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मोदी के जनादेश तले संघ परिवार का संकट

पुण्‍य प्रसून वाजपेयी

ठीक तेरह बरस पहले जिन आर्थिक नीतियों को लेकर संघ परिवार बीजेपी को कटघरे में खड़ा करता था। तेरह बरस बाद उन्ही आर्थिक नीतियों को लेकर संघ हरी झंडी दिखाने से नहीं कतरा रहा है। तेरह बरस पहले भी संघ के प्रचारक रहे अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थे और तेरह बरस बाद यानी आज भी संघ के प्रचारक रहे नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। तो फिर इन तेरह बरस में ऐसा क्या बदला कि संघ परिवार को अपनी ही विचारधारा छोडनी पड़ रही है। ध्यान दें तो पहली बार मोदी को मिले जनादेश ने संघ परिवार की बौद्दिकता पर सवालिया निशान लगा दिया है। जनादेश का अपनी मान्यता इतनी बड़ी है कि संघ परिवार सरीखा देश का सबसे बडा परिवार भी जनादेश के आगे छोटा हो गया है । इसलिये बीते तेरह बरस में संघ जहा अपने विस्तार करने या विस्तार ना हो पाने के संकट से गुजरता रहा वही २०१४ के जनादेश ने उसके सामने एक नया संकट खडा कर दिया है कि वह जनादेश को अपनी बौध्दिक क्षमता से प्रभावित करे और मोदी सरकार को अपने रास्ते ले चले । या फिर जनादेश के नाम पर मोदी जो भी रास्ता पकड़े उसके साथ वह खड़ा नजर आये। यानी प्रधानमंत्री मोदी जो भी निर्णय लें उसपर बिना चर्चा, बिना मंथन आरएसएस अपनी सहमति जता दें। और सिर्फ एक ही लफ्ज़ कहें। देख लीजियेगा , जहां जरुरी हो वहीं लागू करें। ३० मई २०१४ को नागपुर में संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक डां कृष्ण गोपाल ने रक्षा उत्पादन के क्षेत्र सौ फीसदी एफडीआई के सवाल पर ना सिर्फ संघ की तरफ से हरी झंडी दे दी। बल्कि हथियारों को लेकर रुस या यूरोपीय देशों पर जो आत्मनिर्भरता की बात सरकार के तमाम मंत्री दिल्ली में कर रहे है उसी को दोहराते हुये संघ ने नागपुर से सिर्फ इतना ही कहा कि एफडीआई होना चाहिये। और सिर्फ रक्षा ही नहीं बल्कि जिस भी क्षेत्र में इसकी जरुरत हो सरकार को पहल करनी चाहिये।

तो क्या तेरह बरस में संघ की सोच बदल गयी। क्योंकि मई २००१ में दिल्ली के रामलीला मैदान में रक्षा के क्षेत्र में २६ फीसदी एफडीआई का विरोध और किसी ने नहीं संघ परिवार ने ही किया था। उस वक्त भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय महासचिव हंसमुख भाई दवे ने तमाम ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी में रक्षा क्षेत्र में २६ फीसदी एफडीआई को देश की सुरक्षा से खतरे के तौर पर देखा था। इतना ही नहीं देश में काम कर रहे ३९ डिफेन्स कारखानो में काम कर रहे एक लाख चालीस हजार कामगारों के सामने रोजगार के संकट से भी वाजपेयी सरकार के एफडीआई पर लिये निर्णय को देखा था। याद कीजिये तो जून २००१ से देश भर में एफडीआई के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई भी स्वदेसी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ कर रहा था । तो फिर ऐसा क्या हो गया कि मौजूदा वक्त में एफडीआई को लेकर संघ बदल गया । दरअसल बीते तेरह बरस में संघ परिवार वैचारिक या कहें बौद्दिक तौर भी कितना सिमटा है या फिर मोदी को मिली जनादेश के सामने वह इतना बौना हो गया है कि वह अपने ही मूल प्रश्न राष्ट्रीयता को भी परिभाषित नहीं कर पा रहे है । तो क्या संघ अब बदल रहा है । या पिर संघ का ट्रांसफारमेशन हो रहा है । या आने वाले वक्त में संघ की उपयोगिता ही नहीं बचेगी। यह सारे सवाल संयोग से संघ की उसी राजनीतिक सक्रियता तो चिढ़ा रहे हैं, जिस सक्रियता के जरीये पहली बार चुनाव में संघ ने ना सिर्फ प्रचार की बागेदारी निभायी बल्कि खुले तौर पर माना कि हिन्दुओं में राजनीतिक चेतना जगाने के लिये संघ को चुनाव के लिये सक्रिय होना पड़ा। तो क्या आरएसएस राजनीतिक तौर पर २०१४ के चुनाव प्रचार में राजनीतिक तौर पर अपने चरम पर था । या फिर संघ को जिस भूमिका के लिये हेडगेवार ने बनाया संघ उससे भटक चुका है और वह अपने सौ बरस पूरे करने से पहले ही देश के राजनीतिक मिजाज में विलीन हो जायेगा।

