डॉ. ओमप्रकाश पांडेय
भारतीय परम्परा में वेद को ब्रह्माण्डीय ज्ञान के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार करते हुए इसे ईश्वर का नि:श्वास ही माना गया है (यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदोभ्योऽखिलं जगत्)। यद्यपि वेदों का प्रतिपाद्य विषय सार्वभौमिक उत्कृष्टता के समुच्चय से ही संबंधित है, जिसे देश या काल के आधार पर विभाजित कर परखा नहीं जा सकता है, तथापि इसका प्रणयन व अनुशीलन पृथ्वी के जिस भोगौलिक क्षेत्र में विशेष रूप से हुआ उस क्षेत्र विशेष को भारत अर्थात् ज्ञान के अन्वेषण में सदैव निमग्न रहने वाले देश के रूप में ही चिह्नित किया गया (वर्ष तद् भारतनाम भारती तत्र संतति: – विष्णु पुराण)।
ज्ञान की व्याख्या करते हुए श्रुतियाँ इसे सत्य व अनन्त सदृश्य ब्रह्म के स्वरूप में स्वीकार करती है (सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म – तै. उप. 2.1.1)। इस दृष्टि से ज्ञान मूलत: जैविक चेतना (आत्मतत्व) का अन्तर्निहित स्वभाव ही सिद्ध होता है, जो प्राय: सभी जीवों में प्रस्फुटित न होकर सुषुप्त अवस्था में ही विद्यमान रहता है। नित-नूतन सीखने की अनुभवजनित प्रवृत्तियों के कारण आत्मिक चेतना पर पड़ा अज्ञान का कृत्रिम आवरण धीरे-धीरे हटने लगता है। इस आवरण के हटते ही ज्ञाता व ज्ञेय के मध्य का संबंध ज्ञान के रूप में प्रकट हो जाता है। बया द्वारा बनाये गये अद्भूत घोंसले, मकड़ी द्वारा बुने गये जटिलतम जाल, दीमक द्वारा निर्मित वातानुकूलित बाम्बी, चींटियों का अपने बिल के दक्षिण कोने को मलत्याग का स्थान सुनिश्चित करना, सिंह को अपने क्षेत्र का दायित्वबोध, पक्षियों का सुदूर क्षेत्र तक उडऩे का गन्तव्यबोध, व्हेल आदि मछलियों का सैकड़ो मील दूर सागर में अपने साथियों से संवाद स्थापित करने की कला, आदि-आदि को इन्ही उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है। सीखने की इसी प्रक्रिया को सामान्य रूप से शिक्षा के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा कुछ नया नहीं गढ़ती है, बल्कि जीव में अन्तर्निहित ज्ञान पुंज को अनावृत कर उसे उजागर कर देती है और यही शिक्षा का निहितार्थ भी है। इसी तथ्य को रेखाकिंत करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।
मानवीय परिवेश में शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य जीवन की अखण्ड प्रक्रिया को अनुभूत करने तथा जीवन के उदात्त मूल्यों की खोज करने व समझने में व्यक्ति की सहायता करना ही है। शिक्षा वह बीज है, जो व्यक्ति में बोधत्व के भाव को अंकुरित कर उसके स्व को निखारता है। इस स्वत्व से ही व्यक्ति की मेधा प्रस्फुटित होती है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त दिव्य गुणों से युक्त बुद्धि को वेदो में मेधा कहा गया है (मेधामहं प्रथमा ब्रह्मण्वती ब्रह्मजुतामृषिष्टुताम् – अथर्व वेद – 6/108/2)। यह मेधा ही व्यक्ति को पूर्ण समन्वित दृष्टि प्रदान कर उसे विवेकशील या प्रज्ञावान मनुष्य बनाती है। यह प्रज्ञा ही मनुष्यों को गृहीत ज्ञान व तत्व की मीमांसा कर उन्हें भ्रान्तियों व पूर्वाग्रहों से मुक्त कर एक मौलिक सोच विकसित करने तथा सह-अस्तित्व के समावेशी भावना वाले उदात्त आचरण को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि विद्या हमें कर्म बन्धन के सभी अवरोधों से मुक्त कर ऋतम्भरा प्रज्ञा के उन्मुक्त दिव्यता को उपलब्ध करा देती है।
इसलिए भारतीय अवधारणा में शिक्षा का उद्देश्य मात्र जीविकोपार्जन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि ज्ञानार्जन द्वारा व्यक्ति को आध्यात्मिकता के दिव्य गुणों से युक्त कर उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के चारों पुरूषार्थों के पालनयोग्य बनाना भी रहा। भौतिक संसार में जीवन यापन के लिए इन दोनों पक्षों की उभयात्मक भूमिका के दृष्टिगत ही यहाँ शिक्षा की संपूर्णता के लिए विद्या को परा (अध्यात्म विद्या) व अपरा (सांसारिक विद्या या अविद्या) की दो विधाओं में बाँटा गया। शिक्षा के इसी आधार