नेताओं का अहंकार और संसार का भविष्य

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वर्तमान में सभी देशों की राजनीति और विदेश नीति पूर्णतया अहमकेंद्रित हो गई है । स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक देश दूसरे देश को नीचा दिखाने की योजनाओं में लगा हुआ है । मानवता का हितचिन्तन और सारे भूमंडलवासियों को अपना मानने की पवित्र भावना राजनीति और राजनीतिक लोगों के मन मस्तिष्क से कहीं बहुत दूर हो चुकी लगती है । कभी कभी तो ऐसा लगता है कि संसार को आतंकवादियों से भी अधिक खतरा वर्तमान राजनीतिक लोगों से है । क्योंकि राजनीतिज्ञों की भाषा कई बार आतंकवादियों की भाषा से भी अधिक खराब हो जाती है । जो विश्व विनाश की योजनाओं को प्रकट करने वाली होती है ।
उग्र राष्ट्रवाद या उग्र सांप्रदायिक सोच इस प्रकार की खराब भाषा और योजनाओं को अधिक खराब करती है। जब संसार इस्लामिक राष्ट्र और ईसाई राष्ट्र नामक दो खेमों में विभाजित हो और भारत जैसे देश यह भी समझ नहीं पा रहे हों कि वह किस खेमे में है या उन्हें कौन सा खेमा तैयार कर लेना चाहिए ? – तब नेताओं की इस प्रकार की खराब भाषा और भी अधिक भयानक संदेश देने लगती है।

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य

इस समय की स्थिति यह है कि चीन अपने मूल साम्राज्यवादी और विस्तारवादी दृष्टिकोण के चलते संसार के लिए ‘भस्मासुर’ बनता जा रहा है तो अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप (तत्कालीन) अपनी हठधर्मिता के चलते ‘किसी भी निर्णय’ को लेने के लिए तैयार बैठे दिखाई देते हैं । रूस के पुतिन चाहते हैं कि चीन की ‘बुद्धि ठिकाने’ लाने का काम कोई दूसरा करे और हथियार उनके बिक जाएं। उत्तरी कोरिया के किम जोंग की अपनी तानाशाही प्रवृत्ति संसार के लिए खतरे का संकेत दे रही है तो अफगानिस्तान अपने ढंग से विनाश की नई कहानी लिखने में व्यस्त दिखाई देता है । इसी प्रकार पाकिस्तान अपनी आतंकवादी गतिविधियों से बाज आने को तैयार नहीं दिखाई देता तो नेपाल जैसा छोटा सा देश चीन की गोद में बैठा हुआ जिन भारत विरोधी गतिविधियों को कर रहा है वह भी संसार के लिए कोई शुभ संकेत नहीं दे रही हैं। ऐसी परिस्थितियों में कोई भी आतंकी यदि किसी देश में अपनी सरकार बनाने में सफल हो गया तो वह इन सारे तथाकथित विश्व नेताओं की खराब सोच से भी आगे जाकर विश्व विनाश की कल्पना को साकार कर सकता है? जब उग्र राष्ट्रवाद और उग्र सांप्रदायिकता किसी देश की राजनीति को तय करने में सफल हो जाते हैं तो वहाँ पर किसी भी तानाशाह के पनपने या किसी भी आतंकी के द्वारा सत्ता संभालने की पूरी – पूरी सम्भावनाएं बन जाती हैं।