यह सवाल इसलिये क्योंकि जिस जनादेश को लेकर संघ परिवार उलझन में है, बीते रविवार यानी १ जून २०१४ को ही पानीपत में जब भाजपा के महासचिव मुरलीघर राव की अगुवाई में स्वदेशी अर्थव्यवस्था पर चिंतन मनन हुआ तो राष्ट्रीय विकास की समूची धारा ही नरेन्द्र मोदी को मिले जनादेश और मोदी की अगुवाई में लिये जाने वाले निर्णय पर ही अटक गये । अगर इन्हीं मुरलीघर राव को तेरह चौदह बरस पहले के स्वदेसी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ की अगुवाई करने वाले दत्तोपंत ठेंगडी के दौर में ले चलें, तो हर किसी को याद होगा आगरा और हरिद्वार की बैठक में दत्तोपंत ठेगडी ने मुरलीधर राव को अपने सबसे
बेहतरीन शिष्य ऐसे बयान को देते वक्त करार दिया था, जब उन्होंने वाजपेयी सरकार की आर्थिक नीतियों को कटघरे में ही खड़ा नहीं किया था बल्कि वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा की नीतियों को जनविरोधी, मजदूर विरोधी , राष्ट्र विरोधी करार देते हुये वित्त मंत्री के लिये अपराधी शब्द का इस्तेमाल किया था। २००१ में ही सरकार की सांख्य वाहिनी योजना को भी सीआईए से प्रभावित करार दिया था। तो सवाल है कि उस वक्त ऐसा क्या था जो वैक्लपिक अर्थव्यवस्था की बात संघ परिवार ना सिर्फ करता था बल्कि तर्को के आसरे सरकार के मंत्रियो की खिंचाई भी करता था। और अब ऐसा क्या है कि राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री के शपथग्रहण का आमंत्रण मिलने को लेकर ही संघ परिवार के सदस्य अभिभूत हैं। सितंबर १९९८ में पूर्व सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन ने पीएमओ में पूर्व वित्त सचिव एनके सिंह को लाने का खुला विरोध अमेरिकी परस्त नीतियों की मुखालफत करते हुये किया था । और याद कीजिये तो पहली बार वाजपेयी सरकार को पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर दो दिनो में संघ के हस्तक्षेप और आंदोलन की धमकी के बाद वापस लेने पड़े थे।

अब क्या यह संभव है। तब संघ अपनी धारा के पक्ष में बोलने वाले जगदीश शेट्टीकर और जय दुबाशी के हक में खड़ा था। क्या आज यह संभव है। दरअसल संघ परिवार के भीतर कैसे कैसे स्वयंसेवक उस वक्त सरकार को राष्ट्रीय हित साधने के लिये पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते थे और बकायदा तर्को के आसरे आर्थिक सुधार को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चुकते थे। यह नजारा २००१ में आगरा में स्वदेशी जागरण मंच की सभा का है। दत्तोपंत ठेंगडी ने बाजारवाद के खिलाफ आवाज उठायी । गोविन्दाचार्य ने सरकार को किस रास्ते पर चलना चाहिये उसका बखान किया । एस गुरुमूर्ति ने भरोसा जताया कि वह सरकार से बात करेंगे। और तब संघ की तरफ से भाजपा या कहें सरकार के बीच सेतु का काम कर रहे मदनदास देवी भी हाथ में पत्रिका ‘ इकनॉमिस्ट’ लिये हुये पहुंचे और खुली चर्चा में यह कहने से नहीं चूके कि वित्तमंत्री को ‘इकनॉमिस्ट’ तो पढ़ लेना चाहिये, जिससे वह समझ पाये कि आर्थिक सुधार का अंधा रास्ता कैसे ब्राजील से भी ज्यादा दुर्गत हालात में देश को ला खड़ा करेगा। क्या यह स्थिति संघ परिवार के भीतर आज आ सकती है। यकीनन नहीं । क्योंकि जिस मोदी के बारे में यह सोच कर संघ पीछे खडा हो गया कि दिल्ली की चौकडी भाजपा का कांग्रेसीकरण कर रही है उसे रोकना जरुरी है। वही संघ पहली बार कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा को भी सरकार के अधीन लाने वाले हालात पर भी खामोश है । क्योंकि याद कीजिये तो नेहरु के दौर से ही कांग्रेस बदली । १९४७ तक की कांग्रेस में सबसे ताकतवर सीडब्लूसी होती थी।

उसके सदस्य अपने बयानों को देने के लिये स्वतंत्र हुआ करते थे। इसलिये सरदार पटेल हों या कृपलानी या फिर नेहरु या महात्मा गांधी। हर कोई एक ही मुद्दे पर अलग अलग सोच सकता था । सार्वजनिक बयान दे सकता था। लेकिन नेहरु सत्ता में आये तो काग्रेस नेहरु के हिसाब चलने लगी। और मौजूदा वक्त में भाजपा भी मोदी के हिसाब से चल रही है। अध्यक्ष पद तक को लेकर कोई बहस की स्वतंत्रता तक नहीं है । और वही आरएसएस जो एक वक्त आडवाणी की जगह गडकरी को अध्यक्ष बनाने में बैचेनी दिखा रहा था । वही संघ परिवार पहली बार भाजपा अध्यक्ष पद को लेकर भी मोदी को मिले जनादेश के सामने नतमस्तक है। शायद यह वो हालात हैं जो पहली बार बता रहे है कि जनादेश की धारा आरएसएस को भी उसके १०० बरस [ २०२५ ]पूरा होने से पहले अपने में ही समाहित ना कर लें।

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