विद्वानों की संगति से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून
हम इस संसार में जन्में हैं व इसमें निवास कर रहे हैं। हमारी आंखें सीमित दूरी तक ही देख पाती हैं। इस कारण हम इस ब्रह्माण्ड को न तो पूरा देख सकते हैं और अपनी अल्पज्ञता के कारण इसको पूरा पूरा जान भी नहीं सकते हैं। सभी मनुष्यों में यह इच्छा होती है कि काश वह इस संसार को पूरा देख सकते व जान पाते। ऐसा हमारी अणु परिमाण व एकदेशी आत्मा के लिए सम्भव नहीं है। सीमित सत्ता में असीमित ज्ञान व शक्ति नहीं हो सकती। यदि जीवात्मा अपना ज्ञान बढ़ाना चाहता है तो उसे अपने से अधिक ज्ञानवान तथा शक्तिशाली मनुष्य व अन्य सत्ता जो सर्वशक्तिमान है, वह ईश्वर है, उसकी संगति करनी होती है। विद्वानों से संगति करने से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है। ज्ञान से उसकी विचार करने व शारीरिक शक्तियों में भी सुधार होता है। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान सत्ता है। संसार में जिस व जिन पदार्थों का भी अस्तित्व हैं वह सब पदार्थ दो प्रकार के होते हैं। एक अनादि व नित्य तथा दूसरे सादि व किसी विशेष काल में बने हुए होते हैं। जो पदार्थ स-आदि अर्थात् उत्पत्तिधर्मा, होते हैं उनका नाश होकर वह अपने बनने से पूर्व तत्व व सत्तात्मक पदार्थ में विलीन हो जाते हैं। लकड़ी जलने पर अपने पंच भौतिक पदार्थों में विलीन होकर मिल जाती है। वह यद्यपि दिखाई नहीं देती परन्तु उसका अस्तित्व उसके कारण पदार्थों में विद्यमान रहता है। हमारी यह समस्त सृष्टि भी कारण पदार्थों से बना हुए एक कार्य है। यह कार्य सृष्टि स-आदि अर्थात् सादि है। इसका जन्मख् उत्पत्ति व निर्माण हुआ है, अतः यह नाशवान है। इसका नाश व प्रलय अवश्य होगा। इसी लिये सृष्टि को उत्पत्तिधर्मी एवं प्रलय को प्राप्त होने वाली माना जाता है।
हमारी यह सृष्टि जिस पदार्थ से बनी है उसकी चर्चा वेद व दर्शन ग्रन्थों में मिलती है। वहां इस मूल पदार्थ को प्रकृति बताया गया है। प्रकृति का पदार्थ व सत्ता तीन गुणों सत्व, रज व तम गुणों वाला है। इन्हीं गुणों में विकार होकर यह समस्त जड़ वा पंचभौतिक जगत बना है। इस जगत में सभी भौतिक सत्तायें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, लोक-लोकान्तर, निहारिकायें तथा नक्षत्र आदि सम्मिलित हैं। प्रकृति मूल पदार्थ है। इसका विनाश व अभाव कभी नहीं होता है। यह कभी बना नहीं परन्तु सदा अर्थात् अनादि काल से अस्तित्व में है और सदैव अर्थात् अनन्त काल तक रहेगा। अतः प्रकृति नामी जड़ सत्ता अनादि व नित्य है। यह सदा से है और सदा रहेगी और यह जैसी वर्तमान में सृष्टि रूपी कार्य अवस्था में विद्यमान है, इसी प्रकार अनन्त काल तक इसी प्रकार उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय को प्राप्त होती रहेगी। प्रलय के बाद पुनः उत्पत्ति होना इसका स्वभाविक धर्म कहा जा सकता है। अतः इस जगत् में प्रकृति नामक मूल जड़ पदार्थ की सत्ता सिद्ध होती है और इसी से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय होकर पुनः पुनः सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का चक्र चलता रहता है। इस रहस्य को जानकर मनुष्य को ज्ञान उत्पन्न होता है और जो अति पवित्र व शुद्ध आत्मायें होती हैं उनमें वैराग्य भाव भी उत्पन्न होता है। किसी भी पदार्थ में राग तभी