सबका हाथ, सबका साथ और सबका विकास
भारत के संविधान की मूल भावना के साथ हमारे राजनीतिज्ञों ने निहित स्वार्थों में निर्लज्जता की सीमा तक छेड़छाड़ की है। संविधान नही चाहता कि देश में किसी गरीब को सरकारी संरक्षण से केवल इसलिए वंचित होना पड़े कि वह किसी अगड़ी या सवर्ण जाति का है, लेकिन व्यवहार में कितने ही निर्धनों को जाति के आधार पर उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ रहा है। आरक्षण युद्घ ने संरक्षणवाद की भावना को क्षतिग्रस्त किया है। जिससे देश में जातीय हिंसा और जातिवाद को प्रोत्साहन मिला है जो कि संविधान की मूलभावना के सर्वथा विपरीत है।
अब देश में मोदी सरकार बनने पर लोगों को लग रहा है कि अच्छे दिन आ रहे हैं। इसलिए हर क्षेत्र में इस सरकार से कुछ विशेष अपेक्षाएं जनमानस के भीतर जन्म ले रही हैं। भारत के सामाजिक क्षेत्र में जातिवाद और अल्पसंख्यकवाद दोनों ही एक घातक रोग के रूप में पांव पसारे बैठीं हैं। इन दोनों ‘डायनों’ को देश से बाहर निकाल कर समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना सरकार के लिए ‘टेढ़ी खीर’ तो सिद्घ हो सकते हैं लेकिन ये कोई असंभव कार्य मोदी जैसे नेता के लिए सिद्घ होगा ये नही कहा जा सकता।
जातीय आरक्षण के दावेदार वे लोग भी बन रहे हैं जो कि हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम या ईसाईयत में दीक्षित हुए हैं। वोटों के सौदागर लालची और राष्ट्रद्रोही कुछ नेता ऐसे लोगों की इस मांग को भी उचित कह कर शह दे रहे हैं। सचमुच ऐसे नेता ‘बेचारे’ हैं जिनकी बुद्घि पर तरस आता है। उन्हें नही पता कि इस्लाम और ईसाईयत में भी जाति व्यवस्था रही है, तो फिर जातीय आधार पर आरक्षण का लाभ क्यों? वस्तुत: हिंदुओं में से जिन लोगों का मतांतरण किया जाता है उन्हें इसी बात से बरगलाया जाता है कि इस्लाम और ईसाईयत में आपको जातीय तिरस्कार नही मिलेगा। आपके साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। इसीलिए हमारे समाज से अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के द्वारा मतांतरण की अनिवार्य शर्त समानता की प्राप्ति है। यदि ऐसा है तो इनके साथ समानता का व्यवहार करते हुए इन्हें वही सुविधाएं और लाभ प्रदान किये जायें जो कि मतांतरित मत के लिए उपलब्ध हैं।
हमारे संविधान से भी पूर्व अंग्रेजी काल में 1936 में ‘अनुसूचित जाति आदेश’ ब्रिटिश सरकार ने लागू किया था। उसका पैरा दो विशेष रूप से पठनीय है। जिसके अनुसार कोई व्यक्ति जो भारतीय ईसाई या जो बौद्घ धर्म का है वो किसी जाति धर्म का अनुयायी, अनुसूचित जाति का सदस्य नही माना जाएगा। चाहे वह मूलरूप से इस आदेश में विहित अनुसूचित जाति की सूची में ही रहा हो। अंग्रेजों ने या किसी अन्य व्यक्ति ने उस समय इस व्यवस्था का विरोध नही किया था। इसी आधार पर 1950 (स्वतंत्र भारत) के अनुसूचित जाति आदेश में भी व्यवस्था दी है कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू या सिख धर्म से भिन्न किसी धर्म का अनुयायी है तो वह अनुसूचित जाति का नही समझा जाएगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के पहले विधि मंत्री डा. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में सपरिवर्तित व्यक्तियों के अभिवचन की विधि मान्यता को इसी आधार पर निरस्त कर दिया था, किंतु इसके उपरांत भी भारत में जातिवादी हिंसा और जातिवादी आरक्षण की अलम्बरदार रही राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश (संशोधन) अधिनियम 1990 (1990 का 15) बनाकर हिंदू से बौद्घ बने लोगों को अनुसूचित जनजाति के विशेषाधिकार दे दिये हैं। आज जातिवादी राजनीति की जनक राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार की इस असंवैधानिक कार्यप्रणाली का लाभ देश के अन्य मजहब अल्पसंख्यकवादी आरक्षण व्यवस्था लागू करके तथा हिंदू से इस्लाम या ईसाईयत में दीक्षित लोगों को आरक्षित कराके लेना चाहते हैं। वोटों के सौदागर राष्ट्र का सौदा भविष्य में इस मांग के आधार पर किस प्रकार करते हैं, ये देखना अभी शेष है। जो लोग भारत में अल्पसंख्यकों की राजनीति करते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि यहां अल्पसंख्यकवाद के लिए कोई स्थान नही है। क्योंकि यह शब्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के संदर्भ में गढ़ा भी नही गया है। वस्तुत: यह शब्द 1945 में अंतर्राष्ट्रीय नीति निर्धारकों के मन मस्तिष्क में उस समय आया था जब द्वितीय विश्व युद्घ समाप्त हुआ था तो कुछ लोग दूसरे देशों की सीमाओं में फंसे रह गये या छोड़ दिये गये। उनका मूल देश उन्हें वापस नही लेता था और दूसरे देश के लोग उनके साथ पक्षपात का व्यवहार कर रहे थे। तब ऐसे अल्पसंख्यकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक आंदोलन चलाया गया था। जिसके परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए उनकी अलग सांस्कृतिक एवं भाषाई अस्मिता के लिए जो रक्षोपाय 1960 में किये गये थे उनमें इनकी जातीय अस्मिता को बनाये रखने के लिए संबंधित राज्य क्षेत्रों को विशेष निर्देश दिये गये थे।
मानवाधिकारों के लिए बनी एक उपसमिति ने 1960 में अल्पसंख्यकों की परिभाषा करते हुए यह भी कहा कि समुदाय को अल्पसंख्यक मानने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी संख्या पर्याप्त हो और उनके सदस्य उस राष्ट्र राज्य के प्रति जिसमें वह रहते हैं, वफादार हों।
अल्पसंख्यकों की पर्याप्त संख्या से अल्पसंख्यक आयोग का आशय तीस प्रतिशत संख्या से था। इन परिस्थितियों में अल्पसंख्यक वो माने जाएंगे जिनकी राष्ट्रीयता भिन्न हो। पितृभूमि अलग हो। जो कि विश्व युद्घ की परिस्थिति के पश्चात किसी कारण से किसी अन्य देश में रह गये हों। जिनकी संख्या कम से कम तीस प्रतिशत हो। इस सबके उपरांत भी वह उसी राष्ट्र राज्य के प्रति निष्ठावान हो जिसके कि वह अब नागरिक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी मजहबी, सांस्कृतिक या भाषाई पहचान को बनाये रखने के नाम पर वह किसी अन्य देश की मांग नही कर सकते। मजहबी उन्माद के नाम पर राष्ट्र विखण्डन की भयानक प्रसव पीड़ा को 1947 में अनुभव कर चुका है। इनकी पुनरावृत्ति ना हो इसके लिए यह आवश्यक है कि भारत में अल्पसंख्यक कौन है और कौन नही, इस बात का निर्धारण अब हो ही जाना चाहिए।
मौहम्मद अली जिन्नाह ने भारत का जिस आधार पर विखण्डन कराया था वही परिस्थितियां शाही इमाम ने पैदा करनी चाही हैं। इन्हें नही पता कि भारत में मुस्लिम किसी अन्य देश के रहने वाले मूल निवासी नही हैं। अधिकांश मुसलमान इसी देश के मूल पूर्वजों की संतानें हैं। उनका इतिहास और भूगोल दोनों सांझा हंै। इसलिए अल्पसंख्यक होने के लिए सम्प्रदाय की भिन्नता कोई आधार नही है। इसलिए अन्य राष्ट्र की मांग 1947 में जिस प्रकार अतार्किक थी वैसे ही आज भी है।
