फूट डालो और राज करो की नहीं ‘तोड़ डालो और राज करो’ की नीति थी अंग्रेजों की

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अंग्रेजों ने भारत का विभाजन करते हुए कई बफर स्टेट बनाए। जिनमें अफगानिस्तान का नाम सर्वोपरि है। बफर स्टेट के नाम पर वास्तव में भारत के विभाजन की प्रक्रिया को ही अंग्रेजों ने बलवती किया था। रूसी व ब्रिटिश भारत के बीच हुई गंडामक संधि से अफगानिस्तान नाम के एक बफर स्टेट जन्म हुआ था। उससे पहले मुस्लिम बहुल बने इस प्रांत को बचाए रखने के लिए हमारे हिन्दू प्रतिहार शासकों ने लंबे समय तक संघर्ष किया था। जब तक हिन्दू शासकों का बल काम करता रहा तब तक इस प्रान्त को अपने साथ बनाए रखने में वे सफल रहे। जैसे जैसे हमारे हिन्दू शासकों का बल क्षीण होता गया वैसे- वैसे ही यह देश इस्लामिक संस्कृति के रंग में रंगता चला गया और जब अंग्रेज आए तो उन्होंने इसे बड़ी सावधानी से भारत से अलग कर दिया। अब यह देश भी भारत के साथ मजहबी आधार पर शत्रुता का भाव रखता है।
अफगानिस्तान की राजधानी और सबसे बडा़ नगर काबुल है। यहां की मुख्य भाषा फारसी, पश्तो हैं। यह एक इस्लामिक गणराज्य है ।इस देश का कुल क्षेत्रफल 647,500 वर्ग किलोमीटर है और 2008 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुलजनसंख्या – 32,738,376 है।

भूटान

पड़ोसी देश नेपाल के बारे में हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि किस प्रकार अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों को साधने के दृष्टिकोण से प्राचीन काल से भारत का अभिन्न अंग रहे इस पहाड़ी प्रदेश को एक अलग देश की मान्यता दे दी थी। वास्तव में अंग्रेजों की सोच भारत के प्रति ‘फूट डालो और राज करो की नहीं’ अपितु ‘तोड़ डालो और राज करो’ – की रही थी। यदिभारत की सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का भाव पैदा नहीं होता तो 1947 में भी बहुत संभव था की अंग्रेज भारत को एक बार पुनः तोड़कर अर्थात पाकिस्तान बनाकर शेष भारत पर राज करते रहते ।
अंग्रेजों ने अपनी इसी ‘तोड़ डालो और राज करो’ की नीति का अनुकरण करते हुए भूटान को भी बड़ी सावधानी से भारत से अलग कर डाला था। इतिहास की यह घटना 1906 की है। उससे पहले भूटान नाम का कोई देश विश्व के मानचित्र पर नहीं था। भूटान की राजधानी थिंफू है। इसस देश का कुल क्षेत्रफल 47000 वर्ग किलोमीटर का है और यहां की जनसंख्या लगभग 700000 है।
1914 में भारत की ब्रिटिश सरकार और चीन ने हिमालय को बांटने की अवैज्ञानिक प्रक्रिया प्रारंभ की अपने इस प्रयास को सिरे चढ़ाने के लिए तत्कालीन भारत की ब्रिटिश सरकार ने चीन के साथ एक समझौता किया । जिसमें चीन को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता दी गई। इसी समय भारत और चीन की सीमा के निर्धारण के लिए मैकमहोन रेखा का काल्पनिक रूप से निर्माण किया गया। जिसे चीन आज तक स्वीकार नहीं करता। वास्तव में 1914 के इस मूर्खतापूर्ण समझौते का परिणाम यह हुआ कि कालान्तर में चीन तिब्बत को हड़पने में सफल हो गया।

