भारत ने यूरोप को बहुत कुछ दिया भी है
रामस्वरूप
भारत जब विश्व सभ्यता का केन्द्र था तो स्वाभाविक ही उसका संबंध संसार की तत्कालीन प्रमुख सभ्यताओं और समाजों से प्रगाढ़ और प्रभावकारी था। जैसा कि भाषाओं के साम्य से स्पष्टहोता है यूरोप, फारस और भारत परस्पर घनिष्ठता से संबंद्घ हैं, और संभवत: इनका मूल भी एक ही हो, परंतु तीनों के समान पूर्वज होने की स्मृति बहुत पहले से विलुप्त है। काल के प्रवाह में यूरोप और फारस ने तो अपने धर्म, अपने देवता, अपनी पुराण कथाएं और अपनी सृष्टिविद्याएं भी खो दीं। इसी कारण अतीत से उनका संबंध पूरी तरह नष्टसा हो गया, किंतु भारत अपनी मूल पहचान को बचाए रखने में समर्थ रहा और आज भी अतीत की स्मृति और संस्कार तो उसके भीतर जीवंत हैं ही, साथ ही एक अर्थ में इन यूरोपीय समाजों और फारसी समाज के भी अतीत का महत्वपूर्ण अंश भारतीयों की स्मृति और जीवन में सुरक्षित है। लिखित इतिहास के समय में भी हम पाते हैं कि भारत का यूनान से घनिष्ठ रिश्ता रहा और यूूनान उन दिनों एशिया का ही हिस्सा था। यूनानी दर्शन, धर्म और साहित्य पर भारतीय प्रभाव सुस्पष्टहै। भारत बुद्घिमत्ता के लिए और ज्ञान के लिए वहां प्रसिद्घ दिखता है। पायरो भारत आए थे। लूसीएनस के अनुसार दर्शन की देवी सबसे पहले सृष्टिके सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र भारत पर अवतरित हुई थीं। 10वीं इस्वी में जन्मे महान ग्रीक संत तायनावासी अपोलोनियस ने भारत की यात्रा की और लिखा-‘‘भारतीय ज्ञानियों के सिरमौर ने अपने विशेष अतिथि से कहा-जो भी पूछना चाहो पूछ लो, क्योंकि तुम ऐसे लोगों के बीच आए हो जो सर्वज्ञ हैं। अपोलोनियस ने पूछा कि क्या भारतीय स्वयं को जानते हैं? महान ज्ञानी ने उत्तर दिया, हम आत्मज्ञान से ही प्रारंभ करते हैं, इसीलिए तो हम सब कुछ जानते हैं। ग्रीक संत भारत यात्रा से बहुत प्रभावित हुए और उनका निष्कर्ष था कि मिश्र और इथियोपिया को भारत से ही ज्ञान प्राप्त हुआ तथा एथियोपिया में रहने वाले निर्वस्त्र दार्शनिक भारत के ही प्रवासी थे। उनका यह भी मानना था कि लगभग पांच सौ ई. पूर्व के यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस और उनके संप्रदाय ने भारत से ही अपने दर्शन की प्रेरणा प्राप्त की थी।
फिर लगभग एक हजार वर्ष से अधिक समय तक यूरोप ईसाइयत के प्रभाव में दबा रहा तथा उसकी आध्यात्मिक परंपरा और संस्थाएं अतीत से अपना रिश्ता खो बैठीं। उन पर एक वैचारिक आवरण पड़ गया और उनकी अंतश्चेतना अपने अतीत के बोध को बनाये रखने में तो असमर्थ होती चली ही गयी, साथ ही भारतीय अध्यात्म को समझ पाने में भी अक्षम हो गयी। यह विचारधारात्मक व्यवधान बाद में एक भौतिक व्यवधान द्वारा और गहरा तथा व्यापक हो गया क्योंकि इस्लाम ने यूरोप पर विजय प्राप्त कर ली तथा उन स्थल मार्गों और समुद्र मार्गों पर इस्लाम का ही आधिपत्य हो गया जो भारत को यूरोप से जोड़ते थे। इस दीर्घ अवधि में भारत और ग्रीक-रोमन विश्व एक दूसरे के लिए अजनबी से हो गये। यद्यपि कुछ भारतीय प्रभाव जैसे कि शून्य भारतीय अंक और ‘पंचतंत्र’ यूरोप पहुंचने में समर्थ रहे। बाद में जब वास्कोडिगामा ने समुद्री मार्ग खोजकर अपने सैनिकों व्यापारियों और मिशनरियों के साथ 1468 में कालीकट की धरती को छुआ, तब एक अन्य रूप में यह संपर्क फिर से स्थापित हुआ। परंतु यह संपर्क सैनिक, व्यापारिक और ईसाई मिशन के उद्देश्य से था और किसी भी तरह की बौद्घिक जिज्ञासा से रहित था, इसीलिए इस पुन: संपर्क से कोई बौद्घिक संपर्क जीवित नही हो पाया।
इन विदेशी यात्रियों के लिए यह कत्र्तव्य निर्धारित था कि वे वापस जाकर यूरोप के अपने स्वामियों और संरक्षकों को अपनी यात्राओं की जानकारी दें। जो जानकारी और वृत्तांत इन यात्रियों ने जाकर सुनाए, उसमें बहुत कुछ गलतियों से भरा और एकांगी था जिसे अब पढऩा बहुत रोचक लगता है। साथ ही यूरोप और उसके मस्तिष्क के बारे में कहीं अधिक पता भी उससे लगता है।
ईसाई मिशनरियों भारत यात्रा से वापस जाकर जो रिपोर्ट दीं, वे और भी दिलचस्प हैं। अधिकांश मिशनरी हिंदुत्व के बारे में धुंधली सी ही जानकारी रखते थे। उन्होंने यहां यह भी पाया कि भारत में एक तरह का एकपंथवाद या एकदेववाद है। उन्होंने माना कि यह यहूदी और ईसाई धर्मों से उधार लिया गया है और अब बहुत अधिक विकृत रूप में भारत में प्रचलित हंै। बी जीजेनवाल्ग एक लूथर संप्रदाय का ईसाई मिशनरी था। वह भारत में घूमा और फिर उसने लिखा-प्रकृति का मौलिक प्रकाश दुष्टब्राह्मणों द्वारा बाद में धुंधला कर दिया गया और हिंदुओं ने स्वयं को शैतान के रास्ते पर भटकने के लिए डाल दिया।
उन मिशनरियों की अधिकांश रिपोर्ट ब्राह्मणों के बारे में निंदा और हताशा से भरपूर तथा सांप्रदायिक विद्वेष से भरी हुई है। सेंटजेवियर ने पहले ही यह लक्ष्य किया था कि ब्राह्मण भारत में अत्यंत प्रतिष्ठित और समादृत लोग हैं तथा उनके ही कारण ईसाईयों को हिंदू विधर्मियों पर अपना प्रभाव फेेलाने में बाधा उत्पन्न होती है और इसीलिए ब्राह्मणों का पूरी तरह वंश नाश कर दिया जाना चाहिए। इसी परंपरा में जीजेनवाल्ग ने लिखा-ब्राह्मण भयंकरतम पाखंडी हैं और ईश्वर की धरती पर उनसे अधिक धूर्त नस्ल शायद कहीं और नही हो। राबर्ट नोबली ने इस समस्या को कुछ अलग ढंग से देखा। उनका तर्क था कि ब्राह्मणों का विरोध उचित नही होगा, किंतु उन्हें धीरे धीरे निष्प्रभावी और उदासीन बना देना चाहिए तथा जो आदर ब्राह्मणों को प्राप्त है, उस आदर का उपयोग करके ईसाईयत को प्रोत्साहन देने के काम में उस भावना को नियोजित किया जाना चाहिए। फलस्वरूप उसने स्वयं यह दावा किया कि एक और भी वेद था, जिसका नाम था जेसुर्वेद यानी ईसा मसीह का वेद। नोबली ने दावा किया कि उस विलुप्त वेद का वही गुरू है और वह स्वयं एक रोमन ब्राह्मण है। उसने तमिलनाडु में ब्राह्मणों से संपर्क कर उनके सामने प्रस्ताव रखा कि मैं तुम्हें वह विलुप्त वेद सिखा सकता हूं।
कुछ मिशनरियों ने संवाद भी किये। जीजेनवाल्ग ने मालाबार के ब्राह्मणों से एक संवाद किया और उसकी रिपोर्ट अपने उच्च अधिकारियों को यूरोप में प्रकाशनार्थ भेजी।
क्रमश: