श्रद्धा के पात्र नहीं
जो संरक्षण न दे सकें
– डॉ. दीपक आचार्य
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सामाजिक विषमताओं और समस्याओं का एक सबसे बड़ा कारण हम भी हैं जो कि ऎसे-ऎसे लोगों को सर चढ़ाए रखते हैं जो किसी काम के नहीं हैं। ऎसे खूब सारे लोग हमारे आस-पास भी हैं और दूर-दूर तक भी अपने झण्डेे गाड़े हुए बिराजमान हैं।
ये लोग समाज या देश के किसी काम के नहीं होते बल्कि इन लोगों को हमेशा मंच, लंच और टंच, आदर-सम्मान और श्रद्धा चाहिए। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं यहाँ तक कि मरने-मारने पर भी उतारू होना इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं।
सिर्फ और सिर्फ सम्मान की कुंभकर्णी भूख को पूरा करने के लिए ये छोटे-मोटे स्वाँगिया कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं ताकि इनका वजूद भी बना रहे और आदर-सम्मान तथा श्रद्धा बटोरने के अवसर भी कम न हों।
दुनिया का कोई सा संबंध हो या कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग की कोई सी धारा, सभी प्रकार के कर्मयोगों की सफलता का आनंद तभी है जब इनमें श्रद्धा का पुट हो।
यह अभाव कत्र्ताओं से लेकर कर्म तक पसरा हुआ है। यही वजह है कि आजकल हर कर्म में जिसकी सर्वाधिक कमी महसूस की जा रही है वह है श्रद्धा। श्रद्धा उस गुड़ की तरह है जो जितनी अधिक मात्रा में घुलेगी, उतना अधिक बेहतर मिठास और सुगंध भरा परिणाम सामने होगा।
आजकल हर तरफ श्रद्धा का जितना अधिक ह्रास हो रहा है उतना पिछले दशकों में किसी का नहीं हुआ। बावजूद इसके हमारे अपने क्षेत्रों की गलियों-चौबारों से लेकर देश-दुनिया तक ऎसे लोगों की भरमार है जो अपने आपको श्रद्धा का प्रतीक मानते हैं।
बात पारिवारिक रिश्तों की हो, सामाजिक गतिविधियों की अथवा देश की रचनात्मक प्रवृत्तियों की, श्रद्धा के भी दो रूप हो गए हैं। एक है आंतरिक श्रद्धा और दूसरी दिखावटी। आंतरिक श्रद्धा में किसी को किसी के बारे में कुछ कहने और सुनने की आवश्यकता नहीं होती। आदमी और कर्म की तीव्रतर सुगंध ही इतनी फैली हुई होती है कि अपने आप श्रद्धा का ज्वार हिलोरें लेने लगता है और हर कोई हृदय से आदर-सम्मान देने लगता है। ऎसे लोगों और कामों के प्रति श्रद्धा का अतिरेक कोई चाहते हुए भी नहीं रोक पाता।
दूसरी ओर खूब सारे लोग ऎसे हैं जिनके प्रति लोकलाज या अपने क्षुद्र स्वार्थों के चक्कर में सार्वजनिक तौर पर श्रद्धा जताते तो हैं लेकिन हमारे मन में इनके प्रति श्रद्धा का कोई कतरा नहीं होता बल्कि जो कुछ हम करते हैं वह सारा का सारा दिखावटी होता है और इसका हमारे मन से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। हम यह सब इसलिए करते हैं क्योंकि करना पड़ता है। कुछ लोग जो एक बार श्रद्धा और सम्मान के 440 वोल्ट के खंभोें पर चढ़ कर बैठ जाते हैं, फिर वहाँ से उतरते ही नहीं।
कई बार दूसरे लोगों की देखादेखी भी हम बाहरी श्रद्धा का इज़हार करते हैं। इस मामले में हमारा दोष नहीं है बिंल्क सदियों की गुलामी और भेड़-बकरियों के साथ रहते हुए संसंर्गजन्य दोष भी प्रमुख कारण है।
इन श्रद्धा पात्रों में कोई भी हो सकता है। जिन्हें हम जानते हैं वे भी, जिनसे अनजान होते हैं वे भी। कई लोगों को अपने बारे में बहुत बड़ा और ऊँचा हो जाने का भ्रम हो जाता है और ऎसा होने पर वे सातवें आसमान का सफर शुरू कर देते हैं, ये लोग फिर कभी नीचे उतर ही नहीं पाते। ऎसे लोग किसी के लिए कभी कुछ नहीं करते, बल्कि अपने ही अपने लिए जीने-मरने के लिए लालायित रहते हैं।
श्रद्धा अपने आप में वह विराट विषय है जिसमें संरक्षण, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन, स्नेह और आत्मीयता जैसे भारी-भरकम शब्दों का समावेश होता है और इनके गुणधर्म का होना भी नितान्त जरूरी होता है। लेकिन आजकल हम जिन लोगों को श्रद्धापात्र मान बैठे हैं उनमें दुर्भाग्य से दो-चार फीसदी को छोड़कर शेष सारे के सारे श्रद्धा की कसौटी पर कभी खरा नहीं उतरते।
ये लोग अपने आपको महान साबित करने के लिए जिंदगी भर जतन करते रहते हैं मगर लोगों को गुमराह करने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। लोग इन पर निर्भर होने का दम भरते हैं मगर ये लोग किसी काम के नहीं हुआ करते।
श्रद्धा पाने योग्य बन जाने वाला व्यक्ति ऎसा होना चाहिए जिसमें संरक्षण प्रदान करने का माद्दा हो, समुदाय के लिए त्याग कर सके, किसी भी प्रकार की विषम परिस्थितियों को तपस्या के रूप में ले। लेकिन जिनके प्रति हम श्रद्धा का सागर समर्पित करते हुए नहीं अघाते उनमें काफी सारे लोग हमारी आशाओं, अपेक्षाओं तथा आकांक्षाओं के अनुकूल नहीं होते।
हर समाज और क्षेत्र में ऎसे आभूषण विद्यमान हैं जो श्रद्धेय कहे जाते हैं लेकिन इनकी हकीकत यही है कि ये सिर्फ और सिर्फ दर्शनीय होकर ही रह गए हैं, किसी को संरक्षण प्रदान करने की बात ये कभी नहीं सोचते।
बावजूद इसके हमारा यह दुर्भाग्य है कि ऎसे लोगों को श्रद्धेय की मखमली गादी पर बिठाये रखकर हम समुदाय को ही गुमराह करने लगे हैं। जो लोग समाज का, समाज के श्रेष्ठ व्यक्तित्वों को संरक्षण प्रदान नहीं कर सकते, उनके प्रति श्रद्धा दिखाना भी अपराध है और यही कारण है कि समाज में कर्मठ और श्रेष्ठीजन पलायन कर हाशिये पर जा रहे हैं और तथाकथित श्रद्धेयों की महफिल हर कहीं परवान पर है।
श्रद्धा का इससे बड़ा अपमान और कुछ नहीं हो सकता। इस किस्म के श्रद्धेय श्रद्धा अभिव्यक्त करने के नहीं बल्कि श्रद्धांजलि देने के लायक ही हैं। इस शाश्वत सत्य को आज हम नहीं समझ पाएं तो यह हमारा और अपने समाज का ही दुर्भाग्य है।
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