इस्लामिक आतंकवाद और विश्व शान्ति

इसी प्रकार विश्वव्यापी इस्लामिक आतंकवाद अपनी ओर से विश्व में विनाश लाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा है। इस्लामिक आतंकवाद को हमें इस्लाम के मूलतत्ववाद से जोड़कर देखना चाहिए जिसमें सारे संसार को दारुल – इस्लाम के झंडे तले ले आना प्रमुखता से कार्य करता है। जैसे विभिन्न देशों की सरकारों की अपनी -अपनी विदेश नीति हमें प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप से कभी-कभी दिखाई दे जाया करती है या हमारे द्वारा समझ ली जाया करती है वैसे ही हमें इस्लामिक देशों की अपनी संयुक्त विदेश नीति पर भी ध्यान देना चाहिए । जो केवल और केवल यही संकेत व संदेश देती है कि सारे संसार को इस्लाम के झंडे के नीचे ले आना उनकी विदेश नीति का सामूहिक उद्देश्य है। उनका यह सामूहिक उद्देश्य निश्चय ही संसार को मिटाने की योजनाओं में लगा हुआ है। देशों की विदेश नीति से अलग हटकर इन देशों की सामूहिक विदेश नीति का यह मौलिक तत्व निश्चय ही संसार के लिए सबसे अधिक खतरनाक है । जब व्यक्ति किसी गुट से अपने आप को बांध लेता है तो वह पक्षपाती और अन्यायी हो जाता है। क्योंकि ऐसी परिस्थिति में उसे अपने गुट के लोगों के समर्थन में बोलना ही उचित लगता है या कहिए कि ऐसी परिस्थिति में उसके लिए यह अनिवार्य कर दिया जाता है कि उसे अपने पक्ष के व्यक्ति की ही बात को न्यायसंगत और उचित ठहराना है। इस्लामिक आतंकवाद संसार में केवल इसीलिए फैल और पनप रहा है कि इसे संरक्षण देने वाले या इसकी गतिविधियों को उचित ठहराने वाले एक नहीं कई देश हैं। जब आतंकवाद को संरक्षण व प्रोत्साहन देना किसी किसी भी देश की विदेश नीति का एक अंग हो जाता है तो उससे संसार में अराजकता का परिवेश सृजित होता है।

ईसाई गुटबंदी भी है खतरनाक

इस्लामिक आतंकवाद को कई इस्लामिक देश प्रोत्साहित करते दिखाई देते हैं तो इस आतंकवाद का सामना करने के लिए ईसाई देशों में भी जिस प्रकार की एकता को देखा जा रहा है वह भी वर्तमान विश्व की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है । इससे पता चलता है कि विश्व का भविष्य बहुत ही अधिक अंधकारमय है। वास्तव में जैसे इस्लामिक मूलतत्ववाद के अंतर्गत दारुल – इस्लाम इस्लामिक आतंकवाद का प्रमुख उद्देश्य है, वैसे ही सारे संसार को ईसाइयत के रंग में रंग देना ईसाई देशों का भी एक सामूहिक उद्देश्य है। वैश्विक मंचों पर चाहे ईसाई और इस्लाम मजहब में आस्था रखने वाले देश और उनके नेता धर्मनिरपेक्षता को वर्तमान विश्व की अनिवार्यता चाहे कितनी ही बार कह लें, परंतु सच यह है कि उनके भीतर अपने -अपने मजहब में संसार को कर देखने की योजनाएं सदा बनती रहती हैं।
हमें राजनीति के विषय में यह समझ लेना चाहिए कि इसमें बाहरी जगत को भीतरी जगत प्रभावित करता है। बाहर जो कुछ दीख रहा होता है वह वैसा ही नहीं होता जैसा हमको दिखाई दे रहा है । निश्चित रूप से बाहरी जगत नेताओं के आंतरिक जगत से प्रभावित रहता है। कागजों की लिखा पढ़ी और नेताओं के भाषण चाहे जितनी विश्व शान्ति की बात करते हों ,परंतु इनके भीतर एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपने मजहब के झंडे को ऊंचा करने की योजनाएं बनती रहती हैं । यही कारण है कि संसार में विश्व शान्ति के भाषणों के होने के उपरान्त भी कहीं भी शान्ति दिखाई नहीं देती।

