भारतीय राजनीति में जिस प्रकार की विकृति व विसंगति वर्तमान समय में उभर रही है वह ठिक तो कदापि नहीं, अव्यवहारिक व देश के लिए घातक भी है। राष्ट्रीय राजनीति के मुद्दों से लेकर पंचायत स्तर के चुनावों तक में उम्मीदवारों द्वारा कितनी बेतुकी व बेसिर-पैर की बयानबाजी की जाती है निकट समय के कितने ही उदाहरण इसकी गवाही दे रहे है।
शास्त्रों में शब्द साधना का बड़ा महात्म्य किया गया है, क्योंकि शब्द ही अभिव्यक्ति का माध्यम है। विचारों का प्रकटीकरण शब्दों के द्वारा ही होता है। वाणी को तौल कर बोलना ही संतुलित व्यक्ति की पहचान है। किस स्थान पर किस प्रकार बोलना यह विवेक प्रत्येक मनुष्य में होना चाहिए। किसी को किसी का हत्यारा कहना, किसी को मौत का सौदागर कहना, क्या व्यक्ति के अविवेकी होने की गवाही नहीं देते? ऐसे कई बयान सुनने में आये हैं। हाल ही में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का बयान आया, बयान उन्हीं के शब्दों में,- जिस संगठन के लिए सरदार पटेल और महात्मा गांधी ने अपनी जान दी उसे वे (मोदी) मिटाना चाहते है। इसके साथ एक अन्य बयान आया जो सरदार पटेल द्वारा कही गई बात ऐसा कहकर दिया गया। कहा कि पटेल ने कहा था- आरएसएस की विचारधारा जहरीली है, वह भारतीयता के खिलाफ है। दोनों बयान पढक़र मन में विचार आया कि आज जिस कांग्रेस द्वारा इन दोनों महापुरूष का नाम वोटों की एक मुश्त किश्त पाने के लिए भुनाया जा रहा है, क्या उनके स्पष्ट व राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत सुझावों व विचारों को केवल आज नहीं आजादी के कुछ वर्षों पूर्व से (नेहरू जी के कांग्रेस पर हावी होने के बाद से) लेकर आज तक कांग्रेस ने कभी सच्चे मन से अपनाया है?
श्री गांधी के नाम को तो केवल उनकी महात्मा की छवि के कारण कांग्रेस आज तक ढो रही है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय जनमानस में महात्मा गांधी के प्रति जो श्रद्धा व निष्ठा निर्मित हुई उसका पूरा लाभ नेहरू जी से लेकर सोनिया जी तक की कांग्रेस निरंतर ले रही है। जिस विचार के आधार पर गांधीजी ने गांवों के स्वावलम्बन का सपना देखा था उस ग्राम-स्वराज सिद्धांत व चरखा अर्थशास्त्र, खादी निर्माण आदि विचारों को तो जवाहर लाल जी ने प्रधानमत्री बनते ही यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि देश उद्योगों के बल पर उन्नति करेगा, गांधी जी के विचार अप्रासंगिक है। महात्मा जी के शास्वत विचारों का गला उस समय से आज तक उन्हीं के नाम पर कांग्रेस पार्टी षान से घोंट रही है। आज स्थिति यह है कि गांधी के विचारों के नाम पर सर्व सेवा संघ व सर्वोदय संघ के कार्यकर्ता यथा शक्ति थोड़ा सा प्रयास कर रहे है, लेकिन जमीनी वास्तविकता तो यह है कि गांधीजी के विचार ही जब कांग्रेस की दृष्टि में अप्रासंगिक है तो ये सस्थाएं उपेक्षा की शिकार ही होगी, इसमें कोई संदेह नहीं। सरकारों (विशेषकर कांग्रेसनीत सरकारों को) को कार्पोरेट घरानों व बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन देने के अपने ऐजेंडे से ही फुर्सत नहीं। ऐसे में कांग्रेस के नेताओं द्वारा किस आधार पर यह कहा जाता है कि गांधी जी ने कांग्रेस के लिए जान दी उनके या उनके अस्तित्व के विषय में दिखाने के लिए कांग्रेस के पास एकआध योजना (जो केवल उनके नाम का शीर्षक होने के कारण उनका सपना साकार कपने वाली कही जाती है।) के अलावा शायद कुछ नहीं।
थोडा इतिहास में जाकर देखे तो ध्यान में आता है कि आजादी के तुरंत बाद महात्मा गांधी ने नेहरू जी को यह सलाह दी थी कि कांग्रेस का चरित्र आजाद भारत में राजनीतिक दल के लायक नहीं अत: अब कांग्रेस का विसर्जन कर देना चाहिए किंतु नेहरू जी ने गांधी जी की सलाह को नहीं माना क्यों? क्या इसमें नेहरू जी की सत्ता भूख नहीं झलकती? (शायद तभी से कांग्रेस में किसी भी तरह सत्ता से चिपके रहने की प्रवृत्ति अवतरित हुई।) क्या यह गांधी के विचार-सिद्धांत की हत्या नहीं थी? इसके अलावा भी कई ऐसे उदाहरण हैं जो महात्मा जी के विचारों के उनके अपनों द्वारा हलाल करने के राजर्फाश को उजागर करते हैं।