होता है जब हम उसके नाशवान स्वरूप को भूले रहते हैं। जिस समय हमारे ज्ञान में यह बात दृण हो जाती है कि यह पदार्थ नाशवान है और कुछ समय बाद यह नाश को प्राप्त होने वाला है, तो हमारा उस पदार्थ व जंगम प्राणी से राग व मोह कम वा समाप्त हो जाता है, हम वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं। ऋषि दयानन्द, महात्मा बुद्ध आदि के जीवन में हम वैराग्य को देखते हैं जिन्होंने वैराग्य अर्थात् बोध होने पर सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर तप, ज्ञान व ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग चुना था। इससे इन्हें लाभ हुआ। ऋषि दयानन्द तो वेदों के उद्धारक, प्रचारक, अद्वितीय धर्माचार्य तथा ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले ऋषित्व को प्राप्त भी हुए थे जिनसे पूरे विश्व का अपूर्व उपकार हुआ।
जिस प्रकार प्रकृति अनादि व नित्य अर्थात् अनुत्पत्ति व नाशरहित धर्म वाली सत्ता है, उसी प्रकार से सृष्टि में दो अन्य चेतन सत्तायें भी हैं। इन्हें हम ईश्वर व जीव कहते हैं। संसार में कुल तीन ही अनादि व नित्य पदार्थ हैं। ये पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति कहलाते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है, वह कभी किसी प्रकार के विकार व भिन्न अवस्था को प्राप्त नहीं होता। जीव जन्म व मरण धर्मा होतें हैं। सभी जीव जन्म व मरण को प्राप्त होने वाले होते हैं। जीव का जन्म व मरण उसके कर्म फल बन्धन के कारण होता है। इस कर्म बन्धन का क्रम भी अनादि काल से ही सृष्टि में चल रहा है। बन्धन सुख व दुःख का कारण होते हैं। अतः दुःखों से पूर्णतया छूटने का उपाय बन्धनों को काटना व दूर करना होता है जो सद्ज्ञान वा विद्या से प्राप्त होता है। विद्या के अनुरूप आसक्ति वा फल की इच्छा का त्याग कर कर्म करने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होते। वह अपने समस्त उपासना व यज्ञ आदि कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देते हैं। इससे वह कर्मों के फल भोग में वह फंसते नहीं हैं। ऐसा करने से जीव एक व अधिक जन्मों में मुक्ति वा मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। सभी जीवों का मुख्य लक्ष्य बन्धन व उसके कारणों को जानना व उसकी मुक्ति के उपाय व साधन करना होता है। वेद एवं इतर ऋषियों द्वारा बनाये शास्त्रों में इस विषय को विस्तार से बताया गया है। ऋषि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश एवं वैदिक विद्वानों के अनेक ग्रन्थों में इस विषय पर अच्छा प्रकाश पड़ता है जिसे पढ़कर इस विषय को समझा जा सकता है। पूरा सत्यार्थप्रकाश अथवा इसके समुल्लास 7 व 9 का अध्ययन करने से इस विषय को अच्छी तरह से जाना जा सकता है।
ईश्वर व आत्मा की सत्तायें अनादि व नित्य हैं। यह काल की सीमा से परे हैं। यह सदा से हैं और सदा रहेंगी। ईश्वर ज्ञानवान तथा सर्वशक्तिमान सत्ता है। हमारी यह सृष्टि ईश्वर की सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता तथा तप से उत्पन्न हुई है। ईश्वर ने यह सृष्टि जीवों को पूर्वकल्प व उसके पूर्वजन्मों में किए कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने व मुक्तात्माओें के कर्मों के अनुसार मुक्ति का सुख व उनको भी उनके कर्मों के अनुसार जन्म देने के लिये उत्पन्न की है। अतः