मोदी जी से जुड़ी है सब की आशाएं

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में उनके पूर्ववर्त्ती ओबामा ने कहा था कि इस व्यक्ति के हाथों में अमेरिका की बागडोर जाना कतई ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि यह संसार के लिए कोई भी ऐसा घातक निर्णय ले सकता है जिससे पूरी मानवता पर संकट आ सकता है। यद्यपि अब अमेरिका की जनता ने ट्रम्प को सत्ता से बाहर कर विश्व को चैन की सांस लेने के लिए अवसर दिया है । परन्तु यह भी सत्य है कि ट्रम्प के स्थान पर फिर कोई नया ‘ट्रम्प’ विश्व के लिए पैदा हो जाएगा। यहाँ पर किसी व्यक्ति विशेष का नाम ‘ट्रम्प’ नहीं है, बल्कि ट्रम्प एक विचारधारा है जो हठाग्रही, दुराग्रही और मताग्रही राजनीतिज्ञों के अस्तित्व की ओर संकेत करती है । विश्व को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो सहज, सरल ,ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ और मानवता के प्रति संकल्पित हो। दुर्भाग्य से ईसाई जगत और इस्लाम जगत में अभी ऐसा नेता दूर – दूर तक दिखाई नहीं देता। यद्यपि भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी अपनी वैश्विक साख बनाते हुए अपने भीतर इन गुणों को स्पष्ट करते जा रहे हैं।
भारत के प्रधानमन्त्री श्री मोदी जितना ही अधिक अपनी वैश्विक ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा को प्रकट करते जा रहे हैं उतने ही अधिक अनुपात में विश्व स्तर पर लोग उनकी नीतियों के प्रशंसक होते जा रहे हैं। उनकी बातों पर लोग विश्वास करते हैं और उनके भीतर एक ऐसे विश्व नेता के स्वरूप को देखते हैं जो वास्तव में मानवता का हितचिंतक हो सकता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी को विश्व स्तर पर काम करने का अवसर मिलना चाहिए। उनके रहते हम संयुक्त राष्ट्र में व्यापक सुधार होते देख सकते हैं। इतना ही नहीं वह गरीब देशों की आवाज बन कर भी उभरते हुए दिखाई दे रहे हैं। वह युद्ध के लिए तत्पर होकर भी युद्ध से संसार को बचाने के लिए हरसम्भव प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं । वह किसी भी युद्धोन्मादी देश के प्रति युद्ध के लिए तत्पर हैं और जो देश स्वयं को शान्ति के प्रति संकल्पित दिखाता है उसके प्रति वह मैत्री का भाव दिखाने के लिए भी सदैव तैयार रहते हैं । किसी भी विश्व नेता के भीतर इन्हीं गुणों का होना आवश्यक होता है।

चीन ने दिया है गैर जिम्मेदारी का परिचय

चीन ने कोरोनावायरस को फैलाकर संसार के प्रति अपनी गैरजिम्मेदारी का परिचय दे दिया है। भारत के विश्वबंधुत्व या ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के उत्कृष्ट भाव के विपरीत आचरण करते हुए चीन ने केवल अपने -अपने बारे में सोचकर यह दिखाया है कि उसके लिए ‘परिवार’ की परिभाषा बहुत संकीर्ण है। जैसे इस्लामिक देशों के लिए इस्लाम में विश्वास रखने वाले लोग ही उनके परिवार के लोग हैं और ईसाई देशों के लिए ईसाइयत में विश्वास रखने वाले लोग ही उनके परिवार के लोग हैं । वैसे ही चीन ने भी यह सिद्ध किया है कि जो लोग कम्युनिस्ट विचारधारा को मानते हैं या उसमें विश्वास रखते हैं केवल वही उनके अपने परिवार के सदस्य हैं ।
चीन ने यह भी बता दिया है कि चाहे सारा विश्व मर जाए पर केवल वह स्वयं जीवित रहना चाहिए। ऐसी स्वार्थपूर्ण सोच संसार के लिए घातक होती है। वास्तव में ऐसी सोच ही विश्व विनाश का कारण बन सकती है। जब तक सकारात्मक सोच वाली शक्तियां संसार में काम करती रहेंगी तब तक इस प्रकार की नकारात्मक सोच को दबाकर रखे जाने की सम्भावना है। पर जब चीन जैसा भस्मासुर अपना विस्तार करेगा तो नकारात्मक शक्तियां विध्वंसकारी बनकर सामने आएंगी । जिससे विश्व विनाश को प्राप्त हो सकता है।
कोरोनावायरस से अमेरिका को बहुत बड़ी क्षति हुई है। आर्थिक रूप से विश्व का ‘बेताज बादशाह’ बनने के जिस सपने को संजोकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग आगे बढ़े थे, अब उनके घोड़े को अमेरिका ने रोक दिया है। जिससे विश्व महायुद्ध की विभीषिकाओं की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। हो सकता है ये लपटें अभी विकराल रूप ना लें , पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि क्रोध को पी लेना एक अलग बात है और क्रोध को शान्त कर लेना एक अलग बात है । यदि इस समय क्रोध को पीकर अमेरिका या अन्य देश आगे बढ़ते हैं तो वह कभी न कभी ‘मूत्र’ के रुप में अवश्य बाहर निकलेगा। अतः क्रोध का पीना भविष्य के विनाश का संकेतक है।