कुछ दृष्टि सरदार पटेल के सम्बंध में कांग्रेस के व्यवहार पर डालें तो केवल नेहरु जी के व्यवहार को ही हम चर्चा के केन्द्र में रखते हैं तो ध्यान में आता है कि आजादी के पूर्व जब माउन्टबेटन की परिषद में उपप्रधानमत्री के पद की उम्मीदवारी के लिए चर्चा चली उस समय सरदार पटेल को 11 में से 6 प्रांतो ने पद के लिए नेहरू जी से भी ज्यादा उचित व सक्षम मानकर उन्हें समर्थन दिया। लेकिन गांधी जी के कहने मात्र पर पटेल ने अपनी दावेदारी को वापस लिया। वे चाहते तो अपनी लोकप्रियता के बल पर कुछ भी कर सकते थे किंतु उन्होंने गांधी जी के वचन की लाज रखी। अपने आप को महान ज्ञाता व विदेश नीति का मंजा हुआ खिलाड़ी मानने वाले वर्तमान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के पूर्वज नेहरू जी सरदार की बढती लोकप्रियता से कितने चिंतित थे, यह बताने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने सरदार की लोकप्रियता को कम करने व कांग्रेस में उनका कद छोटा करने के लिए क्या-क्या नहीं किया। सरदार पटेल द्वारा देश की सभी रियासतों का विलय भारतीय संघ में सफलतापूर्वक किया यह सबको विदित है, नेहरू जी इस कार्य से इतने आत्मग्लानि से भर गये कि बिना सोचे-विचारे कश्मीर का मुद्दा (जो केवल घरेलू मुद्दा था) को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये केवल यह दिखाने के लिए की मैं भी पटेल से कम नहीं उनके इस आत्मप्रशंस्य कर्म का देश पर क्या कुप्रभाव पड़ा यह सभी जानते हैं।
मोरारी जी देसाई ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर कश्मीर का विषय आरम्भ से ही सरदार पटेल के हाथों में सौंपा जाता तो वे दो या तीन वर्षों के भीतर ही उसका संतोषजनक हल निकाल लेते (द स्टोरी आफ माई लाईफ, पृष्ठ 277) क्या यह पटेल द्वारा कांग्रेस के लिए जान देने जैसा कार्य था? (जो वर्तमान कांग्रेस के आद्य पुरूष ने किया था।) फिर किस कारण पटेल ने कांग्रेस के लिए अपनी जान दी? कश्मीर में धारा 370 जैसा देश विघातक कानून लागू करना क्या पटेल की विचारधारा के अनुरुप था? तो फिर क्यों उसे आज तक कांग्रेस चला रही है? हैदराबाद रियासत के विलय के संबंध में जवाहर लाल जी के विचार अस्पष्ट व हद से अधिक लचीले थे किंतु पटेल का रुख बिल्कुल स्पष्ट व सुलझा हुआ था। पटेल की खुली धारणा थी कि यदि निजाम आंख दिखायेंगे तो भारतीय सेना उन्हें उनकी औकात बता देंगी। वे राजनीति व राष्ट्रीय हित के प्रत्येक मुद्दे पर व्यवहारिक बुद्धि से विचार करते थे, जबकि नेहरु जी (कांग्रेस का) का दृष्टिकोण अतिसंवेदनशील मुद्दों पर भी अवसरवादी व वोटों के लालच से परिपूर्ण होता था, अत: उनका पटेल से कभी विचार साम्य नही हो सका। फिर किस कांग्रेस के लिए पटेल अपनी जान देते? तब की छोडि़ए, क्या आज की कांग्रेस किसी ओवेसी के विरुद्ध पटेल जैसा व्यवहारिक सिद्धांत अपना सकती है? (आज तक नहीं अपनाया!) फिर कांग्रेस किस प्रकार पटेल के विचारों पर चलती है? कांग्रेस की संजीवनी ही आज तुष्टीकरण है, सरदार पटेल जिस विचार के सख्त खिलाफ थे, वही विचार आज इस कांग्रेस का अस्तित्व का आधार है, इसके अभाव में कांग्रेस का मुझे नहीं लगता कोई आधार है।
