क्या हमें अपने इतिहास की परतंत्रता का बोध है ?
विवेक आर्य
आज स्वतंत्रा भारत होते हुए भी भारतीय इतिहासकार मूलत विदेषी इतिहासकारों और मुग़लों के वेतनभोगी इतिहास लेखकों का अनुसरण करते दीखते हैं। उदित होती मराठा शक्ति और परास्त होती मुग़ल ताकत को मुस्लिम वेतन भोगी लेखक कैसे सहन कर सकते थे? मुग़लों के टुकड़ों पर पलने वालों के लिए तो हिन्दू मराठा लुटेरे और बाबर-तैमूर के वंषज शांतिप्रिय और न्यायप्रिय स्वदेषी शासक ही रहेंगे। यही मानदंड अंग्रेज इतिहासकारों पर भी लागू होता है क्यूंकि मध्य एवं उत्तर भारत में मराठा कई दशकों तक अंग्रेजों को भारत का शासक बनने से रोकते रहे थे। एक प्रश्न उठता है कि इतिहास के इस लंबे 100 वर्ष के समय में भारत के असली शासक कौन थे? शक्तिहीन मुग़ल तो दिल्ली के नाममात्रा के शासक थे परन्तु उस काल का अगर कोई असली शासक था, तो वह थे मराठे। षिवाजी महाराज द्वारा देष, धर्म और जाति की रक्षा के लिए जो अग्नि महाराष्ट्र से प्रज्वलित हुई थी, उसकी सीमाएँ महाराष्ट्र के बाहर फैल कर देष की सीमाओं तक पहुँच गई थी।
इतिहास के सबसे रोचक इस स्वर्णिम सत्य को देखिये कि जो मतान्ध औरंगजेब वीर षिवाजी महाराज को पहाड़ी चूहा कहता था, उन्ही शिवाजी के वंषजों को उसी औरंगजेब के वंषजों ने महाराजाधिराज और वज़ीरे मुतालिक के पद से सुषोभित किया था। जिस सिंधु नदी के तट पर आखिरी हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान के घोड़े पहुँचे थे, उसी सिंधु नदी पर कई शताब्दियों के बाद अगर भगवा ध्वज लेकर कोई पहुँचा तो वह मराठा घोड़ा था। सिंधु के किनारों से लेकर मदुरै तक, कोंकण से लेकर बंगाल तक मराठा सरदार सभी प्रान्तों से चौथ के रूप में कर वसूल करते थे, स्थान स्थान पर अपने विरुद्ध उठ रहे विद्रोहों को दबाते थे, जंजीरा के सिद्दियों को हिन्दू मंदिरो को भ्रष्ट करने का दंड देते थे, पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं को जबरदस्ती ईसाई बनाने पर उन्हें भी यथायोग्य दंड देते थे। स्वयं को अजेय और विश्वविजेता समझने वाली अंग्रेज सरकार से मराठे समुद्री व्यापार करने के लिए टैक्स लेते थे। मुसलमानों द्वारा नष्ट किए गए हिन्दू तीर्थों और मन्दिरों का पुनरुद्धार करते थे, जबरन मुस्लमान बनाये गए हिन्दुओं को फिर से शुद्ध कर हिन्दू बनाते थे। मराठों के राज में सम्पूर्ण आर्यावर्त राष्ट्र में फिर से भगवा झन्डा लहराता था और वेद, गौ और ब्राह्मण की रक्षा होती थी। अंग्रेज और उनके मानसिक गुलाम साम्यवादी लेखकों द्वारा एक शताब्दी से भी अधिक के हिंदुओं के इस स्वर्णिम राज को पाठ्यपुस्तकों में न लिखा जाना इतिहास के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?
