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संपादकीय

यज्ञ परंपरा से ही हो सकता है राजनीति का कल्याण

 

लोकतंत्र को संसार की सर्वोत्तम शासन प्रणाली माना जाता है । हमारा भी मानना है कि लोकतंत्र वास्तव में ही संसार की सुंदरतम शासन प्रणाली है। दुर्भाग्य यह है कि आज का संसार लोकतंत्र की वास्तविक परिभाषा और परिस्थिति को समझ नहीं पाया है । सारे संसार में जहाँ – जहाँ भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था काम कर रही है वहाँ – वहाँ पर इस शासन व्यवस्था को किसी न किसी प्रकार गलत लोगों ने हथिया लिया है । लोकतंत्र लोकतंत्र न रहकर लूटतंत्र में परिवर्तित हो गया है ।


भारत में तो यह स्थिति पहले दिन से ही स्थापित हो गई थी। लोकतंत्र को लूटतंत्र में परिवर्तित करने में व्यक्ति की अति महत्वाकांक्षा ने विशेष भूमिका निभाई है। महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं है । पर जब यह महत्वाकांक्षा अन्य लोगों की महत्वाकांक्षा को कुचलने का काम करने लगती है तो यह संसार के लिए आफत बन जाती है। जिससे सारे लोकतांत्रिक संस्थानों और संस्थाओं का विनाश होने लगता है । देखने के लिए तो यह संस्थाएं खड़ी हुई दिखाई देती हैं, परंतु वास्तव में उन पर किसी अत्याचारी व्यक्ति या वर्ग का साया उनका काल बनकर मंडराता रहता है ।
संसार में अनाचार ,अत्याचार ,पापाचार तभी बढ़ता है जब कोई महत्वाकांक्षी व्यक्ति समाज और राष्ट्र की महत्वाकांक्षा को कुचलने लगता है। यहाँ पर समाज और राष्ट्र की महत्वाकांक्षा का अभिप्राय उस सामूहिक चेतना से है जो सर्व समाज के लोगों को जीने के समान अवसर उपलब्ध कराती है।
भारत के ऋषियों ने इस दुष्ट महत्वाकांक्षा को सर्वलोकहितकारी महत्वाकांक्षा में बदलने के लिए यज्ञों की व्यवस्था थी। जिसके माध्यम से व्यक्ति समष्टि के हित में काम करने की प्रेरणा प्रतिदिन लेता है और वह अपने आपको ऐसी सकारात्मक ऊर्जा से भरने का नित्य पुरुषार्थ और उद्यम करता रहता है जो संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए उपकारी होती है।
जब संसार में वैदिक व्यवस्था पतनोन्मुख हो चली तो महत्वाकांक्षा भी बेलगाम हो चली ।उसकी सारी सकारात्मकता नकारात्मकता में परिवर्तित हो गई। इस काल में अनेकों मत ,पंथ और संप्रदायों का जन्म हुआ और उन मत, पंथ व संप्रदायों के प्रचार व प्रसार का ठेका लेकर कुछ लोगों के झुंड के झुंड संसार में इधर-उधर फैल गए । दानवों के यह झुंड जहां – जहां अपनी राजसत्ता स्थापित करने में सफल हुए उन्होंने वहीं वहीं अपनी बादशाहतें और सल्तनतें कायम कर लीं। यही वह स्थिति थी जिसमें भारत की राजसूय यज्ञ की परंपरा और सर्वलोकहितकारी चिंतनधारा का पूर्णतया विनाश हो गया।
राजसूय यज्ञ की परंपरा में सर्वलोकहित साधना की भारतीय परंपरा का विलुप्त होना संसार के लिए बहुत ही कष्टकारी रहा। इसमें राजसत्ता में बैठे बादशाहों और सुल्तानों ने लोगों के अधिकारों का दमन व शोषण करना आरंभ किया । इसी समय से सारे संसार की व्यवस्था अस्त व्यस्त है। राजसत्ता में बैठे लोग लोगों को मूर्ख बनाने के लिए लोकतंत्र , मार्क्सवाद या ऐसी ही किसी शासन व्यवस्था को लाकर बार-बार देते रहे हैं कि इस व्यवस्था से सर्व लोकहित साधना का मनुष्य का सपना साकार होगा ? परंतु कोई भी व्यवस्था सर्वलोकहित साधना की मानव की अभीप्सा को शांत नहीं कर पायी है। इसका कारण केवल एक है कि मूल में कहीं भूल हो रही है।


