प्रधानमंत्री की ‘एक देश एक चुनाव’ की पहल समय की आवश्यकता
हमारे देश में प्रत्येक वर्ष कभी ग्राम पंचायतों के कभी नगरपालिका या महानगरपालिकाओं के तो कभी विधायकों के और कभी लोकसभा के चुनाव आते रहते हैं । इस प्रकार प्रत्येक वर्ष सरकारी कर्मचारी विशेष रूप से राजस्व विभाग के कर्मचारी चुनावी तैयारियों में व्यस्त रहते हैं । इन कार्यों में प्राइमरी स्कूलों के अध्यापकों की सहायता भी ली जाती रहती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजस्व विभाग से जुड़ा हुआ किसान तो शिक्षा से जुड़ा हुआ गरीब वर्ग का बच्चा इन चुनावों से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। यदि किसान और गरीब वर्ग के बच्चों के स्थान पर चुनावी तैयारियों से धनिक वर्ग किसी प्रकार प्रभावित हो रहा हो रहा होता तो निश्चय ही इस व्यवस्था पर त्वरित गति से अभी तक कोई ना कोई निर्णय ले लिया जाता। क्योंकि उनकी कोई ना कोई आवाज होती है, जिसे सुना जाता है। जबकि किसान और गरीब के बच्चों की कोई आवाज नहीं होती।
अभी हमने बिहार के चुनावों को होते देखा है तो अब सारी राजनीतिक पार्टियां आने वाले 2021 के पश्चिम बंगाल , असम, तमिलनाडु ,केरल और पुडुचेरी के चुनावों की तैयारियों में लग गए हैं। इसके बाद देश के सबसे प्रमुख प्रदेश उत्तर प्रदेश के चुनाव भी 2022 में होने हैं। जिनकी छाया अभी से दीखने लगी है। इस प्रकार हर वर्ष कहीं न कहीं पर चुनाव होते रहने से चुनाव आचार संहिता भी देश में कहीं न कहीं लगी रहती है । साथ ही केंद्र और प्रदेश की सरकारें भी चुनावी तैयारियों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण हर समय जन समस्याओं पर केंद्रित होकर काम नहीं कर पाती हैं । स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में विकास कार्य भी बाधित और प्रभावित होते हैं ।राज्य व्यवस्था पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।
1951 – 52 में जब देश में पहले आम चुनाव हुए तो उस समय सारे देश में एक साथ राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव संपन्न कराए गए थे। इसके बाद यह स्थिति 1957 ,1962 व 1967 के चुनावों में निरंतर देखने को मिली।1968 – 69 में यह क्रम टूट गया क्योंकि उस समय कई राज्यों की विधानसभाएं समय से पहले भंग कर दी गई थी । इसके बाद श्रीमति इंदिरा गांधी ने लोकसभा के चुनाव भी 1972 के स्थान पर 1971 में अर्थात 1 वर्ष पहले ही संपन्न करा लिये थे । इस प्रकार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में देश में पहली बार दूरी पैदा हो गई। इसके बाद देश में श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में पहली बार आपातकाल लगाया गया तो उस समय इंदिरा गांधी ने निजी स्वार्थ में लोकसभा का कार्यकाल 1 वर्ष बढ़ा दिया। फलस्वरूप 1977 में जाकर चुनाव हो पाए। इस काल में भी राज्य विधानसभाओं के और लोकसभा के चुनावों में दूरी पैदा हो गई। इसके बाद 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। उस समय भी राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल लोकसभा के साथ पूर्ण नहीं हो पा रहे थे कहने का अभिप्राय है कि 1967 के बाद यह सिलसिला बद से बदतर की अवस्था में तो गया ,सुधरने की ओर न जा सका।