क्या नेहरु जी से आज तक कांग्रेस ने कभी पटेल का सच्चे मन से सम्मान किया है? नेहरु जी ने तो नहीं किया। वे तो पटेल को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। क्योंकि उनके मन में हमेशा यह भय बना रहता था कि पटेल उनका प्रधानमंत्री पद छिन लेंगे। इसलिए वे कई बार अपने विचारों से समझौता कर लेते थे। वोटों के लालच में अपनी पंथ निरपेक्ष छवि के साथ समझौता कर वर्ग विशेष का तुष्टीकरण प्रारंभ करने वाले पहले कांग्रेसी जवाहर लाल जी ही थे, उनके इस कार्य का पटेल ने कभी समर्थन नहीं किया। वे मुस्लिम बंधुओं की उन्नति के कभी विरोधी नहीं रहे, लेकिन कोरी अवसरवादिता उन्हें पसंद नहीं थी। प्रत्येक वर्ग का हित उनके कार्य की प्राथमिकता थी, किंतु अपनी प्राचीन संस्कृति पर भी उन्हें अपार श्रद्धा थी। इसी कारण उन्होंने आजाद भारत में मुस्लिम हितों पर ध्यान दिया साथ ही सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा। लेकिन नेहरू जी ने केवल वोटों के लिए इस कार्य को साम्प्रदायिक कहकर उसका विरोध ही नहीं किया, बल्कि जा पंहुचे राष्ट्रपति के पास जिर्णोद्धार से दूर रहने की सलाह देने। लेकिन राष्ट्रपति ने उनकी सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। विषय गम्भीर नहीं था, किंतु उससे इस बात का पता तो चल ही गया कि नेहरू जी पटेल से कितना विरोध रखते थे, वह विरोध केवल विरोध न रहकर द्वेष बन गया था इसका पता जिस घटना से लगता है, उसका उल्लेख प्रसिद्ध पत्रकार श्री दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिया फॅ्राम कर्जन टू नेहरु में किया है, वे बताते हैं कि सरदार पटेल की अन्त्येष्टि में भाग न लेने की सलाह देने जवाहर लाल जी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पास जाते है, (दूसरे शब्दों में एक देश के प्रथम प्रधानमंत्री उसी देश के प्रथम राष्ट्रपति को यह सलाह देने जाते हैं कि वे अपने देश के प्रथम गृहमंत्री (प्रथम उपप्रधानमत्री भी) की अन्त्येष्टि में भाग न लें) देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य! क्या यह उस व्यक्ति का घोर अपमान नहीं था? लेकिन उसके आगे जो हुआ वह भी विचारणीय है, राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु जी को सीधा किंतु दो टूक उत्तर दिया उन्होंने कहा कि इस प्रकार के विषयों पर राष्ट्रपति को किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं रहती। बेचारे सलाहकार जी को अपनी सलाह अपनी जेब में डाल कर वापस जाना पड़ा।
यह था आज की कांग्रेस के जनक का पटेल के प्रति सम्मान!
लेकिन कारवां यहीं तक नहीं रुका जैसा कि उपर बतलाया गया है नेहरु जी का कांग्रेस में केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी था जो नेहरु जी की निन्दों को बूरी तरह खराब कर रहा था। लेकिन दुर्भाग्य से उस विभुति का देहांत हो गया। अब नेहरु जी ने अपनी भूमिका को आक्रामक बनाना प्रारंभ किया। सर्वप्रथम कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर प्रधानमंत्री रहते हुए कब्जा किया।
तत्पष्चात आधुनिक जामा पहनाने के नाम पर कांग्रेस को हाईजै करना शुरू किया। एक-एक कर पटेल समर्थक तमाम कांग्रेसियों को या तो कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या फिर उन्हें इतना परेशान किया गया कि वे स्वयं पार्टी छोडक़र चले गये। पीछे जो कांग्रेस रही या निर्माण की गयी, वह पूर्ण रूप से नेहरु जी की चाह के अनुकूल थी जिसे वे अपनी इच्छा अनुसार चला सकते थे। आज जो कांग्रेस देश में दैत्याकार रूप में दिखाई दे रही है। उसका श्री गणेश पटेल की मृत्यु के बाद नेहरु जी ने किया, उसका विकास अपनी तानाशाही के बल पर इन्दिरा जी ने किया व उसका उपयोग वर्तमान कांग्रेस किस रूप में कर रही है, यह बताना आवश्यक नहीं। जिस कांग्रेस को पटेल ने देखा ही नहीं, उस कांग्रेस के लिए वे अपनी जान किस प्रकार दे सकते हैं, यह समझ से परे है।