पर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हुए ऋतम्परा प्रज्ञा के जागृत होने पर व्यक्ति अन्तत: महर्षि अरविन्द के मानव से महामानव बनने के पथ पर अग्रसर हो जाता है। मानव से महामानव बनने का निहितार्थ वास्तव में लोक में सद्चरित्रता का बीजारोपण कर मानवता के दिव्यगुणों को अपनाने के लिए आम जनों को प्रेरित करना ही रहा। ऋग्वेद (10/53/4-6) इसी आशय से निर्देशित करता है कि – हे प्राणी। पहले तू ईश्वर के निर्देशों को समझनें मे सक्षम हो फिर ज्ञान को आत्मसात कर दिव्य गुणों को प्राप्त कर यज्ञादि द्वारा पञ्चजनों का भरण-पोषण करते हुए ऋतम्भरा ज्ञान से परिपूर्ण एक आदर्श मनुष्य बन और फिर अपने सद्चरित्रता से दिव्यजनों का निर्माण कर। इस प्रकार अहं (व्यक्ति) से वयं (कुटुम्ब) और फिर वयं से सर्वं (लोक) को संस्कारित करना ही शिक्षा का अभीष्ट है। इन संस्कारित लोक समूह के परम्परागत स्वभाव से उनकी संस्कृति बनती है और फिर क्षेत्र विशेष में विस्तृण इसी संस्कृति के आधार पर राष्ट्र का अस्तित्व उभरता है। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति व राष्ट्र का उद्भव शिक्षा की कोख से ही होता है। शिक्षा ही इनकी जननी है और इनके स्वरूप व विकास की गति का निर्धारण भी शिक्षा की गुणवत्ता पर ही आधारित होता है।
यह सर्व विदित है कि वैश्विक स्तर पर वेद को सर्व-सहमति से विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ मान लिया गया है। अत: यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि मानव सभ्यता में वैदिक शिक्षा व वैदिक संस्कृति सबसे प्राचीन है (सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा – यजुर्वेद 7/14)। यही नहीं बल्कि आज भी इसकी अजस्र सनातनता की एक धारा नए-नए रूपों में आधुनिक गुरुकुलों के माध्यम से भारत में सतत् प्रवाहित हो रही है। लगभग इसी मन्तव्य को पुष्ट करते हुए पाश्चात्य शिक्षाविद् एफ. डब्लू. थामस कहते है कि – भारत में शिक्षा कोई नयी बात नहीं है। संसार का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का उद्गम इतना प्राचीन हो अथवा उसका प्रभाव इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली हो (प्राचीन भारतीय शिक्षा – अनंत सदाशिव अल्तेकर – पृष्ठ-10)। प्राचीन काल से भारत का अस्तित्व एक विराट गुरुकुल के रूप में ही विकसित हुआ। एक ऐसा गुरुकुल जहां गुरु व शिष्य दोनों अनन्य भाव से ज्ञान की साधना में निम्गन रहते हैं। भारत को समझना है तो गुरु-तत्व को समझना होगा और यदि गुरु-तत्व को समझना है तो फिर भारत को समझना पड़ेगा। प्राचीन शिक्षा पद्धति में शिक्षा केन्द्रों की भव्यता आचार्यों की गुणवत्ता व छात्रों के प्रति उनकी समर्पण निष्ठताओं के मानदण्ड के आधार पर ही परखी जाती रही। वस्तुत: शिक्षालयों की अपेक्षा शिक्षक ही वह चाक है जिस पर मानवता का वास्तविक स्वरुप आकार लेता है।
यही कारण रहा कि इस देश में गुरुओं को जितना सम्मान मिला, उनके प्रति जितनी प्रबल श्रद्धा रही उसका सहस्त्रांश भी विश्व में अन्यत्र कहीं देखने व सुनने को नहीं मिलता है। विश्व के अन्य हिस्सों में कुशल विशेषज्ञ मिल सकते हैं, शिक्षण तकनीकि में पारंगत पेशेवर अध्यापक भी मिल सकते हैं किन्तु अपने आचरण मात्र से ही छात्रों के अन्त:करण में ज्ञान के उद्दात गुणों की लौ को प्रज्वालित कर देने वाले आचार्य केवल भारतवर्ष में ही उपलब्ध हो सकते हैं (आचिनोति च शास्त्रार्थन शिष्यान् ग्राहयते सुधी: स्वयमाचरते चैव स आचार्य इति स्मृत: -निरुक्त-1.2.2)। किंचित् गुरु के इसी दिव्य स्वभाव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए भारतीय मानस ने उन्हें त्रिदेवों से भी उच्च स्थान, परमब्रह्म, के समकक्ष मानकर उनकी अभ्यर्थना की।
भारतीय मान्यताओं में अध्यापन कार्य किसी व्यवस्था या प्रणाली द्वारा तय किए गए दायित्व को कुशलतापूर्वक निभाने या फिर पाठ्यपुस्तकों में वार्णित संदर्भों व उससे संबन्धित सूचनाओं को रटा देने की योग्यता मात्र तक सीमित नहीं रहती है। बल्कि भारच में अध्यापन आत्मत्याग द्वारा प्रज्ञावान पीढ़ी के सृजन में निरन्तर प्रयत्नशील बने रहने की एक सतत प्रक्रिया है। यह एक ऐसा दायित्व है जिसके पालन में व्यक्तिगत अभिलाषाएं एवं आकांक्षाएं प्राय: गौण हो जाया करती हैं। भारतीय मनीषा की यह मान्यता रही कि जब तक व्यक्ति के अन्दर अध्यापन करने की ऐसी ज्वलन्त उत्कण्ठा न हो तब तक मात्र जीविकोपार्जन के क्षुद्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे अध्यापक नहीं बनना चाहिए। कालिदास ने इसी मन्तव्य को मालविकाग्निमित्रम् नामक नाटक में स्पष्ट करते हुए कहा है कि केवल आजीविका के लिए पढ़ाने वाले को व्यापारी ही कहा जाता है शिक्षक नहीं। वास्तविकता भी यही है कि सच्चा अध्यापक अन्तर्मन से समृद्ध होता है, अत: उसे बाह्य प्रलोभन प्रभावित नहीं करते हैं। व्यक्ति से परिवार, परिवारों से लोक तथा लोक से राष्ट्र एवं वैश्विक परिवेश का निर्माण शिक्षक के इसी दायित्वपूर्ण बोध पर ही निर्भर होता है। इसीलिए वेद में कहा भी गया है कि वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: (यजुर्वेद-9/23)।
वस्तुत: संसार में जितने भी प्रकार के काम हैं, वे सभी भौतिक समृद्धि के लिए किए जाते हैं, जबकि गुरु या आचार्य का यशस्वी पद तो केवल त्याग व बलिदान के आग्रही को ही प्राप्त हो सकता है। यहां तक कि माता-पिता अपने अंशदान द्वारा एक दैहिक संतान को जन्म देकर उसका लालन-पालन तो अवश्य करते हैं, किन्तु नश्वर देह वाले उस बालक को शिष्य के रुप में अंगीकार कर गुरु अपने आत्मदान द्वारा अमरत्व प्रदान कर देता है। इसलिए प्राचीनकाल में शिष्यों को प्राय: अमृतस्य पुत्रा: कहकर ही सम्बोधित किया जाता रहा। इस सम्बन्ध में प्रमाण के रुप में आधुनिक काल के दो संदर्भ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। पहला संदर्भ आचार्य चाणक्य का है जिसके संपर्क में आने के उपरान्त दासी मुरा का पुत्र सम्राट चन्द्रगुप्त के रुप में इतिहास में अमर हुआ, वहीं दूसरा उदाहरण विश्वनाथ दत्त के पुत्र नरेन्द्र का है जो ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के संसर्ग में आकार विश्व में विवेकानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार गुरु से उपकृत होने वाले छात्र प्रतिउत्तर में अपने लिये तो मात्र निरोगी आयु की कामना करते रहे किन्तु गुरु के लिए ईश्वर से अमरत्व प्रदान करने की याचना की – आयुरस्मासु देहि अमृतत्वम् आचार्य।
गुरु या आचार्य के लिए आवश्यक इन्हीं अर्हताओं को ध्यान में रखते हुए ऋग्वेद के दशवें मंडल के 71वें सूक्त के ऋषि बृहस्पति आंगिरस आचार्यों के कर्तव्य को निर्धारण करते हुए कहते हैं कि उसे ऐसी विधा अपनानी चाहिए जिससे सभी छात्र अपनी क्षमताओं के हिसाब से विषय को सहजता से ग्रहण कर सके। आचार्यों के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ क्रियात्मक ज्ञान की भी शिक्षा देनी चाहिए अन्यथा उनका ज्ञान बिना दूध देनी वाली गाय जैसी ही हो जायेगी। इसलिए उन्हें अध्यापन में विचारात्मक, वर्णनात्मक, संवादात्मक, कथात्मक, क्रियात्मक, प्रयोगात्मक तथा रचनात्मक सभी शैलियों को समाविष्ट करना चाहिए (अक्षण्वन्त: कर्णवन्त: सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवु:। आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे ह्रदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे॥)। इसके अतिरिक्त वेदों में आचार्य से संयमी, वाचस्पति (वाणी का स्वामी), वसुपति (गुणधर्म को जानने वाला), भूतकृत (चरित्र निर्माता), ज्ञाननिधि (विषयों पर अच्छी पकड़), मनुर्भव (मननशील व विचारक), वाक् तत्ववित् (भाषा विज्ञानी), दूरदर्शी एवं प्रसन्नचित्त आदि गुणों से सम्पन्न होने की भी अपेक्षा की गयी है। इसके साथ ही छात्रों से भी यह अपेक्षा की गयी है कि वह आचार्य द्वारा प्रदत्त ज्ञान को अध्ययन (अधिति), अनुशीलन (बोध), व्यवहारिक प्रयोग (आचरण) के माध्यम से ग्रहण करते हुए लोक में इसको उचित रूप से सम्प्रेषित (प्रचारण) करने का प्रयत्न करें ताकि उनके द्वारा अर्जित ज्ञान का लाभ जन समुदाय भी उठा सके।
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