आर्य (हिंदी ) भाषा की वर्ण व लिपि का आरंभ कब हुआ

शंका- आर्य (हिंदी) भाषा कि वर्ण एवं लिपि का आरम्भ कब हुआ?

समाधान- आर्य (हिंदी) भाषा की लिपि देवनागरी हैं। देवनागरी को देवनागरी इसलिए कहा गया हैं क्यूंकि यह देवों की भाषा हैं। भाषाएँ दो प्रकार की होती हैं। कल्पित और अपौरुषेय। कल्पित भाषा का आधार कल्पना के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। ऐसी भाषा में वर्णरचना का आधार भी वैज्ञानिक के स्थान पर काल्पनिक होता हैं। अपौरुषेय भाषा का आधार नित्य अनादि वाणी होता हैं। उसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहते हैं परन्तु वह अपना मूल आधार अनादि अपौरुषेय वाणी को कभी नहीं छोड़ती। ऐसी भाषा का आधार भी अनादि विज्ञान ही होता हैं।


वैदिक वर्णमाला में मुख्यतः १७ अक्षर हैं। इन १७ अक्षरों में कितने अक्षर केवल प्रयत्नशील अर्थात मुख और जिव्हा की इधर-उधर गति आकुंचन और प्रसारण से बोले जाते हैं और किसी विशेष स्थान से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। उन्हें स्वर कहते हैं। जिनके उच्चारण में स्वर और प्रयत्न दोनों की सहायता लेनी पड़ती हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं। कितने ही अवांतर भेद हो जाने पर हमारी इस वर्णमाला के अक्षर ६४ हो जाते हैं। यजुर्वेद में इन्हीं १७ अक्षरों की नीचे के मंत्र द्वारा स्पष्ट गणना हैं- अग्निरेकाक्षरेण, अश्विनौ द्व्यक्षरेण, विष्णु: त्र्यक्षरेण, सोमश्चतुरक्षेण, पूषा पंचाक्षरेण, सविता षडक्षरेण, मरुत: सप्ताक्षरेण, बृहस्पति अष्टाक्षरेण, मित्रो नवाक्षरेण, वरुणो दशाक्षरेण, इन्द्र एकादशाक्षरेण, विश्वदेवा द्वादशाक्षरेण, वसवस्त्रयोदशाक्षरेण,रुद्रश्चतुर्दशाक्षरेण, आदित्या: पंचदशाक्षरेण, अदिति: षोडशाक्षरेण, प्रजापति: सप्तदशाक्षरेण। (यजुर्वेद ९-३१-३४)

इस प्रकार यह मूलरूप से १७ अक्षरों की और विस्तार में १७ अक्षरों की वर्णमाला वैदिक होने से अनादि और अपौरुषेय हैं। वर्णमाला के १७ अक्षरों का मूल एक ही अकार हैं। यह अकार ही अपने स्थान और प्रयत्नों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता हैं। ओष्ठ बंद करके यदि अकार का उच्चारण किया जाए तो पकार हो जावेगा और यदि अकार का ही कंठ से उच्चारण करें तो ककार सुनाई देगा। इस प्रकार से सभी वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिये। अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता हैं, बिना उसकी सहायता के न कोई वर्ण भलीभांति बोला जा सकता हैं और न सुनाई देता हैं। इसलिए अकार के निम्न अनेक अर्थ हैं- सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखंड आदि अकार अक्षर के ही अर्थ हैं। इन अर्थों को देखकर अकार अक्षर व्यापक और अखंड प्रतीत होता हैं। क्यूंकि शेष अक्षर उसी में प्रविष्ट होने से इन्हीं के रूप में ही प्रतीत होते हैं। उपनिषद् में ब्राह्मण कम् और खम् दो अर्थ हैं। इसलिए इस अपौरुषेय वर्णमाला का उच्चारण करते समय हम एक प्रकार से ब्रह्मा की उपासना कर रहे होते हैं। वर्णों के शब्द बनते हैं और शब्दों का समुदाय भाषा हैं। इस प्रकार से हिंदी भाषा को ‘ब्रह्मवादिनी’ भी कह सकते हैं।
इस प्रकार देवनागरी लिपि में प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते समय हम ब्रह्मा की उपासना कर रहे होते हैं। इसलिए देवनागरी हमारी संस्कृति का प्रतीक हैं। हमारी संस्कृति वैदिक हैं। वैदिक संस्कृति वेद द्वारा भगवान की देन हैं और वेदों के अनादि होने से हमारी संस्कृति और हमारी भाषा भी अनादि और अपौरुषेय हैं। एक और तथ्य यह हैं कि हमारी भाषा में सभी भाषाओँ के शब्द लिखे और पढ़े जा सकते हैं क्यूंकि इसके ६४ अक्षर किसी भी शब्द की तथा उच्चारण की किसी भी न्यूनता को रहने नहीं देते।
देवनागरी लिपि के विकास की जहाँ तक बात हैं तो स्वामी दयानंद पूना प्रवचन के नौवें प्रवचन में लिखते हैं कि इक्ष्वाकु यह आर्यावर्त का प्रथम राजा हुआ। इक्ष्वाकु के समय अक्षर स्याही आदि से लिखने की लिपि का विकास किया। ऐसा प्रतीत होता हैं। इक्ष्वाकु के समय वेद को कंठस्थ करने की रीती कुछ कम होने लगी थी । जिस लिपि में वेद लिखे गए उसका नाम देवनागरी हैं। विद्वान अर्थात देव लोगों ने संकेत से अक्षर लिखना प्रारम्भ किया इसलिए भी इसका नाम देवनागरी हैं।
इस प्रकार से आर्य भाषा अपौरुषेय एवं वैदिक काल की भाषा हैं जिसकी लिपि का विकास भी वैदिक काल में हो गया था।

सन्दर्भ- उपदेश मंजरी- स्वामी दयानंद पूना प्रवचन एवं स्वामी आत्मानंद सरस्वती पत्र व्यवहार-२०९ (अप्रकाशित)

डॉ विवेक आर्य

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