वर्तमान में अमेरिका की स्थिति

इस समय अमेरिका भारत के निकट आता हुआ दिखाई दे रहा है । वास्तव में अमेरिका का भारत की ओर बढ़ता मित्रता का हाथ आत्मीयता से बढ़ाया गया हाथ नहीं है । विश्व शान्ति इसका उद्देश्य नहीं है और ना ही मानवता के भविष्य को संवारने की कोई योजना इसके पीछे दिखाई देती है। इसके पीछे अमेरिका के अपने स्वार्थ छुपे हैं। इन स्वार्थों में विश्व विनाश की योजनाएं बनती हुई दिखाई दे रही हैं।
अमेरिका उभरते हुए भारत के कंधों को तोड़ देना चाहता है , इसलिए अपने सारे हथियारों को वह भारत के कंधों पर रखकर चलाना चाहता है। उसका हरसम्भव प्रयास है कि तीसरे विश्व युद्ध का मैदान भारत और चीन बनें। इस प्रकार की मानसिकता से पता चलता है कि अमेरिका विश्व युद्ध को टालने की नहीं बल्कि उसके लिए एशिया महाद्वीप में नई भूमि तलाशने की कोशिश कर रहा है। जहाँ युद्ध के लिए भूमि तलाशी जा रही हो वहाँ आप अनुमान लगा सकते हैं कि वहाँ युद्ध को कितनी देर के लिए टाला जा सकता है ? यदि अब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता से हट भी गए हैं तो भी विश्व नेताओं की ऐसी मानसिकता पर प्रतिबंध लगता हुआ दिखाई नहीं देता। वैसे भी राजनीति को विचारधाराएं प्रेरित, प्रभावित और संचालित किया करती हैं, व्यक्ति नहीं।
स्पष्ट है कि भविष्य में भी ट्रंप की विचारधारा बनी रहेगी।
यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो उस युद्ध में भारत और चीन में जन -धन की जितनी हानि होगी उतना ही अमेरिका के हित में होगा। यदि तीसरे विश्व युद्ध के पश्चात संसार बचा तो अमेरिका उस बचे हुए संसार का भी ‘बेताज बादशाह’ होगा । क्योंकि उस बचे हुए संसार में भारत और चीन दोनों हिरोशिमा व नागासाकी की भान्ति महाविनाश के खंडहर के रूप में बदल चुके होंगे। कहने का अर्थ है कि जहाँ चीन भारत को विश्व शक्ति बनने से रोकना चाहता है ,वहीं अमेरिका भी इन दोनों देशों को आपस में लड़ाकर समाप्त कर देना चाहता है , जिससे विश्व शक्ति की उसकी गद्दी सुरक्षित रह सके। अब आप देखिए कि बर्बाद हुए संभावित संसार का ‘बेताज बादशाह’ बनने के लिए जहाँ चीन लालायित है , वहीं अमेरिका भी लालायित है। इसी प्रकार एक तीसरी भयानक राक्षसी शक्ति इस्लामिक आतंकवाद के रूप में भी अपना स्थान बना चुकी है, उसका उद्देश्य भी खण्डहरों में परिवर्तित हुए संसार का ‘बेताज बादशाह’ बनने की है।
ऐसे में वही कहावत लागू होती है कि ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी’ । कुल मिलाकर विश्व शान्ति हमारे लिए अभी मृग मरीचिका ही बनी रहेगी।
ऐसे में हमें समझ लेना चाहिए कि लड़ाई इस समय कोरोनावायरस से उत्पन्न हुई परिस्थितियों से नहीं है, और यदि हम ऐसा सोच रहे हैं तो निश्चित रूप से गलत सोच रहे हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि लड़ाई इस समय संसार का ‘नायक’ बनने की है । उभरते हुए भारत को जहाँ चीन धमकाकर रोकना चाहता है, वहीं अमेरिका और विश्व के कई देश भारत के मित्र बनकर भारत को मिटा देना चाहते हैं। जब सारा संसार इस्लामिक देशों और ईसाई देशों के दो पक्षों में विभाजित हो चुका हो तब इनमें से कोई भी यह नहीं चाहेगा कि एक ‘हिन्दू देश’ के रूप में स्थापित होता भारत विश्व का नायक बने। ऐसे में नेपाल की बुद्धि पर सचमुच पत्थर पड़ गए हैं , जो अपने परम्परागत मित्र और सगे भाई भारत के विरुद्ध चीन के बहकावे में आकर सीनाजोरी करने की हिमाकत कर रहा है।

