।’

इस असंवैधानिक स्थिति पर राज्यपाल जगदीप धनखड़ का कहना है कि ‘भारत के संविधान की रक्षा करना मेरी जिम्मेदारी है। यदि मुख्यमंत्री अपने रास्ते से भटकेंगी तो मेरी भूमिका शुरू हो जाएगी। मुख्यमंत्री को आग से नहीं खेलना चाहिए।’ दरअसल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत ही दोनों अधिकारियों को तलब किया है लेकिन ममता ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर केंद्र से बेवजह टकराव मोल ले लिया है।
पश्चिम बंगाल में यह असहिष्णुता पंचायत, निकाय, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में स्थाई चरित्र के रूप में मौजूद रही है। विडंबना यह है कि हिंसा और अराजकता के लिए बदनाम बिहार और उप्र जब इस स्थिति से मुक्त हो रहे हैं, बंगाल और केरल में यह हिंसा बेलगाम होकर सांप्रदायिक रूप में दिखाई दे रही है। चूंकि नए साल की शुरुआत में बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं, इस नजरिए से मुख्य राजनीतिक दलों में जनता के बीच समर्थन जुटाने की होड़ लग गई है। भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर हुआ हमला इसी होड़ का परिचायक है। यह हिंसा तब हुई, जब जेपी नड्डा को जेड स्तर की सुरक्षा मिली हुई है। इसे उच्चतम सुरक्षा-कवच के रूप में देखा जाता है। फिर भी इसे भेदने की निंदनीय कोशिशें हुईं तो यह चिंतनीय पहलू है। पूर्व घोषित कार्यक्रम के बावजूद सुरक्षा व्यवस्था और राज्यस्तरीय गुप्तचर एजेंसियां हमले को नहीं रोक पाई तो यह एक बड़ी चूक है। कुछ समय पहले ही भाजपा विधायक देवेंद्रनाथ की हत्या कर लाश सार्वजनिक स्थल पर टांग दी गई थी। देवेंद्रनाथ पिछले साल ही माकपा से भाजपा में शामिल हुए थे। बंगाल में वामदल अर्से से खूनी हिंसा के पर्याय बने हुए हैं।
बंगाल की राजनीति में विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएं होती रही हैं। वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही थीं। दरअसल वामपंथी विचारधारा विरोधी विचार को तरजीह देने की बजाय उसे जड़ मूल खत्म करने में विश्वास रखती हैं। ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा। लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस वामदलों के नए संस्करण में बदलती चली गई। यही कारण रहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व भी बंगाल को रक्त से सींचने की कवायदें पेश आती रही थीं। भाजपा में वामदलों से लेकर कांग्रेस और तृणमूल के नेताओं के जाने का जो सिलसिला चल पड़ा है, वह थम जाए, इसीलिए प्रत्येक चार-छह दिनों में बड़ी राजनैतिक हत्या बंगाल में देखने का सिलसिला बना हुआ है।
हिंसा की इस राजनीतिक संस्कृति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादात के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। लंबे समय तक चले इस आंदोलन को क्रूरता के साथ कुचला गया। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए। इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया। आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में मार्क्सवादियों का शासन रहा। इस दौरान सियासी हिंसा का दौर चलता रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनेताओं की हत्याएं हुईं।
सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें टाटा को दीं तो इस जमीन पर अपने हक के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता बनर्जी आ खड़ी हुईं। मामता कांग्रेस की पाठशाला में ही पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस दौरान उनपर कई जानलेवा हमले हुए लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001 से लेकर 2010 तक 256 लोग सियासी हिंसा में मारे गए। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए और ममता ने वाममोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी। इस साल भी 38 लोग मारे गए। ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी राजनीतिक हत्याओं का दौर बरकरार रहा। इस दौर में 58 लोग मौत के घाट उतारे गए।
बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई भाजपा ने ममता के वजूद को संकट में डाल दिया है। बंगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90 फीसदी तृणमूल के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोटबैंक मानते हुए ममता ने अपनी ताकत मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में खर्च दी। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाने का संदेश भी छिपा था। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रया हिंदुओं में स्व-स्फूर्त ध्रुवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए, एनआरसी के लागू होने के बाद भाजपा को वजूद के लिए खतरा मानकर चल रहे हैं, नतीजतन बंगाल के चुनाव में हिंसा का उबाल आया हुआ है। इस कारण बंगाल में जो हिंदी भाषी समाज है वह भी भाजपा की तरफ झुका दिखाई दे रहा है। हैरानी इस बात पर भी है कि जिस ममता ने ‘मां, माटी और मानुष एवं परिवर्तन’ का नारा देकर वामपंथियों के कुशासन और अराजकता को चुनौती दी थी वही ममता इसी ढंग की भाजपा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बौखला गई हैं। उनके बौखलाने का एक कारण यह भी है कि 2011-2016 में उनके सत्ता परिवर्तन के नारे के साथ जो वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता आ खड़े हुए थे वे भविष्य की राजनीतिक दिशा भांपकर भाजपा का रुख कर रहे हैं।
2011 के विधानसभा चुनाव में जब बंगाल में हिंसा का नंगा नाच हो रहा था, ममता ने अपने कार्यकताओं को विवेक न खोने की सलाह देते हुए नारा दिया था, ‘बदला नहीं, बदलाव चाहिए।’ लेकिन बदलाव के ऐसे ही कथन अब ममता को असामाजिक व अराजक लग रहे हैं। ममता को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में आत्ममंथन की जरूरत है कि बंगाल में ही हिंसा परवान क्यों चढ़ी? जबकि ऐसी हिंसा देश के अन्य किसी भी राज्य में दिखाई नहीं दे रही है। अतएव ममता को लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को ठेंगा दिखाने से बचना चाहिए।

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