जिस अपार बहुमत के साथ जनता ने मोदी जी के नेतृत्व में नयी सरकार को चुना है, उससे स्पष्ट है कि जनता की अपेक्षायें काफी बड़ी और बढ़ी हैं, मोदी जी भी उसे भलीभांति समझ रहे होंगे। जब अपेक्षाएं बड़ी होती हैं तो अंसन्तोष भी शीघ्र ही उभरता है। आजादी के छ: दशकों के बाद भी देश की बहुत बड़ी आबादी मूलभूत जरूरतों से वंचित है। देश में विरोधाभासी व उपरनिष्ठ विकास के सारे तत्व मौजूद हैं। इसलिए नयी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी की शुरुआत कहां से की जाए। अपने देशव्यापी चुनाव अभियान एवं चुनावों परिणामों के उपरांत अपने संबोधनों में मोदी जी गांवों और गरीबों से जुड़ने की बातें करते दिखे हैं, जिससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि नयी सरकार की प्राथमिकता गांवों व ग्रामीणों के हालात को दुरुस्त करने की हो सकती है। नयी सरकार के गठन के बाद मैंने बिहार के कुछ जिलों, वैशाली, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, पटना, जहानाबाद, अरवल और गया, की ग्रामीण जनता से सीधा संवाद किया और उनके विचारों और सुझावों को आप के समक्ष इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं। जनता के विचार में सबसे जरूरी है कि अपने शुरुआती दौर में नयी सरकार मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के साथ-साथ योजनाओं और नीतियों का समुचित कार्यान्वयन ग्रामीण क्षेत्रों में करने की दिशा में सार्थक पहल करे। वैसे तो देश की जनता की, विशेषकर ग्रामीण जनता की, असंख्य समस्याएं हैं, अनेकों मुद्दों हैं लेकिन मेरे विचार में अगर रोज़मर्रा की जरूरतों को जनता के पास पहुंचाने में नयी सरकार सफल हो पाती है तो बाकी काफी समस्याओं का निदान करना स्वत: ही सरल हो जाएगा। जनता की सबसे अहम जरूरत भोजन है, जिसके लिए जरूरी है कि खाद्यान्न वस्तुओं के दाम न बढ़े। इसके मुख्य कारणों में से कृषि पर निर्भर होना है। क्षेत्र की धीमी विकास गति तथा उसका मानसून। द्रष्टव्य है कि नब्बे के दशक के सुधारों का इस क्षेत्र को कोई लाभ नहीं मिला है। गेहूं तथा चावल की पिछले दो दशकों की विकास दर तो पहले के दशकों से भी कम है। जब देश में अनेक प्रतिष्ठित शोध -संस्थान उपलब्ध हैं तो कृषि क्षेत्र के सुधारों जैसे उन्नत बीज की उपल्ब्धता एवं अन्य तकनीकों को बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। बेहतर बीज की उपल्ब्धता नहीं है और इसके कारण उत्पादन पिछले कई दशकों से प्रभावित होता आया है। रूपए के गिरने से भी खाद्यानों के दामों में तेज़ी आती है। सिंचाई परियोजनाओं को बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है। भू-जल के अंधाधुंध दोहन को उचित कानून को प्रभावी तरीके से लागू कर रोकने की आवश्यकता है।
सरकारी योजनाएं और नीतियां जब तक जनता की बुनियादी जरूरतों से नहीं जुड़ेंगी, तब तक विकास की सार्थकता पर सवालिया निशान खड़े होते ही रहेंगे। शासन को सर्वहितकारी बनाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जो सहज हो, उसमें प्रशासनिक जटिलताएं कम हों और संसाधनों का समुचित सदुपयोग हो। आजादी के इतने सालों बाद भी आज हमारे देश में अगर लोगों की भोजन, आवास, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाई हैं तो फिर ऐसे में सिर्फ सत्ता की राजनीति के लिए विकास और सुशासन की बातें करना स्वत: ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सार्थकता पर प्रश्न-चिन्ह खड़े करता है।
नई सरकार के समर्थकों और नुमाइंदों को ‘अच्छे दिन के नारे पर इतराने से परहेज कर यह सुनिश्चित करना होगा कि हर किसी को ये सारी मूलभूत सुविधाएं कैसे मुहैया कराई जाएं। विकास हमेशा भविष्योन्मुखी होता है और उसे हासिल करने के लिए विकास की अवधारणा में जनता की आवाज को समाहित करने की जरूरत है। आज सबसे बड़ी चुनौती जनता के हित में बनी नीतियों को जनता के लिए सुलभ कराने की है। किसी भी स्वस्थ- व्यवस्था के लिए यह बेहद जरूरी है कि सत्ता का विकेंद्रीकरण हो और आम आदमी की सत्ता और सरकार में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी हो। भव्य व महात्वाकांक्षी योजनाओं की लोक-लुभावन घोषणाओं को प्रभावी क्रियान्वयन का अमलीजामा पहनाकर ही शासन अपनी महत्ता और सार्थकता सिद्ध कर सकता है। जिस तरह से सरकारी योजनाओं की आड़ में अब तक आम आदमी को उसकी जरूरतों से मरहूम रखकर लूटा-खसोटा गया है, वैसे में इस नई सरकार से जनता की उम्मीदें और आकांक्षाएं काफी बड़ी और बढ़ी हैं। आंकड़ों की बाजीगरी से आम जनता का हित नहीं सधता और ऐसा करने वालों को जनता नकारती भी आई है। जनता के विचार में अधिसंख्य आबादी के जीवन स्तर में सुधार ही विकास का सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है और नई सरकार की प्राथमिकताओं में ये सर्वोपरि होनी चाहिए।
हाल के दिनों में देश के अनेक प्रदेशों (विशेषकर बिहार में) में जिस प्रकार से विकास के आंकड़ों की आड़ में राजनीतिक हितों की पूर्ति का घिनौना खेल खेला गया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है और इस परिस्थिति को बदलने की जिम्मेवारी ही अपार बहुमत के साथ जनता ने नई सरकार को सौंपी है। अगर नई सरकार इस बदलाव को लाने में विफल होती है तो संसदीय शासन-प्रणाली की विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान लगने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
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