प्रधानमन्त्री श्री मोदी जानते हैं …

भारत के प्रधानमन्त्री श्री मोदी परिस्थितियों से पूर्णतया परिचित हैं। यही कारण है कि वह चीन को धमकाकर भगाने के उपरान्त विश्व के नेताओं के उत्तेजक बयानों को भी अनसुना कर देश को विश्व युद्ध की विभीषिका में झोंकना नहीं चाहते । वह युद्ध तो चाहते हैं , पर एक सीमित युद्ध चाहते हैं । उनकी इच्छा है कि ऐसा युद्ध अवश्य हो जाए जिसमें भारत, पाकिस्तान और चीन की समस्याओं का समाधान हो जाए । प्रधानमन्त्री श्री मोदी कभी नहीं चाहेंगे कि भारत चीन या भारत पाकिस्तान के बीच होने वाला सीमित युद्ध विश्व युद्ध में बदल जाए और उसमें भारत को भारी हानि उठानी पड़े । वह नहीं चाहते कि तेजी से विश्व शक्ति के रूप में उभरते हुए भारत के सपनों पर शीघ्र ही तुषारापात हो जाए और संसार को स्वर्ग बनाने के भारत के संकल्प को पाला मार जाए। इस प्रकार भारत इस समय एक ‘अवांछित युद्ध’ से बचकर ‘वांछित युद्ध’ के विकल्प ढूंढ रहा है।
भारतीय नेतृत्व किसी भी स्थिति में देश को विश्व युद्ध का अखाड़ा नहीं बनाना चाहता। क्योंकि उसे भली प्रकार पता है कि देश को विश्व युद्ध का अखाड़ा बनाने का अर्थ हिरोशिमा और नागासाकी जैसे विनाशकारी खण्डहर में परिवर्तित करना होगा।
पाकिस्तान को पता है कि यदि इस समय भारत और चीन भिड़ जाएं तो उसका अस्तित्व बच सकता है , अन्यथा यदि भारत ने पीओके को अपने नियन्त्रण में ले लिया तो फिर पाकिस्तान के टुकड़े होना अवश्यम्भावी है। यही कारण है कि पाकिस्तान चीन की चिलम भरते हुए उसे भारत के विरुद्ध भड़काने का हरसम्भव प्रयास कर रहा है, वह अपना उल्लू सीधा करने के लिए भविष्य में भी ऐसे प्रयास करता रहेगा । क्योंकि उसे यह भली प्रकार पता है कि वह स्वयं भारत से सीधे-सीधे कोई युद्ध नहीं जीत सकता। छद्म युद्ध को लड़ते-लड़ते उसे कई दशक गुजर गए हैं। अब उसमें भी उसका सांस फूलने लगा है । ऐसे में वह चीन से ही यह अपेक्षा करता है कि वह ही भारत को सुधार दे।