उल्टी गंगा बहा दी
वीर षिवाजी का जन्म 1627 में हुआ था। उनके काल में देष के हर भाग में मुसलमानों का ही राज्य था। यदा कदा कोई हिन्दू राजा संघर्ष करता तो उसकी हार, उसी की कौम के किसी विश्वासघाती के कारण हो जाती, हिन्दू मंदिरों को भ्रष्ट कर दिया जाता, उनमें गाय की क़ुरबानी देकर हिन्दुओं को नीचा दिखाया जाता था। हिन्दुओं की लड़कियों को उठा कर अपने हरम की शोभा बढ़ाना अपने आपको धार्मिक सिद्ध करने के समान था। ऐसे अत्याचारी परिवेष में वीर शिवाजी का संघर्ष हिन्दुओं के लिए एक वरदान से कम नहीं था। हिन्दू जनता के कान सदियों से यह सुनने के लिए थक गए थे कि किसी हिन्दू ने मुसलमान पर विजय प्राप्त की। वर्ष 1642 से षिवाजी ने बीजापुर सल्तनत के किलो पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। कुछ ही वर्षों में उन्होंने मुग़ल किलों को अपनी तलवार का निषाना बनाया। औरंगजेब ने षिवाजी को परास्त करने के लिए अपने बड़े बड़े सरदार भेजे पर सभी नाकामयाब रहे। आखिर में धोखे से षिवाजी को आगरा बुलाकर कैद कर लिया जहाँ पर अपनी चतुराई से षिवाजी बच निकले। औरंगजेब पछताने के सिवाय कुछ न कर सका। षिवाजी ने मराठा हिन्दू राज्य की स्थापना की और अपने आपको छत्रापति से सुषोभित किया। शिवाजी की अकाल मृत्यु से उनका राज्य महाराष्ट्र तक ही फैल सका था। उनके पुत्रा शम्भा जी में चाहे कितनी भी कमिया हो पर अपने बलिदान से शम्भा जी ने अपने सभी पाप धो डाले। औरंगजेब ने शम्भा जी के आगे दो ही विकल्प रखे थे या तो मृत्यु का वरण कर ले अथवा इस्लाम को ग्रहण कर ले। वीर शिवाजी के पुत्रा ने भयंकर अत्याचार सह कर मृत्यु का वरण कर लिया पर इस्लाम को ग्रहण कर अपनी आत्मा से दगाबाजी नहीं की और हिन्दू स्वतंत्राता रूपी वृक्ष को अपने रुधिर से सींच कर और हरा भरा कर दिया।
शिवाजी की मृत्यु के पष्चात औरंगजेब ने सोचा कि मराठों के राज्य को नष्ट कर दे परन्तु मराठों ने वह आदर्ष प्रस्तुत किया जिसकी हिन्दू जाति को सख्त आवष्यकता थी। उन्होंने किले आदि त्याग कर पहाड़ों और जंगलों की राह ली। संसार में पहली बार मराठों ने छापामार युद्ध को आरंभ किया। जंगलों में से मराठे वीर गति से आते और भयंकर मार काट कर, मुगलों के षिविर को लूट कर वापिस जंगलों में भाग जाते। शराब-षबाब की शौकीन आरामपस्त मुग़ल सेना इस प्रकार के युद्ध के लिए कहीं से भी तैयार नहीं थी। दक्कन में मराठों से 20 वर्षों के युद्ध में औरंगजेब बूढ़ा होकर निराष हो गया, करीब 3 लाख की उसकी सेना काल की ग्रास बन गई। उसके सभी विश्वासपात्रा सरदार या तो मर गए अथवा बूढ़े हो गए। पर वह मराठों के छापामार युद्ध से पार न पा सका।
पाठक मराठों की विजय का इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि औरंगजेब ने जितनी संगठित फौज शिवाजी के छोटे से असंगठित राज्य को जीतने में लगा दी थी उतनी फौज में तो उससे 10 गुना बड़े संगठित राज्य को जीता जा सकता था। अंत में औरंगजेब की भी 1705 में मृत्यु हो गई परन्तु तब तक पंजाब में सिख, राजस्थान में राजपूत, बुंदेलखंड में छत्रासाल, मथुरा, भरतपुर में जाटों आदि ने मुगलिया सल्तनत की ईंट से ईंट बजा दी थी। मराठों द्वारा औरंगजेब को दक्कन में उलझाने से मुगलिया सल्तनत इतनी कमजोर हो गई कि बाद में उसके उतराधिकारियों की आपसी लड़ाई के कारण ताष के पत्तों के समान वह ढह गई।
महाराष्ट्र से भारत के कोने कोने तक
