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आज की असली समस्या किसान आंदोलन से अधिक काली राजनीति है

 

ललित गर्ग

किसानों के व्यापक हितों के लिये केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद के दोनों सदनों में इन तीन कृषि कानूनों को पारित किया, जो राष्ट्रपति की सहमति से लागू किए गए। अब विभिन्न राजनीतिक दलों की शह पर इन कानूनों के खिलाफ ये किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं।

देश में बीस दिनों से किसान आंदोलन चल रहा है, किसान भड़के हुए हैं और आंदोलनरत हैं तो वहीं इनकी वजह से लाखों लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही आंदोलन और बंद की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को भी हजारों करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है। इन जटिल होती स्थितियों के बीच मुद्दा यह नहीं है कि देश के राजनीतिक दल किन नीतियों का समर्थन करते हैं और किनका विरोध। असली मुद्दा तो यह है कि देश के राजनीतिक दल, देश की जनता के साथ छलावा करके देश के लोकतांत्रिक मूल्यों, संविधान और कानून का मखौल क्यों उड़ाते हैं? इस देश में अधिकांश समस्याओं की जड़ इन राजनीतिक दलों का दोहरा रवैया ही है, अलोकतांत्रिक गतिविधियां ही हैं, राजनीतिक स्वार्थ ही हैं। इन्हीं राजनीतिक दलों की दोहरी नीतियों के कारण यह किसान आन्दोलन किसान आन्दोलन न होकर एक राजनीतिक आन्दोलन बन गया है।

विरोधी दल के नेताओं के बलबूते की बात नहीं रही कि वे किसान आन्दोलन जैसी अराजक स्थितियों एवं अलोकतांत्रिक स्थितियों को रोक सके, गिरते मानवीय मूल्यों को थाम सकें, समस्याओं से ग्रस्त सामाजिक व राष्ट्रीय ढांचे को सुधार सकें, तोड़कर नया रास्ता बना सकें। जो भेदभावरहित हो, राजनीतिक स्वार्थों से परे हो, समतामूलक हो, जो एक प्रशस्त मार्ग दें और सही वक्त में सही बात कहें। इसलिए अब वक्त आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दल स्वार्थ एवं वोटों की राजनीति छोड़कर मूल्यों की राजनीति करें, वे यह तय करें कि उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क न हो। अगर आप सत्ता में रहते हुए किसी कानून की वकालत करते हो, सदन में मत के दौरान किसी बिल का खुल कर या मौन समर्थन करते हो तो फिर बाहर सड़क पर विरोध का नाटक क्यों ?

किसानों के व्यापक हितों के लिये केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद के दोनों सदनों में इन तीन कृषि कानूनों को पारित किया, जो राष्ट्रपति की सहमति से लागू किए गए। अब विभिन्न राजनीतिक दलों की शह पर इन कानूनों के खिलाफ ये किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। इस आंदोलन की शुरुआत एमएसपी अर्थात् न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की मांग के साथ हुई थी लेकिन सरकार द्वारा बातचीत करने के लिए तैयार हो जाने के बाद अब किसान नेता तीनों कानूनों को ही रद्द करने की मांग कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि शायद इन किसान संगठनों या किसान नेताओं को अपने हितों की नहीं, इन राजनीतिक दलों की चिन्ता है।

6 लम्बी बैठकों में सरकार ने लगातार यह साफ कर दिया था कि एमएसपी की व्यवस्था से कोई छेड़-छाड़ नहीं की जाएगी। सरकार ने किसानों की अन्य अनेक मांगों को भी माना है, लेकिन जैसे-जैसे सरकार झुकती गयी, किसान हावी होते गये हैं, क्योंकि वे तथाकथित राजनीतिक दलों के इशारों पर आन्दोलन की दशा और दिशा तय करने में लगे हैं। देश में किसान एक बड़ा वोट बैंक है और कोई भी सरकार अपने पर किसान विरोधी होने का ठप्पा नहीं लगाना चाहेगी। किसान अपने हक की लड़ाई लड़े किसी को एतराज नहीं है, लेकिन प्रमुख राजमार्गों को अवरूद्ध कर देना, देश के सर्वोच्च एवं लोकतांत्रिक तरीकों से चुने गये नायक के लिये अभद्र, अशालीन एवं अराजक भाषा का उपयोग किया जाये, यह कैसा लोकतांत्रिक विरोध का तरीका है ? हालांकि यह एक सच्चाई है कि आजादी के बाद से ही देश के किसान ठगे गए हैं। सरकारों की मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन इसी सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत कार्य कर रही व्यवस्था ने हमेशा किसानों के साथ छल ही किया है। इसी छल से मुक्ति के लिये मोदी सरकार ने कुछ साहस दिखाया तो विरोधी राजनीतिक दलों पर वह नागवार गुजरा।