1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ न होने से पैदा होने वाली स्थिति पर गंभीरतापूर्वक अपनी चिंता व्यक्त की और उसने पहली बार यह बात कही कि देश के राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ संपन्न होने चाहिए। इस प्रकार विधि आयोग ने अपनी चिंता प्रकट करके देश के गंभीर और चिंतनशील लोगों को चुनावों की इस अस्त व्यस्त हो गई व्यवस्था पर विचार करने के लिए प्रेरित किया। परंतु इसे देश के चिंतनशील लोगों के विमर्श का विषय प्रधानमंत्री श्री मोदी ने 2015 में अपनी ओर से ‘एक देश एक चुनाव’ की बात कहकर बनाने का प्रयास किया।
तब से यह बात रह रह कर लिखी – पढ़ी और सुनी जा रही है कि देश में सारे चुनाव एक साथ संपन्न कराए जाएं, परंतु इन चुनावों को एक साथ संपन्न कराने की विधि कौन सी उचित हो सकती है ? – अभी राजनीतिशास्त्री या चुनाव विशेषज्ञ इस मतैक्यता पर नहीं पहुंच सके हैं। जहां तक चुनावों पर होने वाले खर्च की बात है तो यह भी बहुत अधिक विचारणीय हो गया है क्योंकि लोकसभा के पहले चुनाव जब 1951- 52 में संपन्न हुए थे तो उस समय केवल 11करोड़ रुपये ही चुनावों पर खर्च हुए थे जबकि अभी 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में 60 हजार करोड़ का था। इसके अलावा कालेधन का आंकड़ा कितना रहा उसकी कुछ पता नहीं है। सचमुच इतनी बड़ी धनसंपदा से देश के विकास कार्यों की गति प्रभावित होती है।
ऐसी कुव्यवस्था को देखकर ही इस समय हमारी चुनावी प्रक्रिया में व्यापक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इसके लिए उचित होगा कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं सहित अधिकतर चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था पर गंभीरता से विचार किया जाए। इससे हम चुनावों पर व्यय होने वाली बड़ी धनराशि को बचा सकते हैं। चुनाव आयोग को बार-बार सरकारी कर्मियों को उनके सरकारी कार्य रूकवाकर उन पर अपना डंडा चलाने का अधिकार अभी लगभग वर्ष भर कहीं न कहीं मिला रहता है। यदि चुनाव एक साथ होते हैं तो चुनाव आयोग सरकारी कर्मियों का कार्य रूकवाने से दूर रहेगा। अभी की स्थिति यह है कि जिला और तहसील स्तर पर डीएम व एसडीएम उनके अधीनस्थ अधिकारी व कर्मचारी एक चुनाव में लगभग छह माह व्यस्त रहते हैं। उसके उपरांत भी सारा कार्य सही प्रकार नही हो पाता। जैसे मतदाता सूची को संशोधित करने का समय लेखपाल को छह माह का दिया जाता है-जो कि मात्र छह दिन का कार्य है, परंतु फिर भी यह कार्य सही नहीं होता। मृतकों के मत मतदाता सूची में यथावत रह जाते हैं। गांव छोडक़र चले गये लोगों की सही प्रकार जांच नहीं की जाती, नई बनने वाली वोटों को लोग अपनी इच्छा से जैसे चाहें लेखपाल को 100-200 रूपये देकर जुड़वा लेते हैं। लेखपाल या संबंधित कर्मचारी का इस प्रकार बिकना सारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बीमार करता है। क्योंकि उसके द्वारा मतदाता सूची में की गयी धांधली और असावधानी ही पराजित प्रत्याशी को विजयी प्रत्याशी के विरूद्घ चुनावी याचिका डालने का ठोस आधार प्रदान करती है। चुनाव याचिका में कभी भी यह तय नहीं होता कि ऐसी धांधलेबाजी और असावधानी बरतने वाले सरकारी कर्मचारी के विरूद्घ क्या कार्यवाही हो?