मराठों ने मराठा संघ की स्थापना कर महाराष्ट्र के सभी सरदारों को एक तार में बांध कर, अपने सभी मतभेदों को भुला कर, संगठित हो अपनी शक्ति का पुनः निर्माण किया जो षिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद लुप्त सी हो गई थी। इसी शक्ति से मराठा वीर सम्पूर्ण भारत पर छाने लगे। महाराष्ट्र से तो मुगलों को पहले ही उखाड़ दिया गया था। अब शेष भारत की बारी थी। सबसे पहले निज़ाम के होष ठिकाने लगाकर मराठा वीरों ने बची हुई चौथ और सरदेषमुखी की राषी को वसूला गया। दिल्ली में अधिकार को लेकर छिड़े संघर्ष में मराठों ने सैयद बंधुओं का साथ दिया। 70000 की मराठा फौज को लेकर हिन्दू वीर दिल्ली पहुँच गये। इससे दिल्ली के मुसलमान क्रोध में आ गये। इस मदद के बदले मराठों को सम्पूर्ण दक्षिण भारत से चौथ और सरदेषमुखी वसूलने का अधिकार मिल गया।
मालवा के हिन्दू वीरों ने जय सिंह के नेतृत्व में मराठों को मुगलों के राज से छुड़वाने के लिए प्रार्थना भेजी क्यूंकि उस काल में केवल मराठा शक्ति ही मुगलों के आतंक से देष को स्वतंत्रा करवा सकती थी। मराठा वीरों की 70000 की फौज ने मुगलों को हरा कर भगवा झंडे से पूरे प्रान्त को रंग दिया। बुंदेलखंड में वीर छत्रासाल ने अपने स्वतंत्रा राज्य की स्थापना की थी। षिवाजी और उनके गुरु रामदास को वे अपना आदर्ष मानते थे। वृद्धावस्था में उनके छोटे से राज्य पर मुगलों ने हमला कर दिया जिससे उन्हें राजधानी त्याग कर जंगलों की शरण लेनी पड़ी।इस विपत्ति काल में वीर छत्रासाल ने मराठों को सहयोग के लिए आमंत्रित किया। मराठों ने वर्षा ऋतु होते हुए भी आराम कर रही मुग़ल सेना पर धावा बोल दिया और उन्हें मार भगाया। वीर छत्रासाल ने अपनी राजधानी में फिर से प्रवेष किया। मराठों के सहयोग से वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्रा बना लिया और उनकी मृत्यु के पष्चात उनके राज्य का तीसरा भाग बाजीराव को मिला।
इसके पष्चात मराठा सेना गुजरात की ओर पहुँची। मुगलों ने अभय सिंह को मराठों से युद्ध लड़ने के लिये भेजा। उसने एक स्थान पर धोखे से मराठा सरदार की हत्या तक कर दी पर मराठा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने युद्ध में जो जौहर दिखाए कि मराठा तलवार की धाक सभी ओर जम गई। इधर दामा जी गायकवाड़ ने अभय सिंह के जोधपुर पर हमला कर दिया जिसके कारण उसे वापिस लौटना पड़ा। मराठों ने बरोडा और अहमदाबाद पर कब्ज़ा कर लिया। दक्षिण में अरकाट में हिन्दू राज को गद्दी से उतार कर एक मुस्लिम वहां का नवाब बन गया था। हिन्दू राजा के मदद मांगने पर मराठों ने वहाँ पर आक्रमण कर दिया और मुस्लिम नवाब पर विजय प्राप्त की। मराठों को वहाँ से एक करोड़ रुपया प्राप्त हुआ। इससे मराठों का कार्य क्षेत्रा दक्षिण तक फैल गया। इसी प्रकार बंगाल में भी गंगा के पष्चिमी तट तक मराठों का विजय अभियान जारी रहा एवं बंगाल से भी उचित राषि वसूल कर मराठे अपने घर लौटे। मैसूर में भी पहले हैदर अली और बाद में टीपू सुल्तान से मराठों ने चौथ वसूली की थी।
दिल्ली के कागज़ी बादषाह ने फिर से मराठों का विरोध करना आरंभ कर दिया। बाजीराव ने मराठों की फौज को जैसे ही दिल्ली भेजा, उनके किलों की नीवें मराठा सैनिकों की पदचाप से हिलने लगी। आखिर में अपनी भूल का प्रायष्चित करके मराठा क्षत्रियों से उन्होंने पीछा छुड़ाया। अहमद शाह अब्दाली से युद्ध के काल में ही मराठा उसका पीछा करते हुए सिंध नदी तक पहुँच गये थे। पंजाब की सीमा पर कई शताब्दियों के मुस्लिम शासन के पष्चात मराठा घोड़े सिंध नदी तक पहुँच पाए थे। मराठों के इस प्रयास से एवं पंजाब में मुस्लिम शासन के कमजोर होने से सिख सत्ता को अपनी उन्नति करने का यथोचित अवसर मिला जिसका परिणाम आगे महाराजा रंजीत सिंह का राज्य था। इस प्रकार सिंध के किनारों से लेकर मदुरै तक, कोंकण से लेकर बंगाल तक मराठा सरदार सभी प्रान्तों से चौथ के रूप में कर वसूल करते थे, स्थान स्थान पर अपने विरुद्ध उठ रहे विद्रोहों को दबाते थे और भगवा पताका को फहरा कर हिन्दू पद पादषाही को स्थिर कर रहे थे। इन सब प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि करीब एक शताब्दी तक मराठों का भारत देष पर राज रहा जोकि विषुद्ध हिन्दू राज्य था।
