सुद्युम्न आचार्य
विश्व भौतिकी के लिये भारत में किये गये अनेक प्राचीन अविष्कार दैनिक जीवनोपयोगी उपकरणों से सम्बन्धित है। इतिहास के किसी भी युग में उनका तिरस्कार नहीं किया गया। आधुनिक युग में भी उनका विकल्प खोजा नहीं जा सका। उदारहणत: स्थल में चलने के लिये चक्र तथा जल में चलने के लिये नौका की चर्चा की जा सकती है। भारत में सबसे पहले सूर्य चंद्र की वृत्ताकारता को प्रमुख रूप से परिलक्षित किया गया तथा उस आकार को गति का सबसे बढिय़ा कारक माना गया। विश्व के पुस्तकालय के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में नभोमण्डल में दृश्यमान सुंदर वृत्ताकार सूर्य को चक्र से उपमित किया गया। तथा उसे गति का सबसे बढिय़ा कारक माना गया। वेद का एक मन्त्र इस प्रकार है – सप्त युज्जन्ति रथमेकचक्रम् अश्वो वहति सप्तनामा। ऋग्वेद 1.164.2
अर्थात् एक अश्व सूर्य के एक चक्र वाले रथ को जो रश्मि रूपी सात लगामों से बंधा है, उसे वहन करता है। यहॉ पर सात लगाम सूर्य की सात किरणें हैं। निरूक्त में रश्मि शब्द का अर्थ लगाम के साथ-साथ किरणें भी किया गया है। इससे स्पष्ट प्रकट है कि उस वैदिक युग में सूर्य की सात किरणों को जान लिया गया था। इस मन्त्र से यह भी संकेत मिलता है कि वृत्ताकार चक्र गति का सबसे बढिय़ा उपाय है। उस समय लोगों ने सभी दोपाये तथा चौपाये प्राणियों की गति के उपाय से भिन्न चक्र की गति की श्रेष्ठता को समझ लिया था। उन्होंने उस समय यह जान लिया था कि दो पैर अथवा चार पैर के प्रयोग से भूमि के साथ घर्षण बल का जो प्रतिरोध करना पड़ता है वह चक्र के उपाय से अति स्वल्प रह जाता है। चक्र का प्रत्येक बिन्दु प्रत्येक अगले क्षण घर्षण बल के प्रतिरोध से बचने के लिये भूमि के उस-उस बिन्दु को छोड़ देता है। अत: उसमें घर्षण बल का कम से कम प्रतिरोध करना पड़ता है।
यह एक तथ्य है कि गति का यह उपकरण किसी भी युग में छोड़ा नही जा सका। आज भी चाहे रेलगाड़ी हो या वायुयान हो उसमें इस चक्र का स्थान ग्रहण करने के लिये कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध नही हो पाया। इसलिये अति प्राचीन होते हुये भी आधुनिक विज्ञान के लिये यह देन अपूर्व है। जल में चलने वाली नौका का भी जो भी सामने का आकार अविष्कृत किया गया उससे घर्षण बल का कम से कम प्रतिरोध करना पड़ता है। यह आकार नदी में चलने वाले जल के आकार के सूक्ष्म निरीक्षण से प्राप्त हुआ है।
इसी प्रकार भारतीय मनीषियों ने जो भी विज्ञान के सिद्धांत दिए थे, उनकी उपयोगिता किसी न किसी स्तर पर आज भी बनी हुई है। गणित और खगोलशास्त्र में हमने जो उपलब्धियां प्राप्त की थीं, वे आज भी प्रामाणिक और मान्य हैं। आधुनिक विज्ञान ने उनके सिद्धांतों का अनुमोदन ही किया है। इसलिए आज आवश्यकता है कि हम अपनी इस ज्ञान परंपरा का अध्ययन आरंभ करें और उस पर गहन शोध करें। इससे न केवल हम विज्ञान के और भी नवीन सिद्धांतों को ढूंढ सकेंगे, बल्कि इससे विश्व का भी कल्याण कर सकेंगे।