महत्वाकांक्षा का होना कोई बुरी बात नहीं है यह तो पूर्णतया प्राकृतिक है। हमारे ऋषियों ने इसको मानव समाज के लिए हितकारी बनाने का भारी पुरुषार्थ किया और संसार को एक व्यवस्था दी कि लोकहित साधना को प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का आदर्श बनाए। विश्व के समस्त राष्ट्रों के कल्याण के लिए इस महत्वाकांक्षा का विनियोग किस प्रकार किया जा सकता है – यही विचार राजसूय यज्ञ के कर्मकांड का विषय माना गया है। हमारे महान ऋषि पूर्वजों ने यह व्यवस्था दी कि यदि यज्ञ की भावना को व्यक्ति या राष्ट्र की महत्वाकांक्षा के साथ सम्बद्ध न किया जाए तो विश्व समाज में बलात्कार, अपहरण, मारकाट ,लूट आदि की घटनाओं के इतिहास का ही निर्माण होता है । बहुत सीधा सा प्रश्न है कि औरंगजेब और टीपू सुल्तान जैसे राक्षस प्रवृत्ति के शासकों का यज्ञ की भावना से कोई दूर दूर कभी संबंध नहीं था, जैसे लोगों ने मानवता का खून बहाया तो इसके पीछे कारण केवल एक ही था कि उनकी महत्वाकांक्षा राष्ट्र से भी ऊपर हो गई थी। आज का संसार अपराधों में इसीलिए संलिप्त दीखता है कि राजसत्ता में बैठे लोगों के भीतर यज्ञ की भावना समाप्त हो चुकी है। खून बहाने वाले इतिहास के हीरो बने बैठे हैं । जबकि आवश्यकता यह है कि जो खून बहाने वाले हैं, उन्हीं का खून बहा दिया जाए । यदि ऐसा संस्कार लेकर संसार उठ खड़ा हो तो विश्वशांति बहुत शीघ्रता से स्थापित हो जाएगी। बहुत अधिक लोग ऐसे हैं जो विश्व शांति के शत्रुओं को पहचानते हैं , परंतु उनके लिए समस्या यह है कि राजनीति खून बहाने वालों के हाथों में ही चली गई है । जब व्यवस्था ही खून बहाने वालों के हाथ में हो तो चीजें सुधारनी बड़ी कठिन हो जाती हैं ।
आज लोकहित साधना का भाव मर चुका है। आज के सारे राजनीतिज्ञ अपनी तिजौरियां भर रहे हैं और पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बल पर संगठित अपराध कर कभी सत्ता को कब्जाते हैं तो कभी लोगों की सम्पत्ति , कार – कोठी, बंगला या भूमि पर कब्जा करते हैं। रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं । ऐसे में सत्ता अपना लोकतांत्रिक स्वरूप खो चुकी है । संविधान उनका बंधुआ मजदूर हो चुका है और संवैधानिक व्यवस्था उनके हाथों की कठपुतली बन चुकी है ।
जब एक राष्ट्र में ही कोई सबल अहंकारी व्यक्ति या कोई एक परिवार ( जैसे हमारे यहाँ कॉंग्रेस जैसे कई राजनीतिक दल किसी एक परिवार की परिक्रमा करते हुए दिखाई देते हैं ) या कुछ मनुष्यों का समुदाय अर्थात कोई राजनीतिक दल राष्ट्र की कीमत पर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करता है तब उससे यह अपेक्षा कतई नहीं की जा सकती कि वह लोकहित साधना की भावना के वशीभूत होकर राजनीति कर रहा होगा ।
भारत में कांग्रेस ने जब 1947 में गद्दी संभाली तो उसने भारत की स्वाधीनता में जितना सहयोग दिया उसका कई गुना भारत से वसूल करने की पूरी योजना बनाई। कांग्रेस की यह सोच ही इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि भारत में सियासत को तिजारत में बदलने का काम कांग्रेस ने आरंभ किया , यानि कांग्रेस की शासन सत्ता के पीछे की मनोकामना लोकहितकारी न होकर लूटतंत्र की थी। उसी की देखा देखी अन्य राजनीतिक दलों ने भी सियासत और तिजारत का खेल जारी रखा। भारत के अधिकांश राजनीतिक दल किसी एक परिवार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं । इससे आजादी पूर्व के जहां सैकड़ों राजनीतिक परिवार रियासतों के माध्यम से हुआ करते थे, उससे भी कम सियासती परिवार इस समय देश में हैं , जो सारी राजनीति को संचालित करते हैं।
निश्चय ही इस समय मोदी जी के लिए राजनीतिक सुधार की दिशा में कदम उठाना बहुत आवश्यक हो गया है। यदि राजनीति से खून बहाने वालों को बाहर कर दिया जाए तो सारी व्यवस्था में सुधार आ सकता है। राजनीति खूनी नहीं होती है ,राजनीति में रहने वाले लोग खूनी होते हैं । राजनीति तो उस निर्मल जल की भांति है जो जिस पात्र में डाला जाता है वैसा ही आकार ले लेता है । राजनीति यदि सात्विक व पवित्र हाथों से संचालित होगी तो वह सात्विक भाव की दिखाई देने लगेगी और यदि वह राजसिक हाथों से संचालित होगी तो राजसिक बन जाएगी ,जबकि तामसिक हाथों से संचालित होते समय वह तामसिक हो उठेगी । यह समाज के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपना नेता सात्विक प्रवृत्ति के लोगों को बनाना चाहता है या राजसिक और तामसिक प्रवृत्ति के लोगों को अपने लिए नायक के रूप में चुनता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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