ब्रह्मेन्द्र स्वामी और सिद्दी मुसलमानों का अत्याचार
ब्रह्मेन्द्र स्वामी को महाराष्ट्र में वही स्थान प्राप्त था जो स्थान षिवाजी के काल में समर्थ गुरु रामदास को प्राप्त था। सिद्दी कोंकण में राज करते थे मराठों के विरुद्ध पुर्तगालियों, अंग्रेजों और डचों आदि की सहायता से उनके इलाकों पर हमले करते थे। इसके अलावा उनका एक पेषा निर्दयता से हिन्दू लड़के और लड़कियों को उठा कर ले जाना और मुसलमान बनाना भी था। इसी सन्दर्भ में सिद्दी लोगों ने भगवान परषुराम के मंदिर को तोड़ डाला। यह मंदिर ब्रह्मेन्द्र स्वामी को बहुत प्रिय था। उन्होंने निष्चय किया कि वह कोंकण देष में जब तक वापिस नहीं आयेंगे जब तक उनके पीछे अत्याचारी मलेच्छ को दंड देने वाली हिन्दू सेना नहीं होगी क्यूंकि सिद्दी लोगों ने मंदिर और ब्राह्मण का अपमान किया हैं। स्वामी जी वहाँ से सतारा चले गए और अपने षिष्यों शाहू जी और बाजीराव को पत्रा लिख कर अपने संकल्प की याद दिलवाते रहे। मराठे उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। सिद्दी लोगों का आपसी युद्ध छिड़ गया, बस मराठे तो इसी की प्रतीक्षा में थे। उन्होंने उसी समय सिद्दियों पर आक्रमण कर दिया। जल में जंजिरा के समीप सिद्दियों के बेड़े पर आक्रमण किया गया और थल पर उनकी सेना पर आक्रमण किया गया। मराठों की शानदार विजय हुई और कोंकण प्रदेष मराठा गणराज्य का भाग बन गया।
गोवा में पुर्तगाली अत्याचार
गोआ में पुर्तगाली सत्ता ने भी मजहबी मतान्धता में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हिन्दू जनता को ईसाई बनाने के लिए दमन की नीति का प्रयोग किया गया था। हिन्दू जनता को अपने उत्सव बनाने की मनाही थी। हिन्दुओं के गाँव के गाँव ईसाई न बनने के कारण नष्ट कर दिए गये थे। सबसे अधिक अत्याचार ब्राह्मणों पर किया गया था। सैकड़ों मंदिरों को तोड़ कर गिरिजाघर बना दिया गया था। कोंकण प्रदेष में भी पुर्तगाली ऐसे ही अत्याचार करने लगे थे। ऐसे में वहां की हिन्दू जनता ने तंग आकर बाजीराव से गुप्त पत्रा व्यवहार आरंभ किया और गोवा के हालात से उन्हें अवगत करवाया। मराठों ने कोंकण में बड़ी सेना एकत्रा कर ली और समय पाकर पुर्तगालियों पर आक्रमण कर दिया। एक एक कर उनके कई किलों पर मराठों का अधिकार हो गया।
पुर्तगाल से अंटोनियो के नेतृत्व में बेड़ा लड़ने आया पर मराठों के सामने उसकी एक न चली। वसीन के किले के चारों और मराठों ने चिम्मा जी अप्पा के नेतृत्व में घेरा दाल दिया था। वह घेरा कई दिनों तक पड़ा रहा था। अंत में आवेष में आकर अप्पा जी ने कहा कि तुम लोग अगर मुझे किले में जीते जी नहीं ले जा सकते तो कल मेरे सर को तोप से बांध कर उसे किले की दिवार पर फेंक देना कम से कम मरने के बाद तो मैं किले मैं प्रवेष कर सकूँगा। वीर सेनापति के इस आवाहन से सेना में अद्वितीय जोष भर गया और अगले दिन अपनी जान की परवाह न कर मराठों ने जो हमला बोला कि पुर्तगाल की सेना के पाँव ही उखड़ गए और किला मराठों के हाथ में आ गया। यह आक्रमण गोआ तक फैल जाता पर तभी उत्तर भारत पर नादिर शाह के आक्रमण की खबर मिली। उस काल में केवल मराठा संघ ही ऐसी शक्ति थी जो इस प्रकार की इस राष्ट्रीय विपदा का प्रतिउत्तर दे सकती थी। नादिर शाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर 15000 मुसलमानों को अपनी तलवार का षिकार बनाया। उसका मराठा पेषवा बाजीराव से पत्रा व्यवहार आरंभ हुआ। जैसे ही उसे सूचना मिली कि मराठा सरदार बड़ी फौज लेकर उससे मिलने आ रहे हैं वह दिल्ली को लूटकर, मुगलों के सिंहासन को उठा कर अपने देष वापिस चला गया।
कालांतर में मराठों के आपसी टकराव ने मराठा संघ की शक्ति को सीमित कर दिया जिससे अंग्रेजों से युद्ध में उनकी हार हो गई और हिन्दू पद पादषाही का मराठा स्वराज्य का सूर्य सदा सदा के लिए अस्त हो गया।