नरेन्द्र मोदी की भूटान यात्रा का संकेत
कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री
नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद अपनी विदेश यात्रा के लिये सबसे पहले भूटान को चुना । अपने देश की पुरानी परम्परा सबसे पहले या तो अमेरिका या फिर पश्चिमी देशों की ओर भागने की रही है । मोदी ने पश्चिम की ओर देखो के स्थान पर पूर्व की ओर देखो को विदेश नीति का आधार बनाया है । अपने शपथ ग्रहण समारोह में भी मोदी ने दक्षेस देशों के राज्याध्यक्षों को निमंत्रित कर एक नई पहल की थी । भारत की सुरक्षा की दृष्टि से हिमालयी क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है । लेकिन दुर्भाग्य से यह क्षेत्र विकास की दृष्टि से भी और सुरक्षा की दृष्टि से भी अवहेलित रहा है । हिमालयी क्षेत्र के दो दूसरे देशों मसलन भूटान और नेपाल पर चीन अरसे से गिद्ध दृष्टि लगाये बैठा है । नेपाल में माओवादियों को शह देकर चीन वहाँ भारत विरोधी भावनाएँ भड़काने की लम्बे अरसे से कोशिश करता रहा है और उसे कुछ सीमा तक इसमें सफलता भी मिली है । भूटान में भी पिछले कुछ अरसे से वह यही खेल खेल रहा है । उसने प्रयास किया था कि भूटान उसे अपनी राजधानी थिम्पू में दूतावास खोलने की अनुमति दे । चाहे उसे अपने इस प्रयास में सफलता नहीं मिली लेकिन इससे चीन की नीयत का जरुर पता चल गया । यह ठीक है कि पिछले कुछ साल से भारत और चीन के बीच व्यापार बढ़ा है लेकिन चीन सीमा के प्रश्न पर मैकमहोन रेखा को भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा मानने की बात तो दूर , उसने बहुत ज़ोर से अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार ज़माना शुरु कर दिया है । इतना ही नहीं वह भारतीय सीमा के भीतर सैनिक घुसपैठ भी करता रहता है । उसने पाकिस्तान की परमाणु अस्त्र बनाने में ही सहायता नहीं कि बल्कि अब उसके सैनिक जम्मू कश्मीर के उस हिस्से में भी आकर जम गये हैं , जो पाकिस्तान के क़ब्ज़े में है ।
भारत के उत्तरी सीमान्त की सुरक्षा के लिये तीन देश अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । तिब्बत , भूटान और नेपाल । भूटान की सीमा सुरक्षा का उत्तरदायित्व तो भारत के पास ही है । लेकिन भारत की दोषपूर्ण रणनीति के कारण १९५० में ही चीन ने तिब्बत को ग़ुलाम बना लिया था । नेपाल में चीन अभी तक माओवादियों की सहायता कर वहाँ अराजकता और अस्थिरता तो पैदा कर ही रहा है । नेपाल में भारत विरोधी भावनाएँ भड़काने में चीन ने कोई कसर नहीं छोड़ी । भूटान की यात्रा से भारत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि विदेश को लेकर भविष्य में उसकी प्राथमिकताएँ क्या होंगी और साथ ही चीन के बिल्कुल पास खड़े होकर नरेन्द्र मोदी ने उसको स्पष्ट संदेश भी दे दिया है । मोदी ने भूटान में कहा कि यदि किसी का पड़ोसी ठीक न हो तो उसका क्या दुष्परिणाम हो सकता है , इसे भारत से ज्यादा भला कौन जान सकता है ? मोदी के यह कहने का स्पष्ट संकेत चीन की ओर ही था । मोदी ने हिमालय के शिखर पर खड़े होकर चीन को एक और संकेत दिया । भारत फ़ार भूटान और भूटान फ़ार भारत । मोदी ने भारत और भूटान की साँझी सांस्कृतिक विरासत की चर्चा की । दरअसल आजतक भारत पड़ोसी देशों की या तो अवहेलना करता रहा या फिर उनसे विकास और पूँजी निवेश को आधार बना कर सम्बंध विकसित करने की कोशिश करता रहता था , उसने पुरातन साँझी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सम्बंधों का आधार बनाने की कभी कोशिश नहीं की । भूटान यात्रा का संकेत स्पष्ट था पड़ोसी देश जिनके साथ हमारे सांस्कृतिक,सामाजिकऔर सामरिक हित जुड़े हैं , उन्हें वरीयता दी जायेगी । दरअसल दक्षिण पूर्व एशिया और भारत की सांस्कृतिक विरासत साँझी हैं और ये सभी देश चीन से भयभीत रहते हैं । भारत पर इन देशों ने बहुत ही आशा लगाई थी , लेकिन पहले हल्ले में ही जब चीन ने तिब्बत पर हमला बोल दिया तो भारत उसकी सहायता करने की बजाय तिब्बत को ही चीन के साथ मिल जुल कर रहने के उपदेश देने लगा । इससे इन देशों का भारत से मोह भंग हुआ ।
