नेहरू हार गये और सावरकर जीत गये
अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा है। इस हार से पहुंचे ‘सदमे’ से सोनिया गांधी, राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य नेता अभी उभर नही पाए हैं। देश के लिए कांग्रेस का हार जाना बुरी बात नही है, बुरी बात है देश में अब सक्षम विपक्ष का अभाव हो जाना। सत्ता पक्ष पर लगाम कसने के लिए अपने तर्कबाण चलाकर सत्तापक्ष को अपनी बात मनवाने का दायित्व कांग्रेस में अब किसके पास होगा? देखने वाली बात होगी कि मोदी इस स्थिति का अपने लिए कैसे उपयोग करते हैं? क्या वह मनमानी करेंगे या विपक्ष को बलवती किये रखने के लिए अपनी बात का सकारात्मक विरोध करने की छूट स्वयं अपने दल के लोगों को भी देंगे?
अब अपने विषय पर आते हैं। आज कल जहां भी दो चार जागरूक नागरिक बैठे होते हैं, उन सब में थोड़ी देर की गपशप के पश्चात चर्चा का विषय यही बनता है कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस क्यों हारी? इस पर कांग्रेस नीत संप्रग-2 के शासन में मची भ्रष्टाचार की लूट, मनमोहन का ‘रिमोट कंट्रोल’ से चलना, महंगाई आदि वही चर्चाएं होती हैं, जिनसे हम सब परिचित हैं।
मुझे लगता है कि कांग्रेस क्यों हारी-इस विषय पर विचार करके इसका सही उत्तर खोजने के लिए हमें पहले इस बात पर विचार करना चाहिए कि कांग्रेस बार-बार जीतती क्यों रही? यदि इस प्रश्न पर विचार करेंगे तो हमें सही उत्तर मिल सकता है, परंतु इस पर विचार करने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। आजादी के ठीक पहले ‘नेशनल असैम्बली’ के चुनाव 1945 में संपन्न हुए थे। कांग्रेस के महाघपलों से भरे चरित्र का शुभारंभ यहीं से हुआ। जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग तब देश का बंटवारा कराने के लिए ‘एडी चोटी’ का जोर लगा रहे थे। हिंदू महासभा साम्प्रदायिक आधार पर देश का बंटवारा होने देना नही चाहती थी। महासभा के साथ उस समय देश का राष्ट्रवादी वर्ग उसकी आवाज में आवाज मिला रहा था। वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को देश के बंटवारे को लेकर असीम चिंता थी। देश के विभाजन को रोकने के लिए तथा ‘नेशनल असैम्बली’ के चुनावों में हिंदू मतों के विभाजन को रोकने के लिए वीर सावरकर और उनके साथियों ने यह उचित समझा कि चुनावों में स्वयं खड़ा ना होकर कांग्रेस को समर्थन दिया जाए और शर्त यह लगायी जाए कि कांग्रेस देश का बंटवारा नही कराएगी। कांग्रेस ने हिंदू महासभाई नेताओं की ये शर्त स्वीकार कर ली। सावरकर की येाजना सफल रही। कांग्रेस को देश की नेशनल असैम्बली में अधिक सीटें मिल गयीं। लेकिन जिन्ना व मुस्लिम लीग ने हिंदू मतों के कांग्रेस के पक्ष में हुए धु्रवीकरण को लेकर कांग्रेस को ‘हिंदुओं की पार्टी’ कहना आरंभ कर दिया।
