स्वास्थ्य रक्षण में पंचकर्म का प्रयोग
डॉ. महेश व्यास
कोरोना के आज के आपत्काल में पंचकर्म भी एक महत्वपूर्ण समाधान के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि पंचकर्म वैसे तो शरीर की पूर्ण शुद्धि करता है और इसके स्वास्थ्यसंबंधी ढेर सारे लाभ हैं, परंतु पंचकर्म को इस तरह के रोगों की चिकित्सा में भी प्रयोग किया जा सकता है। विशेषकर पंचकर्म की एक विधा नस्य का तो कोरोना के इलाज में काफी उपयोगी भूमिका है। पंचकर्म व्याधिक्षमत्व को बढ़ाने में भी काफी उपयोगी है। हालांकि कोरोना के इलाज में शारीरिक संपर्क वर्जित है और इसलिए इसमें इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। परंतु पंचकर्म करते रहने से ऐसे रोगों से सहज बचाव हो सकता है।
पंचकर्म यह शब्द आज वर्तमान समय में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का परिचायक बन चुका है, यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पंचकर्म विश्वपटल पर आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के ब्रांड अंबेसडर के रूप में उभरा है। इसके महत्व का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आयुर्वेद के प्रगाढ ़विद्वान आचार्य चरक ने अपनी चरक संहिता में इसका विस्तृत वर्णन सिद्धि स्थान के अंतर्गत किया है, अर्थात् पंचकर्म निश्चित रूप से सिद्धिप्रदत्त तथा फलदायक है।
पंचकर्म की प्रांसगिकता जितनी प्राचीन युग में थी उपनी ही आज के आधुनिक युग में भी है। चिकित्सा ही नहीं अपितु स्वास्थ्य रक्षण की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता अकल्पनीय है। यदि मानव शरीर को अभियान्त्रिकी दृष्टि से देखा जाए तो यह संसार की सबसे उत्तम परंतु जटिल मशीन है। जिस प्रकार से हरेक मशीन को कुछ समय के पश्चात् सर्विसिंग की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार से मानव शरीर रूपी मशीन को भी समय समय पर सर्विसिंग की आवश्यकता है जो केवल पंचकर्म शोधन पद्धति के द्वारा ही संभव है।
पंचकर्म एक बहु आयामी चिकित्सा पद्धति है जिसमें व्यक्ति तत्काल लाभ तो होता ही है साथ ही भविष्य में होने वाले अनेक रोगों से भी वह बच जाता है। पंचकर्म शोधन चिकित्सा से मनुष्य के शरीर का प्रत्येक अंग प्रत्यंग तथा क्रिया-प्रक्रिया लाभान्वित होती है। पंचकर्म चिकित्सा से व्यक्ति का केवल शरीर ही नहीं अपितु उसके मन तथा वाणी की भी शुद्धि होती है। रोगोन्मूलन की दृष्टि से भी पंचकर्म का अपना वैशिष्टय है। आचार्य चरक ने तो यहां तक कहा है कि सामान्य रूप से उपवासादि से की गई लाक्षणिक चिकित्सा में रोगोत्पत्ति की संभावना पुन: हो सकती है परन्तु पंचकर्म शोधन चिकित्सा से नष्ट किए गए रोग पुन: उत्पन्न नहीं होते हैं। आज पंचकर्म कई विदेशी पर्यटकों को भी अपनी तरफ आकर्षित कर रहा हे। जिसका उदाहरण है केरलीय पंचकर्म जिसके द्वारा केरल सरकार को प्रतिवर्ष अच्छे राजस्व की प्राप्ति होती है।
पंचकर्म शब्द दो अन्य शब्द पंच तथा कर्म से मिलकर बना हुआ है। अत: पांच शोधन कर्मो के समूह को ही पंचकर्म कहा जाता है। आचार्य चरक ने पंचकर्म के अंतर्गत वमन, विरेचन, आस्थापन बस्ति, अनुवासन बस्ति तथा नस्य कर्म को समाहित किया है। वही आचार्य सुश्रुत तथा वाग्भट प्रभृति आचार्यो ने पंचकर्म के अंतर्गत वमन, विरेचन, बस्ति नस्य तथा रक्तमोक्षण आदि कर्मों को सम्मिलित किया है। परतु पंचकर्म चिकित्सा पद्धति में केवल इन्ही कर्मों का वर्णन नहीं मिलता है। इन पांच कर्मो के अतिरिक्त स्नेहन, स्वेदन जैसे पूर्वकर्म, शिरोधारा, सर्वंगधारा, शिरोबस्ति आदि जैसे उपकर्म तथा धूमपान गण्डुष, कवलादि जैसे सहकर्मो का भी वर्णन मिलता है। परंतु शोधन कर्म में वमन, विरेचन आस्थापन अनूवासन, नस्य तथा रक्तमोक्षण की प्रधानता होने के कारण केवल इन्ही पांच कर्मो का पंचकर्म में समावेश किया गया है।