तिब्बत को लेकर भी नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह से एक संकेत चीन को जाने अनजाने चला ही गया है । शपथ ग्रहण समारोह में निर्वाचित तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री डा० लोबजंग सांग्ये को आमंत्रित किया गया था । यदि इस समारोह में दलाई लामा को आमंत्रित किया जाता तो उसका शायद वह निहितार्थ न होता जो डा० लोबजंग को आमंत्रित करने को लेकर हुआ है । दलाई लामा की उपस्थिति उनके धर्मगुरु होने के कारण मानी जा सकती थी लेकिन लोबजंग सांग्ये तो वाकायदा वोट डालकर लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित तिब्बती सरकार के कालोन ट्रिपा हैं । उनको आमंत्रित करने के अर्थ कहीं गहरे हैं । सांग्ये के साथ तिब्बती सरकार की गृह मंत्री डोलमा गेयरी भी आमंत्रित थीं । यदि इस आमंत्रण के गहरे संकेत न होते तो चीन को बाक़ायदा इस आमंत्रण पर भारत के विदेश मंत्रालय में विरोध दर्ज न कराना पड़ता । हिमालयी क्षेत्रों में भावात्मक जुड़ाव पैदा करने के लिये मोदी ने इस क्षेत्र के देशों और प्रान्तों के खेल उत्सव का भी सुझाव दिया । कहने का अभिप्राय यही है कि भारत अपने उत्तरी सीमान्त को लेकर सजग हो गया है और इस क्षेत्र में चीन के प्रत्यक्ष ख़तरे को उसने समझ लिया है । चीन पाकिस्तान के साथ मिल कर भारत को घेरने की नीति पर काम कर रहा है । यही कारण है कि जम्मू कश्मीर के गिलगित और बल्तीस्तान में तो उसके सैनिकों ने ही डेरा डाल सिया है । भारत का यह भूभाग पाकिस्तान के क़ब्ज़े है । यदि चीन की नीयत भारत को मित्र मानने की होती तो वह पाकिस्तान से रिश्ता जोड़ते समय इस इलाक़े में कार्य करने से परहेज़ करता । लेकिन चीन ने तो पूर्वी तुर्किस्तान (सिक्यांग) को इस्लामाबाद से जोड़ने वाले कराकोरम मार्ग के नाम पर गिलगित बल्तीस्तान में घुसपैठ का बहाना ढूँढ लिया है ।
चीन की इस घेराबन्दी का उत्तर नरेन्द्र मोदी ने भूटान के बाद अपनी विदेश यात्रा के लिये जापान का चयन करके दिया है । जापान व चीन की अदावत पुरानी है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से चीन जापान को धमकाने वाली स्थिति में आ गया था । वह बीच बीच में जापान को अपमानित भी करता रहता था । अब तो चीन ने उन द्वीपों पर भी अपना हक़ जताना शुरु कर दिया है जो जापान का भूभाग माने जाते हैं । इसे समय का फेर ही कहना चाहिये की द्वितीय विश्व युद्ध में पराजित हो जाने के बाद अमेरिका ने जापान को सैन्य शक्ति के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आत्म सम्मान के मामले में भी पंगु बनाने के प्रयास किये और उसे कुछ सीमा तक सफलता भी मिली । अमेरिकी प्रभाव के कारण जापान में विसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया अत्यन्त तेज़ हो गई । लेकिन जापान ने अपने परिश्रम से आर्थिक उन्नति के बल पर विश्व में अपना सम्मान प्राप्त किया । ज़ाहिर है उसके बाद जापान अपनी पहचान और आत्मसम्मान के लिये प्रयत्नशील होता । जापान की इसी हलचल ने चीन की चिन्ता बढ़ा दी है । जापान में मानों काल का एक चक्र पूरा हो गया हो । कुछ वर्ष पहले जापान में लोगों ने सत्ता उदार लोकतान्त्रिक दल को सौंप दी , जिसे जापान की राष्ट्रवादी चेतना का प्रतिनिधि दल माना जाता है । इस दल के जापान के प्रधानमंत्री शिन्जों एबे देश के खोये राष्ट्रीय गौरव को प्राप्त करना चाहते हैं । दरअसल भारत और जापान दोनों ही यूरोपीय जातियों की साम्राज्यवादी चेतना के शिकार रहे हैं । भारत द्वितीय युद्ध से पहले तक और जापान उस युद्ध के बाद से । आज चीन दोनों को ही धौंस से डराना चाहता है । नरेन्द्र मोदी ने शायद इसीलिये भूटान के बाद जापान के साथ भारत की एक जुटता प्रदर्शित करने के लिये उसे अपनी विदेश यात्रा के लिये चुना ।
ऐसा नहीं कि चीन भारत की विदेश नीति में हो रहे इन परिवर्तनों की भाषा को समझ नहीं पा रहा । चीन इतना तो समझ चुका है कि भारत में जो नया निज़ाम आया है वह किसी भी देश से आँख झुका कर बात करने के लिये तैयार नहीं है । चीन सरकार के आधिकारिक अंग्रेज़ी दैनिक ग्लोबल टाईम्स ने इसके संकेत भी दिये हैं । दैनिक के अनुसार चीन ने कुछ समय पहले भूटान के साथ दौत्य सम्बंध स्थापित करने की इच्छा ज़ाहिर की थी लेकिन भारत को इसमें आपत्ति थी क्योंकि भारत चीन को इस क्षेत्र में अपना प्रतिद्वन्द्वी मानता हैं । लेकिन चाहता है कि सभी लोग विश्वास कर लें कि मोदी की भूटान और जापान यात्रा में केवल आर्थिक सम्बंध बढ़ाने के प्रयास थे उसका चीन के ख़तरे से कोई सम्बंध नहीं है । लेकिन चीन इतना तो जानता ही है कि आर्थिक सम्बंध राजनैतिक सम्बंधों के पीछे पीछे चलते हैं आगे आगे नहीं ।