वैदिक मान्यताएं : कितनी है मोक्ष की अवधि ?
मोक्ष सिद्धान्त
मोक्ष की अवधि
यह सिद्धान्त है कि जिसका आदि होता है, उसका अन्त भी अवश्य होता है और जो अनादि होता है, उसका अन्त कभी नहीं होता । जीव अनादि है, इसलिये उसका अन्त नहीं होता । काल जीव को सत्ता से नहीं मिटा सकता परन्तु काल के अन्तराल से जीव तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है : शरीरावस्था (जीवनकाल), प्रेत्यावस्था (मृत्यु-पुनर्जन्म के मध्यकाल एवं प्रलय की अवस्था) और मोक्षावस्था (मोक्ष की स्थिति) । जीव काल के किसी बिन्दु (Point of time)) पर मुक्त होता है, इसलिये उसकी मुक्तावस्था भी काल के किसी अन्य बिन्दु पर अवश्य समाप्त होती है ।
जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्ति का नाम मोक्ष है । वेदों, उपनिषदों, सभी शास्त्रों और गीता में स्पष्ट कहा गया है कि ‘‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’’ (गीता 15.6) जहाँ पहुँच कर वापस नहीं आते वह मेरा परम धाम है । ‘‘अनावृत्तिः शब्दात्’’ (ब्रह्मसूत्र 4.4.22) अर्थात् वेद के कथनानुसार वापसी नहीं होती ‘‘न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगोsप्यनावृत्तिश्रुते (सांख्य 6.17) अर्थात् मुक्त आत्मा जन्म-मृत्यु के बन्धन में नहीं पड़ती ऐसा श्रुति (वेद) का कथन है ।
महर्षि दयानन्द के अनुसार इसका केवल अर्थ यह है कि सामान्यतः जैसे अन्य आत्माएँ बार-बार जन्म-मृत्यु के बन्धन में रहती हैं वैसे वे मुक्तावस्था में नहीं रहती । मुक्तावस्था की अवधि के पश्चात् वे पुनः संसार में आती हैं । ऋग्वेद (1.24.2) में भी मन्त्र है:
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ।।
अर्थात् हम इस प्रकाशस्वरूप अनादि सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें जो हमें मुक्ति में आनन्द का भोग करवा कर, पृथ्वी में पुनः जन्म देकर, माता-पिता व अन्य सम्बन्धियों का दर्शन कराता है । वही परमात्मा मुक्ति की व्यवस्था करता, सब का स्वामी है ।
सिद्धान्त रूप में देखा जाए अगर आत्माएँ मोक्ष को प्राप्त करके वापस कभी न लौटे, तो संसार का किसी न किसी दिन अन्त हो जाएगा । सांख्य का कथन है ‘‘इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य 1.159) अर्थात् इन सबका सदा अस्तित्व बना रहता है, कभी अत्यन्त उच्छेद (उन्मूलन) नहीं होता । इससे यह भी सिद्ध होता है कि ब्रह्मण्ड की सभी आत्माओं ने सभी योनियों में जन्म लिया है तथा सभी ने आनन्द सुख (मोक्ष) को भोगा है। तदुपरान्त पुनः संसार में आकर वे अनादि-अनन्त जगत् प्रवाह को बनाए रखती हैं।
इसके अतिरिक्त सीमित प्रयत्न का फल असीमित नहीं हो सकता । जीव ने मोक्ष प्राप्ति के लिये सीमित प्रयत्न किया है इसके फल की भी सीमा होनी चाहिये । क्योंकि मोक्षावस्था की सीमा कल्पनातीत है इसलिये ‘‘न निवर्तन्ते’’ वापस नहीं आते कहा गया है परन्तु मोक्षावस्था असीम नहीं है । महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवमसमुल्लास में मुण्डक उपनिषद् के वाक्य :
‘‘ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वेे’’ (मुण्डक 3.2.6) का अर्थ करते हुए लिखा है ‘‘वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त हो के ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति सुख को छोड़ के संसार में आते हैं । इसकी संख्या यह है कि तैंतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी, दो चतुर्युुगियों का एक अहोरात्र—ऐसे शत वर्षों का परान्तकाल होता है ।’’ इस गणना के अनुसार इकतीस नील दस शंख चालीस अरब वर्ष ( Three hundred eleven trillion and forty billion years) मुक्तावस्था का होता है ।
आदि शंकराचार्य ने भी मुक्ति से पुनरावृत्ति को स्वीकार किया है । वे छान्दोग्य उपनिषद् के 8.15.1 मन्त्र के भाष्य में लिखते हैं । “यावद् ब्रह्मलोकस्थिति तावत्तत्रैव तिष्ठति प्राक् ततो नावर्तत इत्यर्थः “। अर्थात् जब तक ब्रह्मलोक में स्थिति है तब तक जीव वहीं रहता है, अवधि की समाप्ति से पूर्व नहीं लौटता, यही ‘नावर्तते’ का अर्थ है । इसी प्रकार बृहदारण्यक उपनिषद् के 6.2.15 मन्त्र के भाष्य में श्री आदिशंकराचार्य लिखते हैं: ” यदि हि नावर्त्तन्त एवमिह ग्रहणमनर्थकमेव स्यात्। तस्मादस्मात् कल्पूर्ध्वमावृत्तिर्गम्यते।” अर्थात् यदि मुक्तात्मा का कभी लौटना अभिप्रेत हो, तो ‘इह’ शब्द का प्रयोग व्यर्थ हो जाएगा। इसलिये इस कल्प के अनन्तर पुनरावृत्ति जानी जाती है । गीता (9-21) में भी कहा है:
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।”
अर्थात् वे उस विशाल स्वर्गलाेक का आनन्द भोग लेने के बाद, जब उनका संचित पुण्य क्षीण हो जाता है, तब फिर मर्त्यलोक में आ जाते हैं।
मोक्ष से पुनरावृत्ति न होने का भ्रम ब्रह्मलोक को मोक्षावस्था से भिन्न एक लोक विशेष की अवधारणा के कारण हुआ है, जहाँ माना जाता है कि देवी, देवता, अप्सराएँ वास करती हैं और सकाम कर्मी दिव्य आत्माएँ कुछ अवधि तक वास करके इह लोक में वापस आती हैं। यदि ब्रह्मलोक मर्त्यलोक की भान्ति अप्सराओं, ऐश्वर्यों और सोमरस आदि पदार्थों से युक्त एक लोक विशेष है, तो ब्रह्मलोक और मर्त्यलोक में केवल अनुपातिक अन्तर (relative difference) रह जाता है । इसके विपरीत, यदि ब्रह्मलोक को मोक्षावस्था, परमधाम, ईश्वरप्राप्ति मान लिया जाए जैसे कि वेदों में इसका अभिप्रेत अर्थ है, इस विषय पर सभी दार्शनिक वाद-विवाद मिट जाएंगे ।
ब्रह्मलोक से जो पुनरावृत्ति ग्रन्थों में कथित है, वह वास्तव में मोक्षावस्था की अवधि के उपरान्त संसार में जीव की पुनरावृत्ति ही है क्योंकि मोक्षावस्था ही ब्रह्मलोक है। मोक्षावस्था में जीव ब्रह्म में वास करने से ब्रह्मलोक का वासी माना जाता है । मोक्ष, ब्रह्मलोक, स्वर्ग, परमधाम सभी पर्यायवाची शब्द हैं।
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पादपाठ
मोक्षस्य नहि वासोsस्ति ग्रामविशेष:। — योगवासिष्ठ
अर्थात् मोक्षावस्था किसी स्थान विशेष में वास नहीं है।
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शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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