बर्मा

भारत का एक अन्य पड़ोसी देश बर्मा भी है। जिसे म्यामांर भी कहा जाता है। म्यांमार और भारत के बहुत पुराने संबंध हैं। 1937 तक म्यांमा भी भारत का ही एक भाग रहा था। 1937 में अंग्रेजों ने बड़ी सावधानी से यहां भी अपनी :तोड़ डालो और राज करो की नीति’ – का अनुकरण करते हुए भारत से सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से जुड़े रहे इस देश को अलग कर डालने का षड्यंत्र सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इस देश के अधिकांश लोग बौद्ध धर्मावलंबी हैं।
1857 की क्रांति को अपने दमन चक्र से कुचलने के पश्चात भारत के ब्रिटिश शासकों ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपनी कैद में डालकर इसी देश में (रंगून में) ले जाकर निर्वासित कर दिया था । वहीं पर इस अंतिम मुगल बादशाह का देहांत हुआ था। बाल गंगाधर तिलक को भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेने और देश को क्रांतिकारी आंदोलन की ओर अग्रसर करने के अपराध में अंग्रेजों ने जब गिरफ्तार किया तो यहीं मांडले जेल में लाकर डाला था । इस प्रकार रंगून और मांडले की जेल भारत के स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी इतिहास को समेटने का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। आज भारत में कितने लोग हैं जो फिल्मी गाने के इन शब्दों का अर्थ जानते हैं ? – ‘मेरे पिया गए रंगून, वहाँ से किया है टेलीफून’। रंगून से उस समय कैसे टेलीफोन आते होंगे जब हमारे क्रांतिकारी वहां की जेलों में पड़े रहते होंगे ? कम्युनिस्टों के द्वारा लिखे गए प्रचलित इतिहास से इस सच की जानकारी नहीं मिल सकती।
यह एक अच्छी बात है कि म्यांमार की सरकार भी भारत के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखने की पक्षधर रही है ।इस देश से भारत की 2276 किलोमीटर लंबी सीमा मिलती है। दोनों देशों की परस्पर समझदारी और एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की भावना के कारण इतनी लंबी सीमा पर कभी कोई किसी प्रकार का विवाद होने या सैनिक टकराव का समाचार समाचार पत्रों में नहीं आता। बर्मा सार्क का भी सदस्य है।
बर्मा का कुल क्षेत्रफल 6,76,578 वर्ग किलोमीटर और 2005 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 50,519,000 है।
1951 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संधि हुई थी, जिसका दोनों देशों ने ईमानदारी से पालन किया है। 2014 में जब भारत में नरेंद्र मोदी सरकार आई तो उस समय बर्मा की सरकार ने उल्फा उग्रवादियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का विश्वास भारत सरकार को दिया। इस प्रकार उसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की एकता और अखंडता का सम्मान करता है। बर्मा भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एक हिस्सा रहा है। इस दृष्टिकोण से भारत की सरकारों को अपनी विदेश नीति और राजनीतिक विमर्श के केंद्र में बर्मा को विशेष देश का सम्मान देकर स्थान देना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान और बांग्लादेश से कहीं लाख गुणा बेहतर हमारे लिए बर्मा है।
यह एक अच्छी बात है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत के कई प्रधानमंत्रियों ने बर्मा की यात्रा की है और इस देश को भारत का विशेष मित्र होने का आभास कराया है। 1987 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ब्रह्मा के साथ भारत के विशेष संबंधों का एक नया अध्याय आरंभ किया था ।उसके पश्चात वहां के राष्ट्रपति यू थिन सेन अक्टूबर 2011 में भारत आए थे। इसी प्रकार भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह ने भी मई 2012 और फिर 2014 में बिम्सटेक की बैठक में भाग लेने के लिए मार्च में बर्मा की यात्रा की थी। उसके पश्चात भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दास मोदी ने पड़ोसी पहले की अपनी विदेश नीति में वर्मा को विशेष स्थान दिया उन्होंने वहां अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को 2014 में 8 अगस्त से 11 अगस्त तक बर्मा की यात्रा पर भेजा था ।
वास्तव में अंग्रेजों ने अपना नौसैनिक बेड़ा बनाने और अपने समर्थक राज्य स्थापित करने के दृष्टिकोण से बर्मा और उसके साथ-साथ श्रीलंका को भारत से इसलिए अलग किया था। 1937 में उन्होंने बर्मा को भारत से अलग किया तो उससे पहले 1911 में वह श्रीलंका को भी भारत से अलग कर चुके थे।

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

 

 

 

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