जिन्ना और उनके लोग जितना ही कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी कहते थे कांग्रेस के नेहरू जैसे लोगों को (जिनका मूल मुस्लिम था) यह आरोप अपने लिए उतना ही खलता था। उन्हें स्वयं को हिंदू कहाने में शर्म आती थी और खुलकर अपने आप को मुस्लिम कह नही सकते थे, कदाचित गांधी जी इस बात को समझते थे और संभवत: वह इसीलिए लीग और जिन्ना को बार-बार नेहरू को कांग्रेस का बड़ा नेता होने का संकेत देते थे कि हम भी तो एक छद्मी मुस्लिम को ही अपना नेता मान रहे हैं, इसलिए तुम भी मान जाओ। पर जिन्ना मानने वाले नही थे। तब नेहरू ने अपने आपको और भी अधिक धर्मनिरपेक्ष (मुस्लिम परस्त कहें तो और भी उचित होगा) सिद्घ करने के लिए यह उचित समझा कि उन्होंने हिंदू महासभा से किनारा करना आरंभ किया। परिणाम स्वरूप 3 जून 1947 को देश के वायसराय लार्ड माउंट बेटन के साथ संपन्न हुई बैठक में कांग्रेस ने देश के हिंदू समाज से गद्दारी करते हुए देश के बंटवारे पर अपनी मुहर लगा दी। देश के राष्ट्रवादी हिंदू समाज के लिए तथा हिंदू महासभा के लिए यह स्थिति अत्यंत वेदना पूर्ण थी। सावरकर और उनके साथी कांग्रेस की कृतघ्नता से अत्यंत आहत थे, उनका गुस्सा समझने लायक था। परंतु वह गलती कर चुके थे-देश की असैम्बली के चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करके। जिससे ताकत अब उनके पास न होकर कांग्रेस के पास थी। 3 जून की बैठक से नेहरू ने हिंदू महासभा को अनुपस्थित करा दिया था। क्योंकि वह जानते थे कि वीर सावरकर या उनका कोई भी प्रतिनिधि उनके द्वारा बंटवारे पर लगाये जाने वाली स्वीकृति की मुहर का वहीं पर तीखा विरोध करेगा। जबकि नेहरू मन बना चुके थे कि उपमहाद्वीप का बंटवारा होने पर भी सत्ता मुस्लिमों के हाथ में ही रहेगी। एक भाग पर जिन्ना तो एक पर वह स्वयं शासन करेंगे। नेहरू की इस सोच को लेकर सावरकर जैसे नेता कतई सहमत नही थे, उन्होंने ऐसी सोच और ऐसे कृत्यों का पुरजोर विरोध किया। जिससे नेहरू हिंदू महासभा और उसके नेताओं के प्रति जहर से भर गये। बाद में जब गांधी-हत्या हुई तो इस जहर को मिटाने के उन्होंने सावरकर को जानबूझकर गांधी हत्या में अभियुक्त बनाया। जिससे सावरकर को और हिंदू महासभा को बदनाम किया जा सके।
सावरकर तो आरोप मुक्त हो गये। पर तब तक बहुत भारी क्षति हो चुकी थी। देश आजाद तो हो ही चुका था साथ ही 1945 के चुनावों के आधार पर ही देश का पहला प्रधानमंत्री बनने में नेहरू सफल हो चुके थे। साथ ही सावरकर जैसे लोगों को वह गांधी हत्या में फंसाकर अपने लिए अगले चुनावों के लिए मैदान साफ कर चुके थे। परिणामस्वरूप 1952 में जब लोकसभा के पहले चुनाव हुए तो कांग्रेस ने ‘गांधी-हत्या’ को भुनाया और विपक्ष को धोकर सत्तासीन हो गयी। यह ध्यान देने योग्य बात है कि किसी को एक बार सत्ता में बैठने पर उसे सत्ता से हटाना कठिन होता है, क्योंकि वह सरकारी तंत्र का दुरूपयोग करता है और अपने विपक्षी को बदनाम करने के किसी भी हथकंडे को अपनाने से बाज नही आता। नेहरू ने भी आकाशवाणी सहित सारी मीडिया का दुरूपयोग किया और एक बेगुनाह को गुनाहगार बनाकर रख दिया। उसकी आवाज को सुनने ही नही दिया। फलस्वरूप सत्ता की मलाई ‘जनाब’ अकेले खाते रहे। यह एक षडयंत्र था, सत्ता पर काबिज बने रहने का। नेहरू जब तक जीवित रहे तब तक इसी षडयंत्र के अंतर्गत ‘गांधी हत्या’ को हर चुनाव में भुनाते रहे और देश की जनता को ये अहसास कराते रहे कि देश को आजाद हमने कराया और देश पर शासन भी हम ही कर सकते हैं, शेष दूसरे लोगों का ना तो देश के