डाॅ0 वेद प्रताप वैदिक
इस बार हमारी संसद में जितने मंत्रियों और सांसदों ने संस्कृत में शपथ ली, उतनों ने पहले कभी नहीं ली। यह महत्वपूर्ण बात हैं इसका मोटा कारण तो यही है कि भाजपा के सदस्यों की संख्या इस बार सबसे ज्यादा है। भाजपा एक मात्र पार्टी है, जो अपनी संस्कृति और परंपरा पर जोर देती है। संस्कृति और परंपरा की धरोहर यदि किसी भाषा में सुरक्षित है तो वह संस्कृत में है। लेकिन क्या संस्कृत में शपथ लेने भर से संस्कृति की रक्षा हो सकती है?
संस्कृत में शपथ लेनेवाले सांसदों को मैं बधाई देता हूं और मुक्त कंठ से उनकी मैं सराहना करता हूं लेकिन मैं पूछता हूं कि उनमें से ऐसे कितने हैं, जो संस्कृत का एक वाक्य भी शुद्ध रुप में बना सकते हैं? इसका अर्थ क्या हुआ? यही न, कि संस्कृत में शपथ लेना सिर्फ पूजा-पाठ की तरह एक रुढ़ि बन गया। आगे कुछ भी नहीं। हमारे नेतागण न तो संस्कृत भाषा जानते हैं और न ही उन्हें संस्कृत की अपार क्षमता का बोध है। यह जरुरी नहीं कि हर नेता संस्कृत जाने लेकिन अगर वह यह जान जाए कि संस्कृत की शक्ति और उपयोगिता क्या है तो भारत के ज्ञान-विज्ञान का रुपांतरण हो सकता है। संस्कृत जैसी व्याकरण सम्मत और वैज्ञानिक भाषा दुनिया में कोई और नहीं है। उसकी एक-एक धातु से हजारों शब्द बन सकते हैं और लगभग दो हजार धातुओं का वर्णन तो आचार्य पाणिनी ने ही किया है। जो लोग हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में शब्दों की कमी का रोना रोते रहते हैं, क्या उन्हें पता नहीं कि सारी भारतीय भाषाएं संस्कृत की बेटियां हैं। तमिल, उर्दू और फारसी में भी संस्कृत के शब्दों की भरमार है। जर्मन, रुसी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव सर्वमान्य है। दुनिया का सबसे प्राचीन और समृद्ध साहित्य संस्कृत में है। अध्यात्म और दर्शन के सबसे पुराने ग्रंथ भी संस्कृत में ही लिखे गए हैं और संस्कृत भाषा में विज्ञान की भी विलक्षण परंपरा रही है। विज्ञान और गणित के लिए संस्कृत से अधिक उपयुक्त कोई भाषा नहीं है, क्योंकि इसमें जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है। एक ही शब्द के सौ-सौ पर्यायवाची शब्द होते हैं, जो अर्थों की बारीकियों को भली-भांति उजागर करते हैं। गहरी से गहरी और बड़ी से बड़ी बात को कम से कम शब्दों में कह देने की जो क्षमता संस्कृत में है, वह दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। इसीलिए आजकल दुनिया के सारे वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि कंप्यूटर की कोई परिपूर्ण भाषा हो सकती है तो वह संस्कृत ही हो सकती है।
ऐसी महान भाषा को सिर्फ शपथ लेकर छोड़ देना काफी नहीं है। वह हमारे बच्चों को कम से कम पांच साल तक अनिवार्य पढ़ाई जानी चाहिए। त्रिभाषा सूत्र ऐसा कि माध्यमिक स्तर तक मातृभाषा, हिंदी और संस्कृत पढ़ाई जाए और स्नातक कक्षाओं में दो वर्ष का पाठ्यक्रम ऐसा हो कि कम से कम एक विदेशी भाषा पढ़ने की छूट हो। क्या मोदी की सरकार अपनी शिक्षा-नीति को अंग्रेजी लादने के पोंगापंथी ढर्रे से बाहर निकाल सकती है? यह दबाव उन सांसदों को जमकर डालना चाहिए, जिन्होंने संस्कृत में शपथ ली है।