इन विडम्बनापूर्ण एवं विरोधाभासी स्थितियों में विभिन्न दल राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां तो खूब सेक रहे हैं, लेकिन किसानों के हित में कोई राजनीतिक दल सच्चे मन से सामने आया हो, प्रतीत नहीं होता। तभी केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के पुराने स्टैंड को बताते हुए विरोधी दलों के दोहरे एवं विरोधाभासी रवैये को लेकर जमकर निशाना साधा। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि कांग्रेस ने खुद अपने 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में कृषि से जुड़े एपीएमसी एक्ट को समाप्त करने की बात कही थी। कृषि मंत्री के तौर पर पिछली सरकार में एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने लगातार इन सुधारों की वकालत की थी। आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने 23 नवंबर 2020 को नए कृषि कानूनों को नोटिफाई करके दिल्ली में लागू कर दिया है। लालू और मुलायम के समर्थन पर टिकी देवगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सरकार के दौरान भी आर्थिक सुधार की नीतियों को तेजी से लागू किया गया। लेकिन आज ये सभी दल सिर्फ विरोध करने के नाम पर विरोध करने की खानापूर्ति कर रहे हैं और इसका नुकसान देश की जनता को उठाना पड़ रहा है, देश कमजोर हो रहा है।

आज हम जीवन नहीं, मजबूरियां जी रहे हैं। जीवन की सार्थकता नहीं रही। अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क नहीं कर पा रहे हैं। मार्गदर्शक यानि नेता शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण था पर नेता अभिनेता बन गया। नेतृत्व व्यवसायी बन गया। आज नेता शब्द एक गाली है। जबकि नेता तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था। पिता केवल वही नहीं होता जो जन्म का हेतु बनता है अपितु वह भी होता है, जो अनुशासन सिखाता है, विकास की राह दिखाता है, गलत को गलत एवं सही को सही कहने के मूल्यों को जीता है, आगे बढ़ने का मार्गदर्शक बनता है और राष्ट्रीयता को पोषित करता है।

देश में लोकतंत्र होने के बावजूद एक साजिश चल रही है कि जैसे भी हो सत्ता को काबिज करने के लिये हर तरीके के जायज-नाजायज हथकंडे अपनाये जा रहे हैं और इसके लिये किसानों को कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। मोदी को किसानों का विरोधी घोषित करके इसी लक्ष्य को और मजबूत किया जा रहा है। इसी से एक नई किस्म की वाग्मिता पनपी है जो किन्हीं स्वस्थ राजनीतिक मूल्यों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों पर आधारित है। जिसमें सभी नायक बनना चाहते हैं, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी मानसिकता एवं आन्दोलन की राह किस के हित में होगी ?

स्वार्थ के घनघोर बादल छाये हैं, सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं और उन्माद की इस प्रक्रिया में आदर्श बनने की पात्रता किसी में नहीं है, इसलिये आदर्श को ही बदल रहे हैं, नये मूल्य गढ़ रहे हैं। नये बनते मूल्य और नये स्वरूप की तथाकथित राजनीति क्रूर, भ्रष्ट, बिखरावमूलक अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गई है। पर असलियत से परे हम व्यक्तिगत एवं दलगत स्वार्थों के लिए अभी भी प्रतिदिन ‘मिथ’ निर्माण करते रहते हैं। आवश्यकता है केवल थोक के भावों से भाषण न दिये जायें, कथनी और करनी यथार्थ पर आधारित हों। उच्च स्तर पर जो निर्णय लिए जाएं वे देश हित में हों। दृढ़ संकल्प हों। एक अरब तीस करोड़ देशवासियों की मुट्ठी बंधे, विश्वास जगे। चाहे वो किसी बड़े घोटाले के नाम पर हो, चाहे अनुचित ढंग से संचालित हो रहे किसान आन्दोलन के नाम पर हो। जो अधिकारों और मर्यादाओं की रेखाओं को पार करे, उसे अधिकारों और मर्यादाओं के सही अर्थ का भान करा देना चाहिए। जंगल में वनचरों ने अपनी लक्ष्मण रेखाएं बना रखी हैं। मनुष्य क्यों नहीं बनाता? क्यों लांघता रहता है अपने झूठे स्वार्थों के लिए इन सीमाओं और मर्यादाओं को ?

आज की असली समस्या ‘किसान आन्दोलन’ नहीं बल्कि ‘काली राजनीति’ है। श्मशान पहुंचाने के लिए चार आदमी ही काफी हैं। समस्याओं से जूझते मनुष्यों के आंसुओं को लाखों मिलकर भी नहीं पोंछ सकते, उसके लिये साफ नीतियां और नियत वाला विपक्ष चाहिए और चाहिए इन नीतियों के निर्माताओं एवं उनको क्रियान्वित करने वाले उन्नत चरित्र वाले राजनेता। आवश्यकता है देश में ऊंचे कद वाले नेता हों। सेवा और चरित्र निर्माण के क्षेत्र में श्रेष्ठ पुरुषों की एक शृंखला हो। केवल व्यक्ति ही न उभरे, नीति उभरे, जीवनशैली उभरे। चरित्र की उज्ज्वलता उभरे। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति के बाद अब चरित्र क्रांति का दौर हो। वरना मनुष्यत्व और राष्ट्रीयता की अस्मिता बौने होते रहेंगे। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- ‘सबको सन्मति दे भगवान’ में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- ‘केवल मोदी विरोधियों को सन्मति दे भगवान।’

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