अल्पसंख्यकों के द्वारा अल्पसंख्यक होकर भी उस राष्ट्र के प्रति निष्ठा का भाव पता नही क्यों उपेक्षित किया जाता है (जिसके कि वह सदस्य) समझ नही आता। बाबरी मस्जिद अभियान में इमाम बुखारी ने (स्टेट्समैन 30-1-1987) में वक्तव्य दिया था कि भारतीय मुसलमानों की मांग के लिए एक नया गृह राज्य स्थापित करने की आवश्यकता है। इतना ही नही, वह चाहते हैं कि भारत में भी इस्लामी राज्य स्थापित हो। भारत के नेता बुखारी जैसे लोगों को अल्पसंख्यकों का नेता मानते हैं। मौहम्मद अली जिन्ना को गांधीजी ने कायदे आजम कहा था। आज भी वही मानसिकता कार्य कर रही है। विखण्डन की बात करने वाले आज भी सम्मानित होते हैं। उन्हें यह नही बताया जाता कि भारत में कोई अल्पसंख्यक नही है। क्योंकि अल्पसंख्यक शब्द के लिए जो परिभाषा ऊपर दी गयी है वह उन पर लागू नही होती। इमाम बुखारी की सोच को आगे बढ़ाते हुए एक अन्य मुस्लिम नेता ने भी यह कहा है कि हम मुस्लिम पहले हैं और भारतीय बाद में। भारत की मुख्य धारा मुस्लिम संस्कृति है और अन्य लोगों को चाहिए कि वे उसमें जुड़ जाएं।
बीते लोकसभा चुनावों में सोनिया गांधी ने शाही इमाम बुखारी से मिलकर भारत में चुनावों के समय फिर अल्पसंख्यक कार्ड खेलकर चुनाव जीतने की जुगत लगाई। परंतु उन मुस्लिमों को दाद देनी पड़ेगी जिन्हेांने सोनिया गांधी और इमाम बुखारी के इस कार्ड का विरोध किया, और उन्हें अपनी योजना में सफल नही होने दिया गया। इसी योजना को सफल करने के लिए सोनिया गांधी ने साम्प्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक लाकर देश के अल्पसंख्यकों को कांग्रेस के साथ जोडऩे का राष्ट्र विरोधी कार्य करने का प्रयास किया। यद्यपि लोकतंत्र में लोगों को अपने साथ लेकर चलना कोई बुरी बात नही है, पर सम्प्रदायों को साथ लेकर चलना बुरा ही नही राष्ट्र विरोधी भी है। सम्प्रदायों को साथ लेकर चलने का अर्थ है कि साम्प्रदायिक राजनीति करना। आज मोदी देश में सबको साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं, इस प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि ऐसे प्रयासों से ही राष्ट्र की मुख्यधारा का निर्माण होता है। साम्प्रदायिक और जातीय राजनीति करने से राजनीति तो दूषित होती ही है साथ ही सामाजिक परिवेश भी दूषित और प्रदूषित होता है। सर्वसमाज समन्वय की राजनीति ही राष्ट्र के लिए उचित होती है। आज हमें ऐसी राजनीति की आवश्यकता है जिसमें जातीय और साम्प्रदायिक संकीर्णताओं के लिए कोई स्थान ना हो। सबका हाथ, सबका साथ और सबका विकास होना तभी संभव है। भारत की संस्कृति ‘सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:’ की रही है। भारत के संविधान की भावना भी यही है, तब तो और भी आवश्यक हो जाता है कि देश में जातीय और सांप्रदायिक दीवारों के नाम पर पैदा की गयी सामाजिक विसंगतियों को यथाशीघ्र समाप्त किया जाए। समान नागरिक संहिता की अवधारणा भी संविधान में इसी भावना से डाली गयी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत की इस सनातन परंपरा के आलोक में यदि राजनीति को नई दिशा देते हैं तो उनका वह कदम निश्चय ही स्वागत के योग्य होगा। भारत ऐसे सम्मानपूर्ण सामाजिक परिवेश की बाट जोह रहा है।