स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान था और ना ही वे शासन करने में सक्षम हंै। नेहरू ने यह भी स्थापित किया कि गांधी जैसा व्यक्ति हजारों वर्षों में एक बार आता है, और उसे भी कुछ लोगों ने समाप्त कर दिया। नेहरू देश की हिंदू जनता के ‘अवतारों’ में विश्वास करने की दुर्बलता को भली प्रकार जानते थे, इसलिए उन्होंने गांधी को एक अवतार के रूप में स्थापित किया और वैसे ही उन्हें सम्मान देने का नाटक किया। इस सारे खेल का जनता पर वही असर हुआ जो नेहरू चाहते थे। फलस्वरूप जो सच था वह कई तहों में बंद होता गया और झूठ का महिमामंडन होता चला गया।
कांग्रेस को मरे हुओं के नाम पर जीतने का चश्का लग गया। इसी परंपरा को नेहरू के पश्चात इंदिरा गांधी ने जारी रखा। उन्होंने गांधी के पश्चात नेहरू को ‘दूसरा अवतार’ बनाकर शीशे में जड़वा-जड़वा कर फिट करवाना आरंभ किया और लोगों के दिलों में गांधी-नेहरू नाम के दो अवतार बैठा दिये। हमने देखा कि वे इन्ही दो अवतारों के नाम पर शासन करती रहीं तो उनकी निर्मम हत्या को उनके बेटे राजीव ने भुनाया। राजीव गांधी ने श्रीमति गांधी को ‘तीसरी दैवीय शक्ति का अवतार’ घोषित किया और लोगों को गांधी नेहरू और इंदिरा की पूजा करने के लिए प्रेरित किया। यही स्थिति श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने राजीव गांधी के प्रति पैदा की। इस जादूगरी भरे नाटक से कांग्रेस सत्ता का रसास्वादन करती रही। पर दूसरी ओर इस जादू के खेल को तोडऩे का प्रयास भी चल रहा था। यह प्रयास वैसा ही था जैसे जब आप कोई गेंद ऊपर की ओर उछालते हैं तो वह गेंद जैसे ही आपके हाथ से ऊपर की ओर जाती है तो उसे धरती पर गिराने के लिए धरती का गुरूत्वाकर्षण बल विपरीत दिशा में जोर लगाने लगता है। हिंदू महासभा को कुछ तो कांग्रेस की मारी हुई और कुछ अपनों के घातों और लातों के कारण धीरे-धीरे पीछे हो गयी, परंतु सावरकर का विचार कितने ही राष्ट्रवादियों को कहीं न कहीं आंदोलित करता रहा। इसलिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर भाजपा, आर.एस.एस. शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद और सभी हिंदूवादी संगठनों में या राजनीतिक दलों के लिए सावरकर नेहरू की गेंद के लिए धरती का गुरूवाकर्षण बल बन गये। अब 2014 में नेहरू की गेंद ऊपर जानी बंद हुई है और अब वह धरती पर आ गिरी है। सचमुच यह नेहरू की हार और सावरकर की जीत है। पर दुख की बात यह है कि एक षडयंत्र का भण्डाफोड़ करने में हमें 67 वर्ष लग गये। नेहरू के ‘गुलाब’ की मुस्कराहट को सावरकर के गंभीर किंतु ‘कमल’ जैसे पवित्र चेहरे ने अंतत: परास्त कर ही दिया। ईश्वर करे अब कोई और षडयंत्र ना हो और स्वर्गसम पवित्र यह देश आर्यावर्त बनने के शिवसंकल्प को लेकर आगे बढ़े। अंत में कांग्रेसियों के लिए एक ही बात है कि वे ये चिंतन करें कि हम अब तक जीतते क्यों रहे थे? षडयंत्रों के जादुई खेलों को छोड़कर ‘सच’ का सामना करेंगे तो उन्हें फिर ‘देश सेवा’ का अवसर मिल सकता है। क्या अजीब संयोग है कि 26 मई को मोदी पीएम बने, 27 को नेहरू (पुण्यतिथि पर) विदा हो गये और 28 को सावरकर (जयंती पर) जीवित हो गये।
मुख्य संपादक, उगता भारत