सृष्टि की प्रलय के बाद भी जीवों को उनके कर्मानुसार सुख व दुःख आदि का भोग कराने के लिये सृष्टि की उत्पत्ति व पालन की आवश्यकता होती है जिसे ईश्वर अपने स्वभाव व कर्तव्य भावना से करते हैं। इस प्रकार से जीवों के कर्म कभी समाप्त न होने वाला क्रम है। इसका आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है। इसी कारण से ईश्वर अनादि काल से इस प्रकृति से जीवों को सुख दुःख व मुक्ति आदि प्रदान करने के लिये संसार की रचना व पालन करते आ रहे हैं। आगे भी वह ऐसा करते रहेंगे। इससे सिद्ध होता है कि हमारी यह सृष्टि इससे पूर्व भी अनादि काल से असंख्य व अनन्त बार बनी व प्रलय को प्राप्त हुई है। प्रत्येक सृष्टि में हमारा भी हमारे कर्मानुसार जन्म मरण हुआ है। इस सृष्टि के बाद भी यह सृष्टि अनन्त काल तक अनन्त बार बनेगी व प्रलय को प्राप्त होगी। यह क्रम कभी अवरुद्ध व समाप्त होने वाला नहीं है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा इस व इससे पूर्व अनन्त बार अनेकानेक योनियों में कर्मानुसार जन्म ले चुकी है और आगे भी लेगी। इस रहस्य को जानकर भी जिनको वैराग्य नहीं होता इसका अर्थ यह होता है कि हमारी आत्मा पर अज्ञान व अविद्या के संस्कार विद्यमान हैं। जब यह अविद्या दूर हो जाती है तो मनुष्य वास्तविक ज्ञानी, योगी व विरक्त होकर साधना व उपासना के मार्ग पर चल पड़ता है और उसके बाद उसकी निरन्तर आध्यात्मिक व पारमार्थिक उन्नति होती जाती है जो उसे मोक्ष के निकट ले जाती है। जब तक हम मुक्त नहीं होंगे हमारा जन्म मरण होता रहेगा और मुक्त होने के बाद हम 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द का भोग कर पुनः जन्म व मरण के चक्र में आ फसंगे। यह सत्य वैदिक सिद्धान्त व यथार्थ ज्ञान ईश्वर, जीव व प्रकृति के विषय में है। इस परिवर्तनशील जगत तथा जन्म मरण व उत्पत्ति प्रलय को जानकर मनुष्य को अविद्या से निकल कर सत्य वेदमार्ग का अनुसरण कर मुक्ति प्राप्ति हेतु मुमुक्षु बनना चाहिये। इसी में हम सबकी आत्माओं का कल्याण है। ऐसा नहीं करेंगे तो हम जन्म व मरण के चक्र में फंसे रहेंगे और इस कारण हम सुख व दुःख दोेनों को ही प्राप्त होते रहेंगे।
यह ध्रुव सत्य है कि हमारी यह सृष्टि सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति नामक अनादि व नित्य जड़ पदार्थ से बनी है। ईश्वर ही ने इसे बनाया है। सृष्टि उत्पत्ति का कारण जीव व उसके कर्म होते है। जीव का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना होता है। मोक्ष प्राप्ति तक यह जन्म व मरण की यात्रा चलती है। मोक्ष प्राप्ति पर इस यात्रा में विराम आता है। इसके बाद मोक्ष अवधि पूर्ण होने पर पुनः जीवों वा हमारा जन्म मरण होना आरम्भ हो जाता है। इस जन्म व मरण की व्यवस्था के लिए ही रपरमात्मा इस सृष्टि को बनाते व चलाते हैं तथा यथासमय इसकी प्रलय करते हैं। हमारी यह सृष्टि इससे पूर्व अनन्त व असंख्य बार बन चुकी है आगे भी इसी प्रकार से इसकी उत्पत्ति व प्रलय आदि होते रहेंगे। इन सब रहस्यों को जानकर हमें वेद व ईश्वर की शरण में जाना चाहिये। यही हमारे जीवन के लिये सबसे अधिक सार्थक, उपयोगी व उन्नति का मार्ग है। इसके विपरीत पतन व दुःखों का मार्ग है जिसका हमें त्याग करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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