जब 1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी सीखने को कंपलसरी किया गया, तो कई हिंसक प्रदर्शन हुए। लेकिन, अब हालात में बदलाव आया है, क्योंकि कई पैरंट्स और स्कूलों ने तमिल के एकाधिकार को चुनौती देते हुए एक लड़ाई शुरू कर दी है और वे अब हिंदी को चाहते हैं।
स्कूल्स और पैरंट्स के एक ग्रुप ने डीएमके सरकार के 2006 में जारी उस ऑर्डर को चुनौती दी है, जिसमें कहा गया था कि 10वीं क्लास तक सिर्फ तमिल ही पढ़ाई जाएगी। इस ग्रुप के 5 जून को दाखिल पिटिशन पर मद्रास हाई कोर्ट ने एआईएडीएमके सरकार से जवाब मांगा है। चेन्नै के स्टूडेंट्स का कहना है कि हिंदी और दूसरी भाषाएं नहीं सीखने से देश और विदेश में उनकी नौकरी की संभावनाओं पर असर पड़ रहा है।
जॉब की जरूरत
मैरिन इंजीनियरिंग करने के इच्छुक 9वीं क्लास के स्टूडेंट कन्नड़ भाषी अनिरुद्ध का कहना है कि वह महसूस करते हैं कि उन्हें तमिल पढ़ने को मजबूर किया जा रहा है। एक निजी टीवी चैनल को उन्होंने कहा, ‘मैं उत्तर भारत में जॉब करना चाहता हूं, सो मुझे हिंदी जानने की जरूरत है।’ उनके क्लासमेट अश्विन, जो केरल से हैं, ने कहा, ‘मैं फ्रेंच सीखना चाहता हूं, जिससे मुझे विदेश में काम करने के बेहतर मौके मिल सकते हैं।’
उठने लगी आवाज
यही नहीं, तमिलभाषी भाई जिशनू और मनु भी संस्कृत और हिंदी पढ़ना चाहते हैं। मनु ने कहा, ‘हम घर पर तमिल बोलते हैं। ऐसे में स्कूल में भी इसे सीखना बोरिंग है।’ उनके भाई कहते हैं, ‘यहां तक कि विदेश में भी स्टूडेंट्स को दूसरी भाषाएं सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।’
बहरहाल, राज्य की मेन पॉलिटिकल पार्टियां तमिल पढ़ाने को लेकर एकजुट हैं, जिसे वे अक्सर क्षेत्रीय गौरव से जोड़ते हैं। मद्रास हाई कोर्ट ने 2000 में भी स्कूलों को तमिल भाषा में हिदायत देने को खारिज कर दिया था, लिहाजा इस बार भी फैसला कोर्ट ही करेगा।
नवी आर्या की फेसबुक प्रोफाइल से