मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-22
गतांक से आगे…..
बस, आकाशस्थ ऋषियों का इतना ही वर्णन करना है। इसके आगे अब यह दिखलाना है कि शरीरस्थ इंद्रियों को भी ऋषि कहा गया है। यजुर्वेद में लिखा है कि-
सप्तऋषय: प्रतिहिता: शरीरे सत्प रक्षन्ति सदमप्रमादम।
सप्ताप: स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ।
अर्थात शरीर में सात ऋषियों का वास है उनके सोने पर भी दो जागा करते हैं। अथर्ववेद में लिखा है कि-
तिर्यग्बिलश्रमस ऊध्र्वबुध्नस्त स्मिनप यशो निहितं विश्वरूपम।
तदासत ऋषय: सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूबु।।
अर्थात सिर में सात ऋषियों का निवास है। इन ऋषियों से अभिप्राय आंख, कान और नाक आदि से ही है। यजुर्वेद के ‘अयं पुरो भुव:’ आदि मंत्रों में (जिनके द्वारा पार्थिव पूजन के समय प्राण प्रतिष्ठा की जाती है) कहा गया है कि वशिष्ठ प्राण है, प्रजापति मन है, जमदग्नि चक्षु है, विश्वामित्र श्रोत्र है और विश्वकर्मा वाणी है। अर्थात वेद में आये हुए ऋषियों के वर्णन या तो आकाश संबंधी अर्थ रखते हैं या शरीर संबंधी। खींचतान करके लोग उनको मनुष्य बनाने का जो उद्योग करते हैं, वह गिरा पोच, निस्सत्व और लचर है।
हम अब मनुष्य संबंधी वर्णनों को यही पर समाप्त करते हैं। जिन राजाओं और ऋषियों का वर्णन हमने ऊपर किया है उन्हीं से अथवा उसी प्रकार के अन्य नामों के आ जाने से लोग इतिहास का भ्रम करने लगते हैं, किंतु जिस प्रकार हमने इतने नामों का निराकरण किया है और देखा है कि इनमें कुछ भी ऐतिहासिक तथ्य नही है। इसी तरह यदि विचार पूर्वक परिश्रम करके ढूंढा जाए तो सभी नामों का कुछ न कुछ दूसरा ही अर्थ निकलेगा और इतिहास की गंध तक न रहेगी इन राजाओं और ऋषियों के अतिरिक्त भी बहुत से शब्द वेदों में आते हैं, जिनका अर्थ सृष्टिï की अनेक शक्तियां हैं, पर ठीक ठीक अर्थ न समझने के कारण पौराणिक समय में आलसी लोगों ने उन सबको मनुष्य कल्पित करके सबकी कथाएं बना ली हैं। इसी प्रकार त्रित और भुज्यु आदि की भी कथाएं बना ली हैं। पर पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानों ने अब मान लिया है कि ये पदार्थ सृष्टिï के चमत्कारी पदार्थ हैं-मनुष्य नही। लो. तिलक महोदय ने आर्यों का उत्तर धु्रव निवास नामी अपने गं्रथ में एक जगह इस विषय को विस्तार से लिखा है। उसी का सारांश हम भी यहां लिखते हैं।
च्यवन ऋषि की जवानी
अश्विनों के पराक्रम का वर्णन इस प्रकार है-वृद्घ च्यवन को उन्होंने फिर जवान कर दिया। पतित विष्णायू को स्वाधीन किया। समुद्र में पड़े हुए भुज्यु को सौ पतवार वाली नौका द्वारा बाहर निकाला। दस दिन और नवरात्रि तक पानी में पड़े हुए रेभ को अच्छा करके बाहर निकाला। खाई में पड़े हुए अत्रि को अंधकार से बाहर निकाला। एक वर्तिका को वृक की डाढ़ से छुड़ाया। ऋज्राश्रय को नेत्र दिये। विश्पला की टूटी टांग की जगह लोहे की टांग लगा दी। अध्रिमती को हिरण्यहस्त नामक पुत्र दिया। शय्यु की वृद्घ गाय को फिर दूध देने वाली कर दिया और यदु को एक घोड़ा दिया इत्यादि।
लो. तिलक महोदय आगे कहते हैं कि इन घटनाओं को मैक्समूलर आदि पाश्चात्य पंडितों ने शरद में बलहीन हुए सूर्य को वसंत में पुन: बलवान हो जाने के रूपक में लगाया है, पर इनका असल तात्पर्य तो धु्रव प्रदेश की घटनाओं से ही है।
जो हो, पर मनुष्य की घटना तो नही है? मनुष्य की घटना जिन लोगों ने कही है उन्होंने तो गजब किया है। उन्हें नही सूझा कि अश्विनी से संबंध रखने वाले इन वर्णित व्यक्तियों को हम मनुष्य कैसे बता रहे हैं? अश्विनौ निस्संदेह आकाशीय पदार्थ है तब फिर से इन मनुष्यों की सेवा-परिचर्या करने के लिए आ सकते हैं? इन्हीं सब बातों को देखकर मैक्समूलर ने कहा कि वेदों में जो संज्ञाएं नाम मिलती हैं वे ठीक-ठीक नाम हैं ऐसा न समझना चाहिए। मनुष्य वर्णनों के बाद इतिहास निकालने वाले गंगा यमुना नदियों के नामों को इतिहास सिद्घि का बड़ा प्रमाण समझते हैं और इसी पर बड़ा जोर देते हैं, अत: हम चाहते हैं कि आगे नदियों के नामों का विवेचन करके देखें कि वेदों में नदियों के नामों से क्या भाव निकलता है और नदियों से क्या तात्पर्य है? क्रमश: