राकेश कुमार आर्य
पर स्वतंत्र भारत में कश्मीर ने एक दूसरा ही दर्दनाक इतिहास बनते देखा है। ‘कश्मीर समस्या’ के नाम से हम सब इस ‘रोग’ को जानते हैं। योग भूमि भोग भूमि से आगे चलकर आज ‘रोगभूमि’ बनी खड़ी है। यह गुल खिलाया है धारा 370 ने।
सचमुच इस धारा के समूलोच्छेदन का समय अब आ गया है। इस धारा को भारत के संविधान में डालने के आग्रह के साथ शेख अब्दुल्ला जब डा. बी.आर. अंबेडकर से मिला था तो उस राष्ट्रवादी महापुरूष ने इसे संविधान में डालने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि-”मैं भारत का विधि मंत्री हूं, तुम्हारी बातें मानना भारत से द्रोह करना होगा। इसलिए मैं संविधान में ऐसी कोई धारा डालने के पक्ष में नही हूं।”
तब पं. नेहरू की शह पर गोपाल स्वामी अयंगर अब्दुल्ला के आग्रह पर इस धारा का प्रस्ताव बनाकर लाये। परंतु फिर भी इस धारा को ‘अस्थायी और बदली जाने वाली धारा’ के रूप में संविधान में रखने की अनुमति संविधान सभा ने दी।
यह धारा देश के लिए घातक न बन जाए, इसके लिए इसे यथाशीघ्र समाप्त करने की इच्छा संविधान सभा ने की थी। तभी तो इसे हटाने के लिए राज्य की संविधानसभा (तब जम्मू कश्मीर की संविधानसभा अलग थी) से सलाह लेने का प्रावधान इसमें था। जाहिर है कि संविधानसभा दशकों या सदियों तक तो रहनी नही थी, इसलिए जितनी देर में एक संविधान सभा संविधान बना सकती है, उतनी देर की उम्र इस धारा की कल्पित की जा सकती थी। परंतु परिस्थितियां ऐसी बनायी गयीं और ऐसे षडयंत्र रचे गये कि इस संविधान विरोधी अस्थायी धारा को बदलने ही नही दिया गया, और हमने देखा कि संविधान की एक अस्थायी धारा हमारे लिए कितनी स्थायी बन गयी है।
इस धारा की उपधारा (3) में इसे बदलने की व्यवस्था दी गयी है। जिसमें राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया है कि वे सार्वजनिक विज्ञप्ति से इस धारा के किसी अंश को या इसके मूल स्वरूप को ही अप्रभावी करने की घोषणा कर सकते हैं। 1956 में कश्मीर की संविधान सभा के समाप्त हो जाने के पश्चात तो कश्मीर की संविधान सभा से इसकी समाप्ति संबंधी व्यवस्था की भी आवश्यकता नही रही है।
इस धारा की उपधारा (3) इस धारा की बाबत राष्ट्रपति को बहुत शक्ति संपन्न बनाती है, साथ ही इस धारा को उतना ही कमजोर भी सिद्घ करती है। पर इसे व्यवहार में हमने इतना मजबूत बना दिया है कि ऐसा लगता है जैसे हमारे संविधान में सबसे कठोर और अपरिवर्तनीय धारा यदि कोई है तो वह 370 है। 1952 के प्रथम चुनाव के पश्चात से ही डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता और हिंदू महासभा, रामराज्य परिषद, अकाली दल, गणतंत्र परिषद और अन्य राष्ट्रवादी दल या संगठन इस धारा को हटाने की मांग करते आ रहे हैं। जिस कारण पं. नेहरू की कश्मीर संबंधी नीति का संसद में खुलकर विरोध आरंभ से ही होता आ रहा है।
अब मोदी सरकार को धारा 370 को लेकर दो बिंदुओं पर काम करना चाहिए-एक तो ये कि महाराजा हरिसिंह के विलय प्र्रस्ताव को अन्य देशी राजाओं के विलय प्रस्तावों की तरह अंतिम मानकर कश्मीर में किसी भी प्रकार के जनमत संग्रह की मांग को ठुकराना चाहिए। दूसरे धारा 370 को मंत्रिमंडल के एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के माध्यम से राष्ट्रपति से ही हटवा दिया जाए। इसके अतिरिक्त भारत के सैन्याधिकारियों की देखरेख में कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास कराया जाए। उनके पुनर्वास के लिए दिये गये धन का वितरण राज्य सरकार से न कराकर केन्द्र सरकार अपने विश्वसनीय लोगों से कराये। कश्मीर घाटी में सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों और कर्मियों को हथियार उपलब्ध कराते हुए बसाया जाए, ताकि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का काम सुचारू रूप से संपन्न हो सके। साम्प्रदायिक आधार पर कश्मीर का विभाजन न करके सामाजिक आधार पर इसका समायोजन किया जाए। जो देश कश्मीर संबंधी हमारी नीति का समर्थन करें, उनके साथ देश के व्यापारिक संबंधों को बढ़ाया जाए और जो विरोध करते हों, उनसे अपने सभी प्रकार के संबंधों की समीक्षा की जाए।
इसके अतिरिक्त जम्मू कश्मीर राज्य की सीमायें वहां तक मानी जायें जहां तक 26 अक्टूबर 1947 तक (विलय के समय तक) महाराजा हरिसिंह शासन कर रहे थे। कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास में जो कश्मीरी मुसलमान सहयोग करें उनका सहयोग लिया जाए और उन्हें इस अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहित भी किया जाए, पर जो लोग इस प्रकार के पुनर्वास का विरोध करें, उनके विरोध का प्रतिरोध कड़ाई से किया जाए।
कश्मीर हमारी आन-बान-शान का प्रतीक है, इसे अब ‘भोग भूमि’ से ‘योग भूमि’ की दिव्यता की ओर लेकर चलने के लिए इसके ‘रोग’ का सही उपचार करना हम सबका राष्ट्रीय कत्र्तव्य है। मोदी सरकार से पूरी सावधानी, समझदारी और राष्ट्रवादी निर्णयों की उम्मीद पूरा देश कर रहा है।