चुनावों को अलग-अलग कराने से गांव के किसान लोग लगभग छह माह तक तहसील व जिला स्तर पर अधिकारियों व कर्मचारियों से अपना काम नहीं करा पाते। उन्हें उनके काम के लिए टरकाया जाता रहता है। यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो सरकारी कार्यों की गति भी बढ़ेगी। किसानों के कार्य समय पर होंगे। इसी प्रकार की स्थिति सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की है। सरकारी स्कूलों में नियुक्त अध्यापकगण चुनावी कार्य में व्यस्त न होकर भी व्यस्त दिखते रहते हैं, और बच्चों को पढ़ाने से बचते रहते हैं। इससे बच्चों के भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस समय सरकारी कर्मचारी भी नित्यप्रति के चुनावों से दुखी हैं। उनकी अपने घरों से दूर नियुक्ति होना या चुनावी कार्यों में लगे रहना उन्हें भी अखरता है। वह भी चाहते हैं कि यह सारा खेल एक बार ही निपटा लें तो अच्छा है। बात-बात पर चुनाव आचारसंहिता लगाने से जनसाधारण अपने आम्र्स लाइसेंस नही ले पाता और भी कई कामों के लिए उसे दुखी होना पड़ता है। ऐसे में जनता के लोग भी नित्यप्रति के चुनावों से दुखी हैं।
हमारा मानना है कि यदि किन्ही कारणों से कोई विधानसभा समय पूर्व भंग हो जाती है तो उसका अगला चुनाव उतनी ही अवधि के लिए हो जितनी अवधि उस विधानसभा की शेष रह गयी थी। यदि यह अवधि एक वर्ष से कम के लिए है तो अच्छा हो कि इतने समय के लिए उस प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहेगा, चुनाव कराके भी उस एक वर्ष को अगली विधानसभा के कार्यकाल के साथ जोडक़र छह वर्ष कर दिया जाए। यदि लोकसभा भी किसी कारण से समय पूर्व भंग हो जाती है तो उसके चुनाव भी इसी प्रकार किये जायें। केन्द्र में एक वर्ष की अवधि के लिए ‘राष्ट्रीय सरकार’ का गठन किया जाए और यदि लोकसभा मध्यावधि में भंग होती है तो अगली लोकसभा का चुनाव शेष अवधि के लिए ही हो। यदि किसी कारण से ऐसा संभव नहीं होता है और यदि यह आवश्यक ही हो गया है कि लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराने आवश्यक हैं तो उस समय भी बिना आगा पीछा सोचे सारे प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव के साथ-साथ करा दिए जाने चाहिए । कुल मिलाकर सारी चुनावी व्यवस्था को एक साथ लाने के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य किया जाए। एक साथ चुनाव कराने से एक पंचवर्षीय योजना को सारे देश में लागू कराया जा सकता है। उसे राज्य और केन्द्र मिलकर सदभाव से क्रियान्वित करेंगे। क्योंकि तब राज्यों और केन्द्र में एक ही दल की सरकार बनने की संभावना अधिक होगी। उस स्थिति में देश में कुकुरमुत्तों की भांति उभर रहे राजनैतिक दलों पर भी लगाम लगेगी और मतदाता क्षेत्रीय भावना में न बहकर राष्ट्री भावना के साथ मतदान करेगा। फलस्वरूप देश बहुदलीय व्यवस्था से निकलकर त्रिदलीय व्यवस्था की ओर बढ़ेगा। गठबंधन की अवांछित राजनीति से देश को छुटकारा मिलेगा।
अभी हम यह भी देख रहे हैं कि जब राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं तो कई प्रदेशों के मतदाता देश के लिए किसी एक नेता या दल को चुनते हैं जबकि प्रदेश के लिए दूसरे नेता या दल को चुन लेते हैं । सामान्य रूप से देखा गया है कि जब चुनाव एक साथ होते हैं तो जिस व्यक्ति या दल को केंद्र के लिए चुना जा रहा होता है उसी के हाथों में प्रदेश की कमान भी सौंपने का मन प्रदेश के मतदाता बनाते देखे जाते हैं। ऐसे में यदि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो दोनों स्थानों पर एक ही दल की सरकार बनने की संभावना अधिक होगी। ऐसी स्थिति में केंद्र और प्रदेश के बीच किसी प्रकार के टकराव की स्थिति ना होकर सहयोग का भाव बनेगा ,जिससे विकास कार्य भी तेज गति से बढ़ेंगे।
• डॉ राकेश कुमार आर्य
• संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत