भारतीय नौसेना के भीष्म पितामह हैं छत्रपति शिवाजी महाराज
ज्ञानेंद्र बरतरिया
छत्रपति शिवाजी महाराज आज अपने वक्त से ज्यादा प्रासंगिक हैं। छत्रपति शिवाजी ने युद्ध, राजनीति-कूटनीति और सौहार्द की जो नीतियां गढ़ीं, जो परंपराएं स्थापित कीं- उन्हें सोलहवीं सत्रहवीं सदी के भारत में भले जितना समझा गया हो लेकिन उनके विचारों, नीतियों को बीसवीं-इक्कीसवीं सदी तक दुनिया में सबसे ज्यादा अहमियत दी जा रही है। छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्शों को हिंदवी साम्राज्य का झंडा बुलंद करने और दुनिया में भारत का डंका बजाने का जरिया बनाया जा सकता है। शिवाजी महाराज की नीतियों का कोई तोड़ नहीं- उनकी युद्ध नीति को ही लीजिए जो उन्हें नेपोलियन से भी आगे खड़ा करती है। शिवाजी महाराज के समय तक क्या आज भी प्रचलित युद्ध नीति है कि सेनापति और राजा की पराजय या मृत्यु के बाद युद्ध में हार। लेकिन वो छत्रपति शिवाजी महाराज ही थे जिन्होंने दुनिया भर में सदियों से शतरंज के खेल के आधार पर चल रही इस युद्ध नीति को बदल दिया। शिवाजी महाराज ने अपनी मराठा सेना में चेन-ऑफ-कमांड स्थापित की, और उस कमान को सर्वोच्च शक्तियां प्रदान कीं। इस चेन-ऑफ-कमांड के कारण मराठा सेना अपराजेय हो गई। क्योंकि सिद्धांतत: मराठा झंडा तब तक नहीं झुक सकता था, जब तक एक भी मराठा सैनिक जीवित है और युद्धरत है। क्योंकि शिवाजी अपनी जागीर बचाने के लिए नहीं लड़े। वे स्वराज्य की स्थापना के लिए लड़े। उनका लक्ष्य एक स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करना था लेकिन उनके सैनिकों को स्पष्ट आदेश था कि भारत के लिए लड़ो, किसी राजा विशेष के लिए नहीं। यही कारण था कि शिवाजी के सशक्त योद्धा उनकी मृत्यु के 27 साल बाद भी उनके सपने को जीवित रखने के लिए लड़ते रहे थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज पर प्रख्यात पत्रकार, लेखक, चिंतक, भारतप्रेमी, विचारक और शोधकर्ता फ्रांक्वा गोतिए विचार पढि़ए । फ्रैंच मूल के गोतिए ने फ्रांस के गौरवों में से एक नेपोलियन से ज्यादा श्रेयस्कर छत्रपति शिवाजी महाराज को माना है। गोतिए लिखते हैं-
छत्रपति शिवाजी महाराज के लिए मेरे मन में प्रशंसा का बहुत गहरा भाव है, क्योंकि वह भारत के नेपोलियन हैं, एक अविश्वास्य व्यक्ति, जो अपने सिर्फ कुछ सौ पुरुषों और अपनी बुद्धि मात्र के बूते, दुनिया की तत्कालीन सबसे शक्तिशाली सेना के खिलाफ, जो औरंगजेब की थी, मैदान में डटे रहे थे। छत्रपति शिवाजी महाराज एक योद्धा से कहीं अधिक थे उन्होंने कानून बनाए, पहली भारतीय नौसेना का निर्माण किया, वह एक दृढ़ हिंदू थे, फिर भी उन्होंने सूफी पवित्र स्थानों को दान दिया और अपने दुश्मनों की पत्नियों और बच्चों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया और जिनका दर्शन एक एकीकृत भारत का था। फिर भी, भारतीय इतिहास पुस्तकों में उनकी जगह कम है और उन्हें कम करके आंका गया है।
सिर्फ नेपोलियन ही क्यों? 1934 में प्रकाशित पुस्तक ‘द फाउंडिंग ऑफ मराठा फ्रीडमÓ (इतिहासकार श्रीपाद राम शर्मा) ने लिखा है- ‘राजनीति और राष्ट्रनिर्माण के क्षेत्र में शिवाजी असाधारण रचनाकार थे। उनमें मैजिनी जैसी दृष्टि, गैरीबाल्डी जैसी तत्परता, कैवर (कैमिलो पाओलो फिलीपियो गियोलियो बेन्सो) जैसी कूटनीति और विलियम ऑफ ऑरेंज जैसा देशप्रेम, अटलता और दृढ़प्रतिज्ञ साहसिकता थी। उन्होंने महाराष्ट्र के लिए वह किया, जो फ्रैडरिक महान ने जर्मनी के लिए और अलेक्जेंडर महान ने मकदूनिया के लिए किया था। विडंबना सिर्फ यह है कि विद्वान श्रीपाद राम शर्मा वामपंथी या मैकॉलेपंथी नहीं थे। लिहाजा उनके बारे में कम ही लोग जानते हैं।
पुणे के प्रख्यात संस्थान ‘भारत इतिहास संशोधक मंडल का नाम सभी ने सुना होगा। (‘संशोधक शब्द का हिन्दी और मराठी में तात्पर्य थोड़ा भिन्न होता है), सौ से अधिक वर्ष पुराने इस संस्थान ने शिवाजी महाराज से संबंधित इतिहास पर काम करना शुरु किया। वामपंथी इतिहासकार इशारों-इशारों में कहते रहे हैं कि प्रख्यात इतिहासकार (सर) जदुनाथ सरकार ने ‘पुणे मंडल के प्रकाशनों के प्रत्युत्तर मेंÓ शिवाजी पर दो पुस्तकें लिखी थीं- ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ और ‘द हाउस ऑफ शिवाजी। जदुनाथ सरकार ने भी शिवाजी महाराज की राजमर्मज्ञता को कैवर के बराबर माना है, जो खुद सरकार के शब्दों में इटली के महानतम थे।
जदुनाथ सरकार लिखते हैं- ‘सत्ताओं का पतन होता है, साम्राज्य खंड-खंड हो जाते हैं, राजवंश विलुप्त हो जाते हैं, लेकिन शिवाजी सरीखे राजा के रूप में एक सच्चे नायक की स्मृति पूरी मानव जाति के लिए एक अविनाशी ऐतिहासिक विरासत बनी रहती है।
और भावी पीढिय़ों के लिए शिवाजी क्या हैं? जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि भावी पीढिय़ों के ‘हृदय को चेतन करने, कल्पनाओं को प्रज्वलित करने और आने वाले युगों के मस्तिष्कों को सर्वोच्च प्रयासों तक प्रेरित करने के लिए (शिवाजी महाराज) जनता की आकांक्षाओं के एक स्तंभ, एक विश्व की इच्छाओं के केन्द्र हैं। (जदुनाथ सरकार, हाउस ऑफ शिवाजी, पृ. 115)।
शिवाजी महाराज का लोहा सिर्फ इतिहासकारों ने नहीं माना है। महासागरों के पार भी उनके समकालीन भी उन्हें जानते थे, उनकी प्रतिभा, योग्यता-क्षमता जानते थे। फ्रांस, ब्रिटेन और नीदरलैंड में शिवाजी महाराज अपने जीवनकाल में जाने जाने लगे थे। शिवाजी महाराज की पहली पूर्ण जीवनी एक फ्रांसीसी द्वारा 1688 में लिखी गई थी।
भारत के भीतर भी अहोम राजाओं के असमिया इतिहास में शिवाजी महाराज का उल्लेख है । महाराष्ट्र और असम के बीच की दूरी को देखते हुए समझा जा सकता है कि शिवाजी महाराज अपने जीवनकाल के दौरान ही कितनी दूर-दूर तक लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने हुए थे।
इन संदर्भों के उल्लेख का उद्देश्य सिर्फ यह है कि छत्रपति शिवाजी महाराज को नेपोलियन कहना, हालांकि वह नेपोलियन के पूर्ववर्ती थे, सिर्फ कल्पना या अतिश्योक्ति नहीं है। लेकिन सच इससे भी बड़ा है। सच यह है कि यह देश छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति लगभग अनजान है। अगर छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर थोड़ा भी दृष्टिपात किया जाए, तो इतिहास की थोड़ी सी जानकारी रखने वाला भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि शिवाजी महाराज किसी भी नेपोलियन से कहीं बड़े थे। कैसे?
शिवाजी महाराज की युद्ध नीति वह थी, जो मध्ययुग में किसी के लिए भी कल्पना से परे थी। पहले एक नजर मध्ययुग की युद्ध नीति पर डालते हैं। मध्ययुग में युद्ध बहुत कुछ शतरंज के खेल की तरह होते थे। हाथी, घोड़ा, पालकी, पैदल, राजा और रानी। मुगलों की सेना के साथ तो पूरा हरम चलता था। इस युद्ध नीति पर वही नियम लागू होते थे, जो शतरंज में होते हैं। माने सेनापति मरा, तो आधी लड़ाई खत्म और राजा मरा, तो पूरी लड़ाई खत्म। उस समय के सभी स्थापित साम्राज्यों और सल्तनतों की युद्ध-मशीनरी इसी ढंग से काम करती थी। राजा के मर जाने पर सैनिक भी युद्ध से भाग खड़े होते थे।
इस दोष को शिवाजी महाराज उस उम्र में ताड़ गए थे, जिस उम्र में अन्य बालक अपने मोहल्ले से बाहर निकलना शुरु करते हैं। शिवाजी महाराज ने अपनी मराठा सेना में चेन-ऑफ-कमांड स्थापित की, और उस कमान को सर्वोच्च शक्तियां प्रदान कीं। इस चेन-ऑफ-कमांड के कारण मराठा सेना अपराजेय हो गई। क्योंकि सिद्धांतत: मराठा झंडा तब तक नहीं झुक सकता था, जब तक एक भी मराठा सैनिक जीवित है और युद्धरत है। क्योंकि शिवाजी अपनी जागीर बचाने के लिए नहीं लड़े। वे स्वराज्य की स्थापना के लिए लड़े। उनका लक्ष्य एक स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करना था लेकिन उनके सैनिकों को स्पष्ट आदेश था कि भारत के लिए लड़ो, किसी राजा विशेष के लिए नहीं। यही कारण था कि शिवाजी के सशक्त योद्धा उनकी मृत्यु के 27 साल बाद भी उनके सपने को जीवित रखने के लिए लड़ते रहे थे।
नेपोलियन कभी शतरंज छाप नियम से बाहर नहीं निकला था। वह एक क्रांति का उत्पाद था, जो राज घराने के खिलाफ हुई थी, और बाद में वही नेपोलियन खुद सम्राट बन बैठा था। गुरिल्ला युद्ध शिवाजी की अभिनव सैन्य रणनीति का दूसरा विशेषरूप से उल्लेखनीय सूत्र है। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध के तरीकों का अविष्कार किया, जिन्हें शिवा सूत्र या गामिनी कावा कहते हैं। यह भूगोल, फुर्ती और भौंचक कर देने वाले सामरिक कारकों के अनुसार भारी जोखिम लेकर युद्ध में परिस्थिति का लाभ उठाने की रणनीति है। अपनी बेहद चतुर तकनीक और तीव्र गति से शिवाजी अपने प्रतिद्वंद्वी को आश्चर्य में डाल देते थे। एक शानदार उदाहरण शाइस्ता खान का है, जिसने बिजली की तेजी से किए गए आक्रमण में अपनी उंगलियां खो दी थीं। लेकिन शिवाजी परिपूर्ण सम्राट थे। चतुर राजनीति का परिचय देते हुए शिवाजी ने शाइस्ता खान को दिल्ली लौटने की इजाजत दे दी। वह जानते थे कि कटी हुई उंगलियां लेकर मुगल दरबार में बैठना उसके लिए एक ऐसा अपमान होगा, जो उसकी मृत्यु से भी बदतर था।
कैसे बिना लड़े जीते कई किले ?
शिवाजी महाराज उन चंद कुशल सम्राटों में से थे, जिन्होंने सैन्य विन्यास ही नहीं, सैन्य नीति, कूटनीति और यहां तक कि विवाह नीति का भी बहुत ही कुशलता से प्रयोग किया था। उन्होंने अधिकांश बार अपने से कहीं बड़े सैन्य बलों का मुकाबला किया था और उसे पराजित किया था। कई युद्ध शिवाजी ने बिना लड़े ही जीते। उदाहरण के लिए पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु होने के बाद किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुंचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने तीनों भाइय़ों को बन्दी बना लिया और पुरन्दर के किले पर अधिकार कर लिया। शिवाजी महाराज शुरुआती तीन किले बिना किसी युद्ध या खूनखराबा के प्राप्त कर लिए थे। यह नेपोलियन के रिकार्ड से बेहतर रिकार्ड है। चाणक्य की नीति पर चलते हुए उन्होंने अपने अद्वितीय जासूसों और स्वयंसेवकों का तानाबाना पूरे देश में फैला दिया था और यह तानबाना उन्हें न केवल विजय दिलाता था, बल्कि आगरा से निकल कर वापस महाराष्ट्र तक पहुंचने में उनका यही तंत्र कई बार मददगार साबित हुआ था।
छत्रपति शिवाजी राजे भोंसले पहले ऐसे भारतीय राजा थे, जो एक शक्तिशाली नौसेना के महत्व को समझते थे। अगर यह भी मान लिया जाए कि थलसैनिक ताकत और बहादुरी की सैन्य परंपरा शिवाजी महाराज और उनके लोगों को विरासत में मिली थी, तो भी समुद्र उनके लिए एक नया तत्व था। देवगिरी के यादव वंश के इतिहास तक में किसी नौसैनिक शक्ति के गठन के किसी प्रयास का कोई प्रमाण नहीं है। इसी कारण उन्हें ‘भारतीय नौसेना का पिता कहा जाता है। मुगल और बीजापुर हुकूमतें भी शिवाजी महाराज की समकालीन थीं, लेकिन उन्होंने नौसेना निर्माण की हमेशा उपेक्षा की। हाजियों को ले जाने वाले उनके जहाज और उनके व्यापारी जहाज बीच समुद्र में यूरोपीय ताकतों पर निर्भर रहते थे। यह मुस्लिम हुकुमतों का रिवाज जैसा हो चुका था। ऐसी परिस्थितियों में नौसेना की शुरु करने के लिए शिवाजी महाराज के जोर देने से उनकी दूरदर्शिता का पता चलता है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारंभ में ही शिवाजी महाराज को अहसास हो चुका था कि अपने देश की शांति, अपनी प्रजा की सुरक्षा और उनके बंदरगाहों की समृद्धि के लिए एक मजबूत युद्धक बेड़े की आवश्यकता है, जो अंग्रेजी , पुर्तगाली, सिद्दी और डच जैसी अन्य नौसैनिक शक्तियों की दया पर निर्भर न हो। वह जानते थे कि एक मजबूत नौसेना मराठा व्यापारी जहाजों की समुद्र से निर्बाध आवागमन सुनिश्चित करेगी और फिर उन्हें न तो गोवा की अनुमति लेने होगी न पुर्तगाली पासपोर्ट प्राप्त करने की आवश्यकता रहेगी, जो कुछ शर्तें मानने पर ही दिए जाते थे।
छत्रपति शिवाजी ने अपना नौसैनिक बेड़ा बनाया। उनके बेड़े की कमान सिधोजी गूजर और कान्होजी आंग्रे जैसे जानेमाने नौसेना सेनापतियों के हाथ में थी। आंग्रे के नेतृत्व में मराठा नौसेना ने अंग्रेज, डच और पुर्तगाली युद्धपोतों को कोंकण तट से दूर बनाए रखा।
इससे छत्रपति शिवाजी की सैनिक-राजनीतिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। दक्षिण की तमाम मुस्लिम सल्तनतें, उत्तर में मुगल, और समुद्र से अंग्रेज, डच और पुर्तगाल – छत्रपति शिवाजी अपने सभी शत्रुओं के लिए खतरा थे। एक साथ इतने सारे और इतने शक्तिशाली शत्रु नेपोलियन को बहुत बाद में नसीब हो सके थे। छत्रपति शिवाजी का कल्याण पर पूर्ण नियंत्रण था। उन्होंने 1657-58 से नौसेना के निर्माण की गतिविधियां शुरू कर दी थीं। प्रशिक्षित और कुशल इंजीनियरों के हाथों 20 युद्धक जहाजों के निर्माण का काम शुरू हुआ। प्रत्यक्ष तौर पर शिवाजी यही कहते थे कि नौसेना का इस्तेमाल सिद्दियों के खिलाफ किया जाना था, लेकिन यथार्थ में उनका लक्ष्य सिद्दियों से बहुत आगे का था। जैसे जैसे कोंकण का अधिक से अधिक इलाका उनके कब्जे में आता गया, वैसे-वैसे शिवाजी ने पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, सिंधुदुर्ग और अन्य छोटे तटीय किलों का निर्माण शुरू कर दिया। ताकि अपनी तटीय नौसेना को संरक्षण दिया जा सके और पुर्तगालियों की गतिविधियों पर नजर रखी जा सके और अंकुश रखा जा सके। कोंकण का तट कई स्थानों पर संकरी खाडिय़ों में कटा-फटा है, जो मराठा जहाजों के लिए छिपने का एक उत्कृष्ट स्थान बन जाता था। तट के किनारे स्थित चट्टानी टापुओं को शिवाजी महाराज ने अपनी नौसेना के गढ़ों या अड्डों के लिए उत्कृष्ट स्थल में परिवर्तित कर लिया। जहाजों की मरम्मत, भंडारण और आश्रय के लिए कई किलों और ठिकानों का भी निर्माण किया गया। शिवाजी महाराज ने सशस्त्र और व्यापारिक जहाजों के निर्माण और मरम्मत के लिए रत्नागिरि और अंजनवेल जैसी गोदियों का भी निर्माण किया। शिवाजी महाराज ने सुदूर मस्कट और मोचा तक के साथ व्यापार करने के लिए एक व्यापारिक बेड़े का भी निर्माण किया।
कृष्णाजी अनंत सभासद के अनुसार शिवाजी के बेड़े में नौसेना की दो टुकडिय़ां या स्क्वाड्रनें थीं। प्रत्येक में विभिन्न वर्ग के दो सौ जहाज थे। मल्हार राव चिटनीस ने भी शिवाजी महाराज के चार से पांच सौ जहाजों का उल्लेख किया है। अंग्रेजी, पुर्तगाली और डच अभिलेखों में विशेष अवसरों पर मराठा जहाजों की संख्या का उल्लेख है, लेकिन शिवाजी की नौसेना की पूरी शक्ति का विवरण नहीं है। चूंकि नए जहाजों का निर्माण लगातार होता रहता था और उन्हें नौसेना में लगातार शामिल किया जाता रहा था, इस कारण चार से पांच सौ जहाजों की संख्या व्यावहारिक है। एक उल्लेख में शिवाजी महाराज के नौसैनिक और व्यापारिक जहाजों की संख्या 170 से शुरु होकर 700 तक पहुंचने वाली बताई गई है। शिवाजी महाराज के नौसैनिक और व्यापारिक जहाजों का निर्माण कल्याण, भिवंडी और गोवा के कस्बों में होता था। मराठा नौसेना के विभिन्न प्रकार के युद्धक जहाज थे- गुराब, गलबैट या गलिवत्स, पाल और मांझुआ। जंजीरा के सिद्दियों के साथ शिवाजी की कई लंबी समुद्री लड़ाइयां चलीं। मुसलमान भी मराठा नौसेना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। शिवाजी की नौसेना में कई उल्लेखनीय मुस्लिम सैनिक थे। इब्राहिम खान और दौलत खान (दोनों अफ्रीकी मूल के थे) नौसेना में प्रमुख पदों पर थे। सिद्दी इब्राहिम तोपखाने का प्रमुख था। मराठा नौसेना ने कई विदेशी ताकतों से भारत की रक्षा की।
सिर्फ महान योद्धा नहीं, कुशल प्रशासक और सच्चे हिंदू
छत्रपति शिवाजी महाराज एक योद्धा से कहीं अधिक थे, उन्होंने कानून बनाए, पहली भारतीय नौसेना का निर्माण किया, वह एक दृढ़ हिंदू थे, फिर भी उन्होंने सूफी पवित्र स्थानों को दान दिया और अपने दुश्मनों की पत्नियों और बच्चों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया- एकीकृत भारत का उनका दर्शन आज भी हमें प्रेरणा देता है।
कृष्णाजी अनंत सभासद के अनुसार शिवाजी के बेड़े में नौसेना की दो टुकडिय़ां थीं। प्रत्येक में विभिन्न वर्ग के दो सौ जहाज थे। मल्हार राव चिटनीस ने भी शिवाजी महाराज के चार से पांच सौ जहाजों का उल्लेख किया है। अंग्रेजी, पुर्तगाली और डच अभिलेखों में विशेष अवसरों पर मराठा जहाजों की संख्या का उल्लेख है, लेकिन शिवाजी की नौसेना की पूरी शक्ति का विवरण नहीं है। चूंकि नए जहाजों का निर्माण लगातार होता रहता था और उन्हें नौसेना में लगातार शामिल किया जाता रहा था, इस कारण चार से पांच सौ जहाजों की संख्या व्यावहारिक है। एक उल्लेख में शिवाजी महाराज के नौसैनिक और व्यापारिक जहाजों की संख्या 170 से शुरु होकर 700 तक पहुंचने वाली बताई गई है। शिवाजी महाराज के नौसैनिक और व्यापारिक जहाजों का निर्माण कल्याण, भिवंडी और गोवा के कस्बों में होता था। मराठा नौसेना के विभिन्न प्रकार के युद्धक जहाज थे- गुराब, गलबैट या गलिवत्स, पाल और मांझुआ। जंजीरा के सिद्दियों के साथ शिवाजी की कई लंबी समुद्री लड़ाइयां चलीं। मुसलमान भी मराठा नौसेना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। शिवाजी की नौसेना में कई उल्लेखनीय मुस्लिम सैनिक थे। इब्राहिम खान और दौलत खान (दोनों अफ्रीकी मूल के थे) नौसेना में प्रमुख पदों पर थे। सिद्दी इब्राहिम तोपखाने का प्रमुख था। मराठा नौसेना ने कई विदेशी ताकतों से भारत की रक्षा की।
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