दलाई लामा ने बताया है कि 1950 के पहले तिब्बत में लगभग 600000 बौद्ध भिक्षु थे। अधिकांश को जेल में डाल दिया गया, यातनायें दी गईं या वे सामूहिक नरसंहार का शिकार हुये। बौद्ध मठों जैसे द्रेपुंग, सेरा, गादेन, लिथांग, दर्जे, बाथांग, चाम्डो, ताशि क्यिल, कुबुम आदि से भारी संख्या में भिक्षु ग़ायब हो गये जिनका पता नहीं चला। 1980 में यह अनुमान लगाया गया कि जेलों और लेबर कैम्पों में लगभग 80000 तिब्बती थे। ‘उदारीकरण liberalization)’ के नाम से जाने जाने वाले संक्षिप्त दौर में इनमें से कई को छोड़ दिया गया और कुछ को भारत भाग गये अपने रक्त सम्बन्धियों से मिलने जाने की अनुमति दी गई। डा. चोडक जैसे विस्तृत साक्ष्यों के पश्चात ही छ्ठे और सातवें दशक में तिब्बत में घटित का पूरा रूप जानना सम्भव हो पाया और इन तथ्यों को तीन तथ्यान्वेषी प्रतिनिधिमंडलों के मौखिक और फिल्माये गये दोनों प्रकार के साक्ष्यों से प्राप्त सूचनाओं से परिवर्धित किया गया है।
(4) चीनी नीतियों के कारण दुर्भिक्ष:
परम्परा से सुस्थापित तिब्बती कृषि विधियों की चीनियों द्वारा तबाही के फलस्वरूप कई हजार तिब्बती भूख के कारण मृत्यु को प्राप्त हुये जिससे तिब्बती जनसंख्या में और घटोत्तरी हुई। सरवाइवल इंटरनेशनल (यूनेस्को एन जी ओ) के परियोजना निदेशक डा. स्टीफेन कोर्री के शब्दों में ‘ग़रीबों को खाने को पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ देना तो दूर, भारी संख्या में साक्ष्य यह सुझाते हैं कि चीनियों ने आवश्यक रूप से स्वावलम्बी समाज को अस्त व्यस्त कर दिया और अपनी क्रूरता और उपनिवेशवादी तरीकों से खाद्यान्नों की भारी किल्लत और भूख की समस्या खड़ी की जब कि आम जन को नये स्वामियों के पोषण हेतु काम पर लगाया गया।‘
1950 के पहले जौ तिब्बतियों का प्रधान आहार था(उससे वे त्साम्पा नामक व्यंजन बनाते थे)। चूँकि चीनियों को जौ प्रिय नहीं था और वे गेहूँ पसन्द करते थे, चीनी सेनाओं के पोषण के लिये यह नई फसल तिब्बती भूमि पर बोई गई। इसके कारण अकाल पड़ा क्यों कि ऊँची भूमि के जौ की तुलना में गेहूँ पकने में अधिक समय लेता है और स्पष्टतया चीनी या तो बुद्धिहीन थे या उनमें प्रेक्षण की वह शक्ति ही नहीं थी कि वे समझ पाते कि अल्प तिब्बती ग्रीष्म ऋतु गेहूँ को पकने के लिये अधिक समय नहीं मुहैया करा पायेगी और जाड़ों के भयानक पाले फसल को कटने के पहले ही बरबाद कर देंगे।
पुरानी कृषि विधि में खेत परती छोड़ दिये जाते थे जब कि नई विधि में समूची कृषि भूमि पर उतनी सघनता से खेती की गई जितनी कि सम्भव थी जिसके तबाही लाने वाले परिणाम सामने आये। जो भूमि पहले चरागाहों के रूप में उपयुक्त होती थी उसे भी जोत कर खेत बना दिया गया जब कि अधिकांश स्थितियों में चरागाहों की मिट्टी की संरचना गेहूँ उगाने के लिये अनुपयुक्त थी। इसके कारण लाभ तो बहुत कम हुआ लेकिन बहुत से मवेशी मर गये। चीनियों द्वारा सेनाओं की आवाजाही के लिये कई सड़कें बनाई गईं जिनके कारण चरागाहों की भूमि और भी कम हो गई और चीनी सैन्य ठिकानों, जो तिब्बत में भारी संख्या में हैं, के पास मवेशी चराने की अनुमति नहीं थी। इस कारण मवेशियों की मृत्यु में और बढ़ोत्तरी हुई। अन्धाधुन्ध भूमि दोहन के कारण, जिनके भावी भयावह परिणामों को तिब्बती समझ गये थे और चीनियों को सावधान भी किये थे, उपजाऊ क्षेत्रों में भी उपज तबाही के स्तर तक कम हो गई। 1960 और 1962 में विशाल क्षेत्रों में दुर्भिक्ष पड़े। कभी अन्न उत्पादन के लिये प्रसिद्ध रहे कांज़े और द्रायाब क्षेत्रों में लोगों की यह स्थिति हो गई कि वे भिखारी बन गये और खाने की खोज में अपने घरों को छोड़ चले। शरणार्थियों द्वारा दिये गये विवरण 1840 के काल में ब्रिटिश शासन के दौरान आयरलैंड में पड़े ‘आलू अकाल’ की प्रत्यक्षदर्शी रिपोर्टों की सुस्पष्ट याद दिलाते हैं। छ्ठे दशक में अनियमित रूप से खाद्यान्नों की जानलेवा किल्लतें पुन: पुन: हुईं और द्रोमो और फारी में 1959, 63 एवं 66 में फसल विफलतायें घटित हुईं।
इस दौर की एक घटना(ऐसी कइयों में से एक) भूख से बेजार एक माँ से सम्बन्धित है जिसका पति जेल में था और जिसने भूख से मरते अपने बच्चे को पिलाने के लिये अपने ही खून का सूप बनाया। श्रीमती डी. चोडॉन भूख से हुई मौतों के खौफनाक रिपोर्टों को बयाँ करती हैं जिनमें ग्रामीणों ने अपने अंतिम बच रहे सामानों को भोजन के लिये बेंच दिया और उसके बाद भूख के कारण मर गये।
जिस किसी ने भोजन की कमी की बात कही या स्वीकारी, उसे चीनियों ने क्रूरता से दंडित किया और ‘समाजवाद का शत्रु’ घोषित कर दिया। तिब्बत के अधिकांश भागों में चीन के तीस वर्षों से अधिक शासन के बाद भी भोजन की कमी यथावत है और पतझड़ और गर्मी के मौसम में बहुतों को जंगली वनस्पतियों पर गुजारा करना पड़ता है।
(अगले अंक में:
चीनी सैनिकों और नागरिकों की तिब्बत में अंत:प्रवाही घुसपैठ,
शरणार्थियों का बहिर्गमन और
संयुक्त राष्ट्र के निवेदन)