इनमें वमन कर्म को कफप्रधान रोगों के लिए अथवा शरीर के ऊध्र्वभाग के रोगों के उन्मूलन किे लिए श्रेष्ठ बताया गया है। वमन कर्म में रोगजनित मलों को मुखमार्ग से उल्टी के माध्यम से निकाला जाता है। विरेचन कर्म को पित्तप्रधान रोगों के लिए अथवा शरीर के अधोभाग के रोगों के निराकरण के लिए उत्तम माना गया है। विरेचन कर्म में रोगजनित मलों को गुदामार्ग से रेचन यानी दस्त के माध्यम से निकाला जाता है। आस्थापन तथा अनूवासन, बस्ति कर्म की वातप्रधान रोगों के लिए तथा पूरे शरीर के रोगों के निवारण हेतु श्रेष्ठ माना गया है। आचार्य चरक ने बस्ति के अधिकार को सर्वदेहव्यापी तथा सभी आयु के लोगों में उपयोगी बताया है तथा इसे अर्धचिकित्सा तक माना है। नस्य कर्म को उतमांग अर्थात् गले तथा इससे ऊपर के भाग जिससे शिर, मस्तिष्क तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियां आती है, के रोगों की चिकित्सा के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथा इसमें रोगजनित दोषों को नासामार्ग से औषध देकर नष्ट किया जाता है। कोरोना भी इसी भाग का रोग है।
रक्तमोक्षण कर्म को रक्तजनित व्याधियों के उन्मूलन के लिए श्रेष्ठ कर्म माना जाता है। इससे दूषित रक्त का देह से स्राव कराकर व्याधिजन्य दोषो का नाश किया जाता है। रक्तमोक्षण आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यत उपयोगी है क्योंकि रोगों की आत्यंतिक स्थिति में इसकी उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से देखी गई है। इसी कारण से आचार्य सुश्रुत ने रक्तमोक्षण को अर्धचिकित्सा की उपाधि दी है।
पारम्परिक पंचकर्म के अतिरिक्त वर्तमान युग में केरलीय पंचकर्म अत्यत लोकप्रिय है जिसमें व्याधियों के उपचार में स्नेहन, स्वेदन, लेप, पिषिचिल आदि उपकर्मों तथा सहकर्मो को प्रधानता दी जाती है। स्नेहन में जहां औषधीय तैलो से अभ्यंग (मालिश) का प्रयोग किया जाता है, वहीं स्वेदन में नाना प्रकार के स्वेदन यथा पिण्ड स्वेद, संकर स्वेद नाड़ी स्वेद, चूर्ण स्वेद का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्नालेप, तलम्, शिरोपोटिचिल, पिषिचिल आदि उपकर्मो का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है।
स्वास्थ्य रक्षण हेतु पंचकर्म का प्रयोग दिनचर्या अर्थात् दैनिक स्तर पर तथा ऋतुचर्या अर्थात् मौसम के अनुरूप किया जा सकता है। दैनिक स्तर पर प्रतिदिन अभ्यंग, उद्वर्तन, मूर्घतैल, नस्य (प्रतिमर्श), कर्णतैल, पादाभ्यंग, मात्राबस्ति, कवल, तथा गण्डूष व धूमपान का प्रयोग किया जा सकता है। इन कर्मों के नियमित प्रयोग से शरीर स्वास्थ, बलवान् एवं सृदृढ़ बना रहता है। ऋतुचर्या के स्तर पर दोषों के विषम होने से उत्पन्न हुए रोगों के निराकरण हेतु भी पंचकर्म का प्रयोग किया जा सकता है यथा वर्षा ऋतु में प्रकुपित वात दोष का बस्ति कर्म द्वारा निर्हरण, शरद ऋतु में प्रकुपित पित्त दोष का विरेचन कर्म द्वारा निर्हरण तथा बसन्त ऋतु में प्रकुपित कफ दोष का वमन कर्म द्वारा निर्हरण। इस प्रकार ऋतु अनुरूप समय समय से शोधन कराने से ऋतुपरिवर्तन जन्य विकार उत्पन्न नहीं हो पाते है।
रोगों के नाश हेतु पंचकर्म की उपयोगिता अतुलनीय है। बहुदोष की अवस्था वह होती है जिसमें रोगकारक दोष या मल शरीर के विभिन्न भागों में सूक्ष्मता से जाकर अवस्थित हो जाते हैं। इससे शरीर में अनेक प्रकार रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसे में किसी एक रोग की चिकित्सा कठिन होती है। उनमें पंचकर्म शोधन पद्धति ही मुख्य चिकित्सा मानी गयी है।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्र जिन व्याधियों को असाध्य अथवा केवल शास्त्रसाध्य मानता है, उनमें भी पंचकर्म चिकित्सा अत्यत कारगर सिद्ध हुई है। उदाहरण के लिए सोरियासिस, स्नायुतंत्र विकार, मांसपेशी तथा अस्थिगत विकार इत्यादि। इसके अतिरिक्त असंख्य व्याधियों में पंचकर्म की उपयोगिता देखी गई है।
रसायन वाजीकरण हेतु पंचकर्म
रसायन तथा वाजीकरण सम गुणों की प्राप्ति के लिए भी पंचकर्म का प्रयोग किया जाता है। आचार्यों ने यह स्पष्ट किया है कि बिना संशोधन कर्म के रसायन व वाजीकरण चिकित्सा शरीर पर अपना पूर्ण उपयोगी प्रभाव प्रकट नहीं कर पाती। ठीक उसी तरह जिस प्रकार गंदे वस्त्र को रंग देने पर रंग पूर्णतया नहीं चढ़ पाता।
जनपदोध्वंस जन्य विकारों की चिकित्सा हेतु पंचकर्म से शरीर का शोधन तथा रसायन सेवन का विधान बताया गया है, जिससे शरीर की शुद्धि होकर व्याधिक्षमत्व की उत्पत्ति होती है। कोरोना भी आज जनपदोध्वंसजन्य रोग ही है। पंचकर्म के उपयोग से इसका प्रसार रोकने में सहायता मिल सकती है। यदि पंचकर्म का सामान्यत: प्रयोग किया जाता रहे तो देश में किसी प्रकार की महामारी नहीं फैलेगी।