रही बात आरएसएस के लिए पटेल द्वारा दिये गये बयान की तो उसके लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त है कि यदि वे संघ की विचारधारा को भारतीयता के लिए खतरनाक मानते तो कष्मीर मुद्दे के हल के लिए श्रीगुरुजी को विषेष विमान से श्रीनगर श्रीहरि सिंह को समझाने के लिए नहीं भेजते। जीवनभर संघ को कोसने वाले नेहरु को भी अन्तिम समय में यह स्वीकारना पड़ा था कि संघ एक देशभक्त संगठन है, इसका प्रमाण है नेहरु जी द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर स्वयंसेवकों के संचलन को आमंत्रित करना। यदि संघ की विचारधारा अपनी प्राचीन विरासत को संजोने के कारण जहरीली होती तो पटेल सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार नहीं करवाते। विचारणीय तथ्य जो यह कि पटेल नेहरु जी की तुष्टीकरण की नीति को देश के लिए जहरीली मानते थे, इसी कारण कांग्रेस ने उनको व उनकी विचारधरा को हाषिये पर धकेल दिया। आजादी के बाद से कांग्रेस के पास केवल दो व्यक्तियों की ‘गाइड लाईन‘ थी एक नेहरु जी की दूसरी ईन्दिरा जी की अन्य किसी भी नेता की कांग्रेस में न तो चलती थी नही ये चलने देते थे। आज तो स्तिथि इतनी खराब है कि कांग्रेस नेहरु जी को भी लगभग भूल गई है। सोनिया जी के कांग्रेस अध्यक्षा बनने के बाद वरियता में क्रमश: पहले व दूसरे स्थान पर राजीव जी व इन्दिरा जी है। जिनके प्रचार कार्य से ही उन्हे फुर्सत नहीं। जरा सोचिए जो अपने आदर्शपुरुष को भी सत्ता के मद में भूल सकते हैं, वो पटेल जैसे राष्ट्रवादी व तुष्टीकरण के विरोधी नेता को किस प्रकार याद रखेंगे। कांग्रेस संगठन में आस्था का केन्द्र निरन्तर खिसक रहा है, पहले केन्द्र नेहरु जी में निहित था, आज वह राजीव गांधी में स्थापित हो गया है, केन्द्र सरकार की लगभग प्रत्येक योजना का शीर्षक राजीव गांधी के नाम पर सुशोभित है, गरीबी उन्मूलन की योजनाओं से लेकर बड़े बिजनेस वाले लोगों को राहत पहुंचाने वाली कितनी ही योजनाओं राजीवमय करना क्या वंशवाद को बढ़ावा देना नहीं कांग्रेस को 125 वर्ष पुरानी कहकर उसपर गर्व करने वाले आज की कांग्रेस के नीतिकारों को एक भी ऐसा नेता नहीं मिला, जो किसी सरकारी योजना का शीर्षक बनने योग्य हो? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि कांग्रेस लोकतांत्रिक पद्धति से हटकर परिवारवाद की ओर बढ़ रही है?
किसी वन्यजीव अभयारण्य का नाम राजीव गांधी के नाम पर रखने के स्थान पर यदि किसी पर्यावरणविद् के नाम पर रख दें तो कौन सी आफत टूट पड़े? किसी हवाई अड्डे का नाम राजीव गांधी के स्थान पर यदि कोई श्रेष्ठ विमान चालक ले लें तो क्या बुराई है? किसी विश्वविद्यालय का नाम किसी महान शिक्षाविद् के नाम पर रख दिया जाय तो कौन विरोध कर देगा? लेकिन क्यों? कांग्रेस केवल एक वंश की बपौती है उसकी शोभा भी केवल उसी वंश के लिए है! अन्य सभी तो केवल वर्कर है। उन सभी को केवल यशगान करना है (झूठा ही सही)। कहते हैं- विचार अमर रहता है, व्यक्ति भले ही संसार छोड़ दे। लेकिन किसी महापुरुष के विचार को मारने की कोशिश करना उस महापुरुष का अपमान करना तो है ही उस महान आत्मा की स्मृति के साथ किया गया भयंकर छल भी है। ऐस छल कांग्रेस ने इन दोनों की आत्माओं के साथ किया है। निष्कर्ष यही है कि कांग्रेस के लिए गांधी व पटेल ने अपनी जान नहीं दी, बल्कि कांग्रेस को तानाशाही ढंग से चलाने के लिए कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं ने इन दोनों महापुरुषों के महान विचारों का हनन किया है, उनके राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत विचारों की हत्या की है। केवल और केवल चुनावों के समय कांग्रेस को इनके वे नेक व कल्याणकारक विचार याद आते हैं, जिन्हें धरातल पर कांग्रेस ने कबका त्याग दिया? इतना सबकुछ होते हुए राहुल गांधी इस प्रकार के बयान देकर देश को व अपने आप को नहीं ठग रहे?
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