इतिहास पर गांधीवाद की छाया, अध्याय – 17 (1)
द्विराष्ट्रवाद और गांधीवाद
2019 में केंद्र की मोदी सरकार के द्वारा जब लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया गया तो कुछ बरसाती मेंढक बाहर आकर टर्राने लगे थे। इन मेंढकों की टर्राहट गृहमंत्री अमितशाह के उस बयान को लेकर अधिक थी जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत का धर्म के आधार पर यदि विभाजन नहीं होता तो आज उन्हें इस विधेयक को लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
संसद के बाहर लालकृष्ण आडवाणी के निकट माने जाने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने इस विधेयक का विरोध किया था। उन्होंने ट्वीट करके कहा है – ‘संसद के इतिहास में शायद ही कभी हमने किसी वरिष्ठ मन्त्री को एक ‘काले कानून’ का बचाव करने के लिए इस प्रकार से सफेद झूठ बोलते देखा हो। ‘
वहीं, इतिहासकार एस इरफान हबीब ने ट्वीट करके लिखा, ‘सदन में आप ऐसी बातें उस वक्त करते हैं , जब आप तथ्यों पर आधारित इतिहास को पढ़ने या समझने की जहमत नहीं उठाते।’
एक अंग्रेजी अखबार ने विनायक दामोदर सावरकर के 1923 के लिखे निबन्ध ‘ हिन्दुत्व ‘ का सन्दर्भ देकर बताया कि सावरकर ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से 17 वर्ष पहले ‘द्विराष्ट्र सिद्धान्त’ की बात की थी । वहीं, लोकसभा में कॉंग्रेस के मनीष तिवारी ने अमित शाह के उस दावे को अस्वीकार किया, जिसके अनुसार देश के विभाजन के लिए कांग्रेस उत्तरदायी थी। तिवारी ने कहा कि ‘द्विराष्ट्र के सिद्धान्त’ की बात सावरकर ने दी थी।
जब भी ‘द्विराष्ट्रवाद’ की बात चलती है तो अक्सर हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकर का नाम यह कहकर लिया जाता है कि उन्होंने 1923 में ‘ हिन्दुत्व ‘ नामक जिस पुस्तक का लेखन किया था , उसमें ही उन्होंने ‘द्विराष्ट्र सिद्धान्त’ की बात कही थी।
वीर सावरकर पर ऐसा आरोप लगाने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सावरकर जी ने अपनी इस पुस्तक में राष्ट्रवाद के सिद्धान्त की बात तो की है लेकिन उसका समर्थन नहीं किया है। ‘अखण्ड भारत’ के उपासक सावरकर जी ‘द्विराष्ट्रवाद’ के समर्थक कभी नहीं हो सकते थे और न ही उन्होंने इस पुस्तक में धर्म के आधार पर दो राष्ट्र के सिद्धान्त के प्रति अपनी सहमति व्यक्त की है।
सर सैयद अहमद खान और द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त
वास्तव में जिन लोगों का गांधी जी और उनकी कांग्रेस सदा तुष्टीकरण करती रही और अपनी गलत नीतियों के द्वारा जिनका पक्षपोषण करते हुए उनका मूल्य बढ़ाती रही ,उन्हीं में से एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान भारत में ‘द्विराष्ट्रवाद’ के सिद्धान्त के प्रतिपादक थे।
इतिहास का यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि गांधी जी ने सदा ही द्विराष्ट्रवाद के समर्थक रहे सर सैयद अहमद खान और उन जैसे अन्य कई मुस्लिम नेताओं का कभी विरोध नहीं किया । यहाँ तक कि मां भारती के विभाजन की मांग करने वाले इन देशद्रोहियों के विरुद्ध कभी धरने या अनशन पर भी बैठने की इच्छा व्यक्त नहीं की। अपने इसी कुसंस्कार के चलते कांग्रेस आज भी ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ के लोगों के विरुद्ध या ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे – इंशाअल्लाह- इंशाअल्लाह’ कहने वाले लोगों के विरुद्ध न तो कठोर होती है ना कठोर कार्यवाही की मांग करती है। कांग्रेस के इसी कुसंस्कार से अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्तमान भारत के इतिहास पर गांधीवाद की काली छाया कितना गहरा प्रभाव बनाए हुए है ?
मुस्लिम तुष्टीकरण के राग में लगे सुधींद्र कुलकर्णी , मनीष तिवारी और हबीब साहब जैसे लोग सावरकर जी पर तो दिराष्ट्रवाद के सिद्धान्त का आरोप लगा देते हैं , पर सर सैयद अहमद खान के बारे में कुछ भी बोलने या उन पर शोध करने से वह पीछे हट जाते हैं। तथ्यों की बात करने वाले इन जैसे लोग सत्य के सामने आते ही उससे मुँह फेर कर खड़े हो जाते हैं ।
यदि सर सैयद अहमद खान के विषय में गम्भीरता से सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि उनके विचारों से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ । इतिहास के निष्पक्ष समीक्षकों की यह दृढ़ मान्यता है कि पाकिस्तान का जनक यदि जिन्नाह था तो उसका पितामह सर सैयद अहमद खान थे। उनके द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को ही आगे चलकर इक़बाल और जिन्नाह ने विकसित किया जो पाकिस्तान के निर्माण का सैद्धांतिक आधार बना। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं- “सर सैय्यद अहमद खान ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों का प्रचार किया जो बाद में अलीगढ़ आन्दोलन की नींव बना… इसके बाद मुस्लिम अलग राष्ट्र है – इस सिद्धान्त को गेंद की तरह इससे ऐसी गति मिलती रही कि उससे पैदा हुई समस्या को पाकिस्तान निर्माण के द्वारा हल किया गया।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
सम्पादक : उगता भारत