रूस के पुतिन भी उलझे हुए हैं

रूस के पुतिन भी इस समय द्वन्द्व के असमंजस में फंसे हुए हैं । विचारधारा के आधार पर वह चीन को पीटना तो नहीं चाहते परन्तु पिटवाना अवश्य चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि पीटने वाला यदि भारत हो तो अधिक अच्छा रहेगा । भारत के साथ रूस के परम्परागत शत्रु अमेरिका जैसे देश भी आ जाएं तो यह स्थिति रूस के लिए परेशानी पैदा करने वाली होगी। इसके उपरान्त भी वह अपने स्वार्थों को साधने के लिए और अपनी सुविधा का ध्यान रखते हुए भारत के साथ रहेगा ,यद्यपि वह हर स्थिति में तटस्थ रहना चाहेगा।
युद्ध के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हर देश युद्ध से पहले यही कहता है कि वह शान्ति की स्थापना के लिए युद्ध में जाना चाहता है । युद्ध के उपरान्त भी हर देश यही कहता है कि अब सब बैठिए और शान्ति स्थापित कीजिए। कुल मिलाकर सारा खेल शान्ति के लिए किया जाता है , परन्तु शान्ति मिलती क्यों नहीं ? – यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि विश्व के देशों के द्वारा शान्ति की बात करते हुए अशान्ति के काम किए जाते हैं ।

कुछ चेहरे होते हैं जो अशान्ति की भाषा बोलते हैं

कुछ चेहरे होते हैं जिन्हें हम विश्व नेता के रूप में जानते पहचानते हैं । वे चेहरे ही अशान्ति की भाषा बोलते रहते हैं और जिस शान्ति को सारा विश्व चाहता है उसे अपनी मुट्ठी में बन्द कर सारे विश्व को अशान्ति की विभीषिका अर्थात युद्ध में धकेल देते हैं। वर्तमान विश्व की स्थितियां भी कुछ ऐसी ही हैं । संसार के कुछ तथाकथित बड़े नेताओं के अहंकार आपस में टकरा रहे हैं । इन अहंकारी नेताओं के अहंकार पर यदि अंकुश नहीं लगा तो निश्चय ही यह विश्व के लिए विनाश का कारण बन सकता है। ध्यान रहे कि बारूद के ढेर पर बैठकर कभी शान्ति के कबूतर नहीं उड़ाए जा सकते । यदि कोई ऐसा कर रहा है तो समझ लो कि उससे बड़ा पाखण्डी कोई नहीं है। हथियार बेचने वालों के विषय में कभी भी मत सोचना कि वह शान्ति के पुजारी हो सकते हैं। जो हथियार खरीद रहे हैं उनके लिए भी समझ लेना कि वह भी शान्ति के पुजारी नहीं हैं और जो हथियार बना रहे हैं वह तो स्वयं ही विनाश के देवता हैं।
शान्ति का रक्षक वही हो सकता है जो हथियारों में नहीं बल्कि प्रेम की भाषा में विश्वास रखता हो। जो ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’.. की सर्वमंगलकारी कामना करता हो और जो विश्वबंधुत्व को अपने जीवन का आदर्श मानता हो। वह शान्ति के झूठे कबूतर उड़ाने वाला नहीं होता । वह तो स्वयं ही शान्ति का साकार देवता होता है। स्वयं ही शान्ति का पुजारी होता है। मेरी दृष्टि में निश्चय ही वह साकार देवता भारत है। यह हथियार खरीदता है तो उनके लिए जो विश्व शान्ति के लिए खतरा हैं। यह हथियार बनाता है तो उनके लिए जो विश्व शान्ति के लिए खतरा हैं और यह सेना भी रखता है तो उनके लिए जो विश्व शान्ति के लिए खतरा हैं अर्थात खतरों से खेलने वाला केवल भारत है। भारत से अलग जो भी देश हैं वह सारे के सारे खतरों को पालने पोसने वाले या पैदा करने वाले हैं।
विश्व के अन्य देशों के बारे में समझ लेना चाहिए कि जहाँ घर में लाठी भी हो और हट्टे -कट्टे , गठीले शरीर के नवयुवक भी हों तो वहाँ अपेक्षा नहीं की जा सकती कि इन लाठियों का कभी प्रयोग नहीं होगा।
विनाश की उमड़ती घटाओं को तो बरसने से गुरु द्रोणाचार्य ,भीष्म पितामह और विदुर जैसे विद्वान भी नहीं रोक पाए थे। फिर भी हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि सर्वत्र शान्ति हो और हम सब मिलकर शान्ति के ही आराधक बनें। वेद का गायत्री मंत्र ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ – की बात ऐसे ही नहीं करता । निश्चय ही आज सारे संसार को एक स्वर से भारत के साथ मिलकर यही गाना पड़ेगा -‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ अर्थात हे परमपिता परमेश्वर ! आप हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करो।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक  : उगता भारत

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