बादलों के बरसने से है गायों के अस्तित्व का गहरा रिश्ता

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सुबोध कुमार

 

हर वर्ष मानसून का समय निकट आते ही देश में अटकलें लगाया जाना प्रारंभ हो जाता है कि इस वर्ष मानसून कम होगा या सामान्य होगा। हैरानी की ही बात कही जाएगी कि विज्ञान के भरपूर विकास के बाद भी इस मामले में मनुष्य प्रकृति पर ही निर्भर है। हालांकि यदि हम भारतीय ज्ञान परंपरा और व्यवहार को देखें तो पाएंगे कि हमने मानसून को अपनी इच्छानुसार बरसने वाला बना लिया था। इसलिए यजुर्वेद 26/26 की वैदिक राष्ट्र प्रार्थना में हमने इच्छानुसार बादलों के बरसने की कामना की है। वेदों में वर्षा का विज्ञान काफी विस्तार से समझाया गया है और उन्होंने वर्षा की प्रक्रिया और विज्ञान में गायों की महत्वपूर्ण भूमिका बताई है।


अथर्ववेद 10/10/6 में कहा है गौमाता यज्ञकर्म करने की प्रेरणा देने वाली यानी उत्तम मानसिकता और कर्म करने की प्रेरणा देने वाली है। अन्न और दूध देने वाली, अपनाने वालों को स्वतंत्र बनाने वाली, पृथिवी – गोचर ही जिसका विशिष्ट स्थान है, वह पर्जन्यपत्नी यानी बादलों की पत्नी, गौमाता बादलों से वर्षा के द्वारा सबका पालन करने वाली है जो देवतास्वरूप ज्ञानी जनों को प्राप्त होती हैं। वेदों की यह बात आज का विज्ञान भी मानने लगा है।

गौमाता है पर्जन्यपत्नी
आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि जहां पृथ्वी पर गौएं होती हैं, पर्जन्य यानी मेघ भी वहीं वर्षा करते हैं और पृथ्वी भी जहां गौएं होती हैं, वहीं पर वर्षा के जल को अपने अंदर संचित करके रखती है और वर्षा के जल से पृथ्वी वनस्पति रूप संतान देती है। जहां पृथ्वी पर गौएं नहीं होंगी, वहां पृथ्वी बांझ हो जाएगी, और मेघ भी वहां वर्षा करने के लिए नहीं आएंगे। जहां पृथ्वी पर गौएं होंगी, वहां वर्षा से पृथ्वी हरी भरी रहती है।
गोचर का गौ के लिए यही महत्व है। यह दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिक एलेन सेवोरी के अनुसंधान से यह सिद्ध भी हो गया है। वह भूमि जहां गौओं का गोबर और गोमूत्र गौओं के खुरों द्वारा मट्टी में रौंद दिये जाते हैं, वहां की मिट्टी में वर्षा के जल को सोख लेने की क्षमता बहुत बढ़ जाती है। हरियाली बनी रहती है। हरियाली में पनप रहे सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा आकाश में बादलों को प्रभावित करने से वर्षा होती है। इसके परिणामस्वरूप गोचरों में हरियाली बनी रहती है। इसीलिए वेद ने गौ को पर्जन्यपत्नी बताया। प्राचीन काल में गोचर बहुत बड़े होते थे। जब गोचर के क्षेत्र से गौएं घास खा लेती थीं तब जो क्षेत्र घास वाले होते थे, वहां चली जाती थीं। इस प्रकार गोचर में घास की कभी कमी नहीं रहती थी। आधुनिक काल में गोचरों का संचालन एक वैज्ञानिक विषय है। हमारे देश में भी गोचर विकास और प्रबंधन भी पशुपालन शिक्षा अनुसंधान पर कार्य होना चाहिए।
इस विषय को वेदों में और भी अच्छे से समझा कर कहा गया है। ऋग्वेद 1/37/11 में मेघों से बारिश की चर्चा की गई है। इस वेद मंत्र के सभी भाष्यकार सभी प्रकार की विभिन्नताओं के बाद भी एक बात में सहमत हैं कि वर्षा न करने वाले विशाल मेघों से भी मरुद्गण अपने प्रभाव से वर्षा करा देते हैं। यह कैसे सम्भव होता है, इसे आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बताता है। पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले-सड़े पत्तों में जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं, उनमें से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिंगै के नाम से जाना जाता है। ये सूक्ष्म जीवाणु हरे पत्तों पर पलते हैं और वायुमंडल में फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं। इन जीवाणुओं में मेघमंडल में वहां के तापमान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है। इसी सूक्ष्माणु के प्रभाव से मेघमंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है। यदि मनुष्य अपने स्वार्थवश पृथ्वी पर वनस्पति तथा हरियाली की मात्रा को कम कर देता है, या चीड़, यूकलिप्टस आदि ऐसे वृक्ष लगाता है जिससे पृथ्वी की हरियाली कम या समाप्त हो जाती है तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर वर्षा के उपयोगी मरुद्गणों का अभाव हो जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा का अभाव हो जाएगा।

ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरियाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वातावरण में उपस्थित हों, वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमंडल में पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक होती है जिससे शीघ्र वर्षा हो जाती है। यह कैसे सम्भव होता है, इसको आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बता रहा है। पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले सडे पत्तों मे जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं उन मे से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिगै के नाम से जाना जाता है। यह सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल मे फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं। इन जीवाणुओं मे मेघ मंडल मे वहां के ताप मान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है। एसी के प्रभाव से मेघ मंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है। ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरियाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वतावरण में उपस्थित हों, वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमन्डल मे पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक हो कर शीघ्र वर्षा कराती है। इसलिए ऋग्वेद के मंत्र 5/83/2 के अनुसार जो व्यक्ति वृक्ष काटते हैं, वे वर्षा के शत्रु होते हैं और उन्हे राक्षसों जैसा दण्ड देना चाहिये।
इसलिए यदि हमें अच्छा मानसून देश में चाहिए तो इसके लिए गौओं की रक्षा ही नहीं करनी होगी, उन्हें पालना भी होगा और उनके लिए गोचर की व्यवस्था भी करनी होगी। हमें यह समझना होगा कि गायेंं हमारे लिए प्राण के समान है। उनसे न केवल वर्षा होने की संभावना बढ़ेगी, बल्कि उनसे कृषि भी अच्छी होगी।

वैदिक वृष्टि प्रार्थना
(वर्षा के जल) बादलों से युक्त उमड़ कर उठें, वायु से सेवित मेघ मिल कर बड़े वृषभों की तरह गर्जन करते हुए आएं, वेगवती जल की धाराओं से पृथ्वी को तृप्त करें। अथर्व 4/15/1
बड़े बलशाली महान दान शील मरुत (सूक्ष्माणु) भलीभांति वर्षा की बौछारों को औषधि तत्वों से परिपूर्ण कर के भिन्न भिन्न स्थानों पर उत्पन्न होने वाले अन्न और औषधीय लताओं वनस्पतियों की वृद्धि करें। अथर्व 4/15/2
आकाश में मेघों को देखने की, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेग पूर्वक वर्षा की धाराओं से विविध रूप वाली वनस्पतियों के उत्पन्न होने की आकांक्षा गायन द्वारा स्तुति की प्रेरणा दें। अथर्व 4/15/3
पृथक पृथक स्थानों पर वर्षा के, मेघों के पृथ्वी पर बरसने के यशोगान किया जाए। अथर्व 4/15/4
समुद्र से जलों को ऊपर लेजाकर अंतरिक्ष में चमकते हुए सूर्य के साथ सूक्ष्माणु गरजते हुए बादलों से वर्षा करवाकर वेगवती जल की धाराओं से भूमि को तृप्त करें। अथर्व 4/15/5
गर्जना करते हुए, कड़कते हुए बादल समुद्र को हिला दें। जल से भूमि को कांतिमयि बना दें। वर्षा की झड़ी से दुर्बल गौओं के लिए गोपालक (गोचर के लिए) अच्छी वर्षा की इच्छा करता है। अथर्व 4/15/6
सूक्ष्माणुओं से संचालित मेघ आकाश से गिरती हुई जल की अजगर के समान मोटी धाराओं के रूप में पृथ्वी पर सुरक्षा के लिए अनुकूल वर्षा करें। अथर्व 4/15/7
आकाश में सब दिशाओं में बिजली चमके, सब दिशाओं में वायु चले, सूक्ष्माणुओं से प्रेरित मेघ भूमि को अनुकूल बनाने के लिए आएं। अथर्व 4/15/8
सूक्ष्माणुओं से प्रेरित मेघों में विद्युत, अजगर के समान मोटे मोटे जल का दान करने वाले वर्षा के झरने पृथ्वी को अनुकूल बना कर रक्षा करें। अथर्व 4/15/9
(वर्षा के) जलों में जो अग्नि गुण हैं, जलों के शरीरभूत बादलों से मिली हुई, जो इस जलों को ओषधि गुण द्वारा वनस्पतियों की रक्षक और पालक होती है, वह अग्नि प्रकट हो कर हमें वर्षा को प्रदान करे। बुद्धिमान जन जानते हैं कि वे जल द्युलोक से आने वाले अमृत रूप धारण करके आए हैं और प्रजा के प्राण हैं। अथर्व 4/15/10
(प्रजापति) प्रजा का रक्षक परमेश्वर (सलिल) साधारण जल को समुद्र को पीडि़त कर-वाष्प बना कर व्यापनशील मेघ के रूप में अन्तरिक्ष की ओर ले जा कर गर्जने वाले मेघ से वीर्य की भांति खूब वृद्धि के लिए पृथ्वी की ओर नीचे वर्षा करता है। अथर्व 4/15/11
प्राणों को देने वाले मेघ से उत्पन्न वर्षा का जल हमारा पिता समान है। जब बादलों की गडग़ड़ाहट की ध्वनि से जलों को नीचे की ओर छोड़ता है, पृथ्वी पर गड्ढों में रहने वाले भिन्न भिन्न रंग बिरंगे मेंढक इत्यादि हर्ष से खूब टर्र टर्र करते हैं। अथर्व 4/15/12
वृष्टि के लिए वार्षिक व्रत सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणो के समान साल भर सोये पड़े मेंढ़क वर्षा से तृप्त हुई वाणी को खूब जोर से बोलते हैं। अथर्व 4/15/13
हे मेंढक मेंढकी के परिवार, वर्षा को देख कर आनंद से चारों पैर फैला कर खूब क्रीड़ा करो और बोलो। अथर्व 4/15/14
ईड़ा पिंगला सुषम्ना के मध्य मन को केंद्रित करके मरुतों (सूक्ष्माणुओं) से अनुकूल हो कर वर्षा द्वारा हमारा पितरों की तरह पालन करने की कामना करो। अथर्व 4/15/15
(जनसामान्य) खूब यज्ञादि कर के महान आनंददायक समृद्धि और ओषधि के कोष को विद्युत और पवन के साथ वर्षा की धाराओं द्वारा समस्त संसार को सींचें। अथर्व 4/15/16

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