अब तक के सभी चुनावों में 1980 में संपन्न हुए चुनावों के समय मुस्लिम सांसदों की संख्या सबसे अधिक रही है, जब 49 मुस्लिम सांसद लोकसभा में पहुंचने में सफल हो गये। जबकि 1952 में पहली बार संपन्न हुए चुनावों में 21 और 1962 में संपन्न् हुए चुनावों के समय मुस्लिम सांसदों की संख्या 23 थी।
जो लोग इसी समुदाय की आबादी के आधार पर ही संसद में या विधानमंडलों में उस समु्रदाय के जनप्रतिनिधियों की संख्या का निर्धारण करते हैं, वो ये भूल जाते हैं कि इस समय देश में सांप्रदायिक आधार पर या सांप्रदायिक संख्या बल के आधार पर देश की जनता को अपना जनप्रतिनिधि भेजने का अधिकार नही हैं। आज जिस चुनावी प्रक्रिया के अंतर्गत सांसद या विधायक चुने जाते हैं, उसके अनुसार जो व्यक्ति चुनाव में खड़े प्रत्याशियों के मुकाबले सबसे अधिक मत ले जाता है, वही उस क्षेत्र का जनप्रतिनिधि बन जाता है। साम्प्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय, अथवा भाषाई आधार पर अब इस देश में अपने जनप्रतिनिधि भेजना पूर्णत: निषिद्घ है। हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसा प्रावधान इसलिए किया कि लोगों के भीतर साम्प्रदायिक विद्घेष के भाव को समाप्त किया जा सके, और सुयोग्यतम व्यक्ति को देश की जनता अपना प्रतिनिधि बनाकर विधानमंडलों में भेज सके।
कुछ लोग माथापच्ची करते रहते हैं कि देश में 35, 36 ऐसी लोकसभाई सीटें हैं जहां मुस्लिम मतदाता एक तिहाई से अधिक हैं, इसी प्रकार 38 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मत 21 से 30 फीसदी हैं, जबकि 145 सीटें ऐसी हैं, जहां पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 11 से 20 प्रतिशत है। इसलिए इस गुणा भाग को करने वाले लोगों का मानना है कि देश की लगभग 220 लोकसभाई सीटों को प्रभावित करने की क्षमता मुस्लिम मतदाताओं के पास है।
ऐसे गुणा भाग करने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि मतदाताओं को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करना नैतिक और वैधानिक दोनेां ढंग से ही एक अपराध है। लोगों को उनका स्वतंत्र चिंतन करने दिया जाना चाहिए। इसी से लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं, और हम सुयोग्यतम व्यक्ति को अपना जनप्रतिनिधि बनाने के अपने संवैधानिक अधिकार के प्रति अधिक संवेदनशील और जिम्मेदार हो सकते हैं।
मुस्लिम मतों का धु्रवीकरण कराने और उन्हें भेड बकरियों की तरह एक लीक में चलने के लिए या एक दिशा में आगे बढऩे के लिए मजबूर करना उचित नही है। जबकि स्वतंत्र भारत में मुस्लिम मतों के प्रति राजनीतिक दलों ने इसी प्रकार का रवैया अपनाया है। हाल ही संपन्न हुए चुनावों के समय मुस्लिम मतों के ठेकेदारों ने अधिकतर मुस्लिम मतदाताओं को मोदी का भय दिखाकर केवल मोदी विरोध में मत डालने के लिए मजबूर किया है। उनकी इस मोदी विरोधी मानसिकता से बहुत सी सीटों पर हिंदू मतदाताओं को ऐसा लगा कि जैसे मुस्लिम मतदाता हिंदू विरोध में मतदान कर रहा है, इसलिए हिंदू मतों का धु्रवीकरण मोदी के पक्ष में अपने आप होता चला गया। यदि मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिम मतों के ठेकेदार नही करते तो चुनाव परिणाम कुछ दूसरे भी हो सकते थे। लेाकतंत्र में अपना विरोध व्यक्त करना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, लेकिन अपने विरोध के साथ-साथ पूरे संप्रदाय के हितों से खिलवाड़ करना या पूरे संप्रदाय को अपने हित में प्रयोग करना लोकतंत्र की भावना के विरूद्घ है। मुस्लिम मतों के इस प्रकार के मोदी विरोध में जाने से जो लोग बतौर मुस्लिम सांसद के लोकसभा में जा सकते थे, वह भी नही पहुंच पाए।
वैसे 25-30 प्रतिशत तक भी यदि कोई संप्रदाय किसी सीट पर अपनी संख्या रखता है, तो भी वह अपने बल पर जब तक किसी प्रत्याशी को विधानमंडल में नही भेज सकता जब तक उसे अन्य लोगों का साथ नही मिल जाता है। आज तक कोई भी मुस्लिम सांसद ऐसा नही होगा जो हिंदू मतों को बिना प्राप्त किये संसद या किसी राज्य के विधानमंडल में पहुंचा हो। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी है कि कोई भी जनप्रतिनिधि किसी वर्ग या संप्रदाय का प्रतिनिधि बनकर विधानमंडलों में न पहुंचे, अन्यथा वह वहां पहुंचकर वर्ग या संप्रदाय की राजनीति करेगा, जिससे देश का सामाजिक परिवेश खराब होगा।
अत: जब किसी भी मुस्लिम प्रत्याशी का बिना हिंदू मतों के जनप्रतिनिधि बनना असंभव है, तो फिर मुस्लिम मतों केा उकसाकर देश में हिंदू विरोध की राजनीति करने का क्या औचित्य है?
Categories